आज स्वामी विवेकानन्द का पुण्य स्मरण दिवस है। भारत में संतों और सन्यासियों की ऐसी समृद्ध परम्परा रही है जिन्होंने अपने सत्य ज्ञान, विवेक और विराट व्यक्तित्व को आधार बना कर विश्व कल्याण की सर्वोच्च संभावनाओं का अनुसंधान किया तथा जीवात्मा को शिवात्मा के रूप में परिवर्तित करने में ऐतिहासिक योगदान दिया।
ऐसे संतों-संन्यासियों में स्वमी विवेकानन्द का नाम बड़े आदर और आस्था के साथ लिया जाता है। वास्तव में विवेकानन्द का विराट् व्यक्तित्व सम्पूर्ण अर्थ में भारतीय चेतना का प्रतीक है।वह उच्चतम आध्यात्मिक स्तर के ऐसे योगी थे जिन्होंने सत्य का सीधे रूप में साक्षात्कार किया और खुद को राष्ट्र एवं मानवता के नैतिकता एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। यह उनके व्यक्तित्व के विराट् स्वरूप का ही प्रमाण था जिसके कारण उन्हें पूरब और पश्चिम के बीच सेतु की तरह देखा गया। वस्तुतः विवेकानन्द गहन राष्ट्रवादी थे और उन्होंने सुदृढ़ भारत की परिकल्पना की थी। वह एक समाज सुधारक, विशिष्ट शिक्षाविद् और इन सब से ऊपर एक ऐसे मानवतावादी थे,जिन्होंने व्यक्ति की अन्तर्निहित महानता पर भरोसा जताया था।
स्वमी जी पहले ऐसे राष्ट्रवादी थे जिन्होंने भारतीय-इस्लामी अतीत को भारत की विरासत का हिस्सा बताया था। वास्तव में वह धर्म के क्षेत्र में प्रयोगधर्मी सन्यासी थे। इसी लिए वह कह पाए-"हमारी मातृभूमि के लिए दो महान प्रणालियां यानी हिन्दुत्व और इस्लाम का मेल ही एक मात्र आशा का किरण है,जहां वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर को स्वीकार किया जाए।"स्वामी जी का मानना था कि व्यवहारिक इस्लाम के बिना वेदान्तवाद सिद्धान्त व्यापक मानवता के लिए निर्थक है,भले ही वह कितना भी श्रेष्ट और अदभुत क्यों न हो।इस प्रकार विवेकानन्द ने धर्म कोसहिष्णुता,एकता, व्यवहारिकता और समय के यथार्थ से जोड़ने का सदैव प्रयास किया जो उनके विशालतम व्यक्तित्व का परिचायक भी है और युग की जरूरतों को समझने और उसके अनुरूप जन समुदाय का नेतृत्व करने की उनकी क्षमता का दिग्दर्शन भी।
वस्तुतः विवेकानन्द ने न केवल भारतीय संस्कृति और धर्म में नवचेतन्य का संचार किया बल्कि अपने अल्प जीवन में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और प्रगतिशील समाज की परिकल्पना को समुन्नत आकार देने का प्रयास भी किया।इस अर्थ में कहा जा सकता है कि विवेकानन्द ने समाज के दो संतुलनकारी ध्रुवान्तों की तरह मनुष्य समाज को एक बेहतर समाज के रूप में ढालने के साथ-साथ समतावादी और सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र गढ़ने का कार्य किया जिसे धर्म और राजसत्ता की सम्मिलित शक्ति कभी सुगम नहीं कर सकी। इस लिए उस प्रकाश स्तम्भ के प्रति पूरी मनुष्यता आभारी है जिन्होंने अंधेरे से बाहर उजाले की यात्रा के लिए मनुष्य को प्रेरित किया और उन्हें एक अच्छा आदमी और एक जिम्मेदार नागरिक बनने का मिशन हाथ में लिया। कहना होगा कि विवेकानन्द के चरित्र,व्यक्तित्व,चिंतन और मिशन में मौजूदा समय की सभी चुनौतियों को अवसर के रूप में तब्दील करने का संकल्प साफ झलकता है।
