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चार धाम की दुर्गम यात्रा वृतांत / मुकेश प्रत्यूष

जब घुड़साल में बितानी पड़ी थी एक रात / मुकेश प्रत्यूष 


उत्तराखंड के पहाड़ों में एक ऐसा आकर्षण है कि तमाम खतरों और असुविधाओं के बावजूद  कितनी बार भी जाएं मन नहीं भरता। हर बार यही लगता है एक बार फिर चला जाए। 


हम उत्‍तराखंड के चार धाम की यात्रा  कई बार कर चुके थे।  हर बार सब कुछ  लगभग निश्चित कार्यक्रम के अनुसार होता था इसलिए एक निश्चिंतता सी हो गई थी। वैकल्पिक  व्‍यवस्‍था करना हमने प्राय: छोड़ दिया था और इसका खामियाजा एक बार मुझे अपने पूरे परिवार के साथ भुगतना पड़ा था। 


2003 में मैं अपने पिता, दो छोटे भाइयों - दीपक और अमित-,  पत्नी और दोनों बेटों क्षितिज और पल्‍लव के साथ उत्तराखंड की यात्रा पर एक बार फिर गया।  हरिद्वार में हमें एक नया सुमो और अनुभवी ड्राइवर  मिल गया था। हमने उसे दस दिनों के लिए बुक कर लिया था। पूरी यात्रा में वह हमारे साथ रहने वाला था।  यमुनोत्री और गंगोत्री की यात्रा कार्यक्रम के अनुसार पूरी हो गई  थी। गंगोत्री से चलकर हम दूसरे दिन  गौरीकुंड शाम होने से पहले पहुंच गये। केदारनाथ जाने के लिए यहां तक सड़क मार्ग है इससे आगे की यात्रा पैदल, घोड़े, पालकी या पिट्ठू से करनी पड़ती है। इसमें पिट्ठू मुझे सबसे अमानवीय लगता है।  यात्री को एक डोलची में बिठाकर पिट्ठू अपने पीठ पर एक बेल्‍ट के सहारे टांग लेता है। बेल्‍ट उसके ललाट को घेरते हुए सिर से बंधा रहता है। यात्री और उस डोलची का सारा वजन उसके ललाट पर होता है।  भारी-भरकम यात्री आराम से पैर लटका कर बैठा रहता है और पिट्ठू उस हाड़कंपाती ठंढ में पसीने-पसीने होता हांफता हुआ पहाड़ चढ़ता रहता है। पालकी भी उतना ही अमानवीय है। सवारी अगर अशक्‍त हो, अत्‍यधिक वृाद्ध हो तब तो बात कुछ समझ में आती है। लेकिन जब कोई खाया-पिया राजनेता या नेत्री ऐसा करता है तो देखकर सिर शर्म से झुक जाता है और उन बेवश मजदूरों के लिए  दिल रो उठता  है। अमीरी और गरीबाी में ऐसा अंतर। 


गौरीकुड में रत बिताने के लिए हमें अच्‍छे कमरे मिल गए। पास में ही खाना भी मिल गया। अगले दिन  सुबह होने से पहले ही तैयार होकर कमरा खाली कर दिया और पास के सामान को ले जाकर गाड़ी में डाल दिया। तय हुआ दिन रहते लौट आएंगे और निकल चलेंगे।  रास्‍ते  के किसी शहर में आज की रात बि‍ताएंगे। यहीं गलती हो गई ऐसा हमने पहले कभी नहीं किया था।  


जरूरी सामान लेकर केदारनाथ की ओर चल दिए।  हम प्राय: पहाड़ पैदल चढ़ते हैं। अम्‍मा-पापा पिछली यात्राओं में पैदल ही चले थे लेकिन इस बार पापा की उम्र  पचहत्‍तर पार कर गई थी। हम कोई खतरा लेना नहीं चाह रहे थे इसलिए आने  जाने के लिए घोड़े किराये पर ले लिये।  हालांकि पहाड़ से उतरते  वकत घुड़सवारी का हमारा अनुभव अच्‍छा नहीं रहा। गुरूत्‍वाकर्षण बनाए रखने के लिए घोड़े पर काफी पीछे झुक कर बैठना पड़ता है उससे उतरने के बाद थकान और पीठ में दर्द ज्‍यादा हुई । 


केदारनाथ पहुंच कर देर तक  घुमते रहे।   मंदिर के पीछे बने आदि शंकराचार्य की समाधि पर कुछ देर बैठे। केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे आदि शंकराचार्य की समाधि है। पहली बार  आया था तो टीन के शेड वाला एक छोटा सा कमरा था। उसका नवनिर्माण हाल में ही हुआ था। 


आदि शंकराचार्य का व्यक्तिगत और कृतित्व ने मुझे हमेशा आकर्षित किया है। मात्र 32 वर्षों की आयु मिली थी उन्हें। इसी में उन्होंने भारत भ्रमण किया, चारों दिशाओं में  चार मठों की स्थापना की, अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया,  सांख्‍य दर्शन की मीमांशा की,   भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों  का भाष्‍य किया, आत्मा और परमात्मा की एकरूपता की बात कही,  मंडण मिश्र को शास्‍त्रार्थ में पराजित कर  सगुण और निर्गुण दोनों रूपों के अस्तित्‍व को स्‍वीकार किया और करवाया। इसलिए मुझे जब भी अवसर मिला उनके जन्मस्थान कलाडी और समाधि पर जाकर शीश नवाया।  