विवेकानन्द ने जीवन की सफलता और बेहतर समाज-राष्ट्र की रचना के लिए अनेक सूत्र दिये हैं। इनमें शिकागो धर्म-संसद में दिया गया उनका यह संदेश कि उठो,जागो,मदद करो,लड़ो नहीं,निर्माण करो,विनाश नहीं,असहमति नहीं,सद् भाव और शान्ति को अपनाओ सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें समतावादी समाज की परिकल्पना निहित है जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए निरन्तर उन्मुख करता है। वस्तुतः मनुष्य मात्र की बुनियादी एकता एवं समता को प्रतिष्ठित करने वाला उनका यह सूत्र मानवतावाद की स्थापना का एक बड़ा अभियान था। वास्तव में धर्म और संस्कृति की दृष्टि से प्रचुर सम्पन्न विविधता वाले भारत में फिलहाल ऐसे ही आदर्श, विवेक और चिंतन को शाश्वत बनाने की जरूरत है जो हमें आधारभूत एकता की खोज की ओर प्रवृत करती हो।
विवेकानन्द ने एक क्रांतिधर्मी और स्वप्नद्रष्टा की तरह नये प्रगतिशील समाज की कल्पना की जिसमें धर्म और जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं है।उन्होंने वेदान्त के सिद्धातों को भी इसी रूप में रखा।अध्यात्मवाद बनाम भौतिकतावाद के विवाद में पड़े बिना यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त को जो आधार विवेकानन्द ने दिया, उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही अन्यत्र ढ़ूंढा जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द वाल्यावस्था में अत्यन्त चंचल और नटखट थे। वह किसी के नियंत्रण में नहीं रहते थे लेकिन रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने और उन्हें गुरु के रूप में आत्मसात करने के बाद उनका एक नये रूप में अवतरण हुआ। वह गुरु के हो गये और गुरु उनके।रामकृष्ण परमहंस ने अपने इस शिष्य का बड़े ही मनोयोग के साथ आत्मोत्थान किया। गुरु के सम्पर्क में आने के बाद विवेकानन्द को प्रेम और ज्ञान की कल्पनातीत अनुभूति हुयी जिसके बल पर ही उन्होंने विश्व के समक्ष वेदान्त दर्शन का व्यवहारिक स्वरूप रखा।गुरु सेवा,अथिति सेवा और दीन-दुखियों की सेवा विवेकानन्द के व्यक्तित्व की बड़ी विशेषता थी। उनका युवा वर्ग पर अटूट विश्वास था और स्त्रियों के प्रति अगाध आस्था थी। वह इन दोनों को राष्ट्र निर्माण की धुरी के रूप में देखते थे। वह चाहते थे कि शिक्षा पर मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार न रहे बल्कि निचले स्तर पर जीवन यापन कर रहे लोगों तक इसका विस्तार हो। वह देश में उच्च तकनीकी शिक्षा को समुन्नत करने के प्रति सदैव सचेष्ट रहें। जब वह शिकागो धर्म सभा में भाग लेने जा रहे थे तब जहाज में उनकी मुलाकात प्रसिद्घ उद्योगपति जमशेद जी नसरवान जी टाटा से हुई। इस मुलाकात के दौरान उन्होंने टाटा को भारत में वैज्ञानिक शोध संस्थान स्थापित करने का सुझाव दिया। फलतः देश में इंडियन इंस्टीच्यूट आफ सांइस की स्थापना हुई, जिसने आने वाले समय में देश की प्रगति में उल्लेखनीय योगदान दिया।
हम कह सकते हैं कि भारत में अब तक जितने सन्यासी पैदा हुए, उनमें सबसे मौलिक,सबसे उदार,सबसे स्पष्ट और सर्वाधिक सृजनशील विवेकानन्द थे। उनके जैसा विराट् व्यक्तित्व वाला व्यक्ति सदियों में एकध बार ही पैदा होता है। भगिनी क्रिस्तिना ने ठीक ही कहा था-"धन्य है वह देश जिसने विवेकानन्द को जन्म दिया। धन्य हैं वे लोग जो उस समय पृथ्वी पर जीवित थे।"भगिनी निवेदिता लिखती हैं-"शिकागो की धर्म सभा में स्वामी जी ने जब अपना भाषण आरम्भ किया, उनका विषय था हिन्दुओं के प्राचीन विचार और जब उनका भाषण खत्म हुआ तो आधुनिक हिन्दू धर्म की सृष्टि हो चुकी थी।