हम एक बार  फिर  केदारनाथ मंदिर आए परिक्रमा की और वापस चल दिए। तेज बारिश होने लगी थी। हम इसके अभ्‍यस्‍त हो चुके थे,  छाता-बरसाती साथ में था इसलिए कोई परेशानी नहीं हो रही थी। गौरीकुंड पहुंच कर हमने घोड़े छोड़ दिए। घोड़े वालों को मजदूरी और थोड़े और पैसे, जिसे वे चाय-पानी के लिए या बख्‍शीश कहते हैं दिए। फिर  अपनी गाड़ी की ओर चल दिए।  


वहां पता चला हम आज आगे नहीं जा सकते क्‍योंकि रास्‍ते में लैंड स्‍लाइड हुआ है और पूरा रास्‍ता बंद हो गया है।  अब हमें तत्‍काल रात में रूकने का इंतजाम करना था। कमरा खोजना शुरू किया, रास्‍ता बंद होने के कारण सभी यात्री फंस गए थे इसलिए सभी कमरे भर गए थे। कहीं भी जगह नहीं मिली। रात घिरने लगी थी और ठंढ बढने लगी थी। हम परेशान। अचानक वह घोड़े वाला दिखा जो हमें लेकर गया था। इन इलाकों में घोडे वालों और मकान मालिकों के बीच अच्‍छा तालमेल होता है वे यात्री लाते हैं और मकान वाले यात्री देते हैं। इसलिए घोड़े वालों को खाली सभी कमरों की जानकारी रहती है।  ।  उससे पूछा।  उसने कहा नहीं  कहीं जगह नहीं मिल पा रही है। आज बहुत परेशानी है। हमने कहा और क्‍या उपाय हो सकता है। रात तो कहीं बि‍तानी है उसने कुछ सोचा फिर कहा अपने साथी से पूछ कर बताता हूं और चला गया। थोड़ी देर में लौट कर आया और कहा हम दो लोग एक कमरे में अपने जानवरों के साथ रहते हैं हम अपने दोस्‍त के पास चले जाएंगे आप उसी में रूक जाइये। और कोई उपाय था नहीं हम उसके पीछे-पीछे चले। थोड़ी ऊंचाई पर मिटृटी और पत्‍थर का बना एक कमरा था फर्श मिट्टी की थी। कमरे में एक चौकी थी जिसपर एक  गंदा-सी दरी बिछी थी। उसके नीचे क्‍या बिछा था मालूम नहीं, पुआल जैसी कोई चीज थी। तकिया, चादर का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता  था।  दो पुराने-गंदे  कंबल थे, चूकि इसमें उनके घोड़े भी रात में रहते थे इसलिए काफी बदबू थी। बिजली नहीं थी केवल एक छोटी-सी  ढिबरी जल रही थी उसमें मिट्टी का तेल इतना ही था कि बमुश्किल आधे घंटे जल सके। कुछ  घंटे पहले तक  हम ऐसे कमरे में रूकने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। कहां सुबह हने सोचा था कि रात किसी शहर के किसी होटल में गुजारेंगे लेकिन परिस्थितियों ने कुछ ऐसा मोड़ लिया था कि हम घुडसाल में  रात गुजारने जा रहे थे। 


बदबू के कारण खाना खाने की इच्‍छा किसी को नहीं हुई। सब लोग उस चौकी पर जैकेट-जूता पहने ही आड़े-तिरछे लेट गये। काशिश की कंबल न ओढ़नी पड़े। जैसे-जैसे रात बढ़ी ठंढ भी बढ़ती चली गई और एक वक्‍त ऐसा आया कि हमें  उस कंबल का प्रयोग करना ही पड़ गया। फिर बारिश शुरू  हो गई और उस छोटे से कमरे में जहां-तहां पानी टपकने लगा। मिट्टी का फर्श गीला और फिसलन भरा हो गया। शायद ही उस रात हम थोड़ी देर के लिए भी सो पाए।  सब जागते और सुबह में कमरा छोड़ने के निर्णय पर अफसोस जाहिर करते रहे। अंधेरे में फिसलने के डर से कोई रात चौकी से रातभर उतरा भी नहीं।  सब  डरते रहे कि कल कहीं किसी की तबियत खराब न हो जाए। अभी यात्रा अधूरी है। एक ही संतोष था कि गाड़ाी पास में है हम सात-आठ घंटे में देहरादून या हरिद्वार पहुंच सकते हैं या पास के किसी शहर में। और,  आपातकालीन चिकित्‍सा करवा सकते हैं।  राम-राम करके रात कटी। सुबह पौ फटते ही पता चला रास्‍ते से मलवा हटा दिया गया है। थोड़ी देर में रास्‍ता खुल जाएगा। कुछ लोग अपनी-अपनी गाड़ी में जाकर बैठ चुके थे। घोड़े वाले भी यात्री को लेकर निकलने की तैयारी में थे। उस बेचारे  ने हमारे लिए रात में न केवल अपना कमरा खाली कर दिया था बल्कि ठंढ में अपना कंबल भी हमें दे दिया था, उसके त्‍याग के आगे हमारी असुविधा कुछ नहीं थी।  उसे अपेक्षा से अधिक किराया दिया और पास के एक मकान में जाकर  बाथरूम अटैच एक कमरा, जो अभी-अभी खाली हुआ था उसे किराये पर लिया। हाथ मुंह धोये और आकर गाड़ी में बैठ गये और फिर सोये तो घंटों सोये ही रहे। 


आज भी उस रात की बात सोचकर हम सिहर उठते हैं लेकिन उस घोड़े वाले के प्रति श्रद्धा से सिर झुक जाता है।


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