• रियाज़ मसरूर
  • बीबीसी संवाददाता, श्रीनगर से
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बीते साल पांच अगस्त को भारतीय संसद ने संविधान संशोधन करके कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले 65 साल पुराने प्रावधान को ख़त्म कर किया था.

इसके तहत अलग संविधान, अलग झंडे, सामान पर टैक्स लगाने के अधिकार और कश्मीर से बाहर के भारतीयों के यहां बसने पर पाबंदी समाप्त की गयी थी.

जम्मू कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का भी निर्णय लिया गया था. तभी से भारत प्रशासित कश्मीर से ख़बरों को बाहर भेजना मुश्किल हो गया है.

अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया जाना स्थानीय राजनेताओं के लिए लंबे समय से भावनात्मक मुद्दा रहा है और वे इसे भारत के'संविधान में दी गई गारंटी'बताकर इसके विरोध में रहे.

ऐसे में भारत सरकार ने हज़ारों लोगों को, जिनमें भारत समर्थक राजनेता भी थे, अरेस्ट कर लिया. कई हफ़्तों तक कर्फ़्यू लगा दिया. फ़ोन लाइनें बंद कर दी गईं और इंटरनेट भी रोक दिया गया.

इंटरनेट पर लगाए गए इस कर्फ़्यू के कारण हिमालय की इस घाटी में जीवन का हर पहलू प्रभावित हुआ है.

मगर सबसे ज़्यादा परेशानी कश्मीर में काम करने वाले पत्रकारों को हुई है.

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मीडिया सुविधा केंद्र से निराशा

संचार पर पूरी तरह पाबंदियों के बाद प्रशासन ने चार कंप्यूटरों की मदद से एक स्थानीय होटल में 'मीडिया सुविधा केंद्र'बनाया ताकि यहां के लगभग 300 और बाहर से बड़ी संख्या में आ रहे पत्रकारों की संचार की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके.

स्थानीय पत्रकारों की अपील के बाद इसे सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में शिफ़्ट कर दिया और कंप्यूटरों की संख्या बढ़कर छह हो गई.

मगर पत्रकारों को प्रतिबंधों, रोक-टोक और अनादर का सामना करना पड़ता रहा.

वरिष्ठ कश्मीरी पत्रकार परवेज़ बुख़ारी कहते हैं, "जब सैकड़ों निगाहें टिकी हों तो एक रिपोर्टर कैसे स्टोरी फ़ाइल कर सकता है. प्राइवेसी का मसला तो है ही, यह सुविधा देना नहीं बल्कि मॉनिटरिंग करना हुआ. मैं इसे मीडिया मॉनिटरिंग सेंटर कहूंगा."

बुख़ारी कहते हैं कि जब भी प्रशासन को बताया जाता है कि 'नेट कर्फ़्य़ू'के कारण पत्रकारों को मुश्किलें हो रही हैं तो वे आश्वासन देते हैं कि कंप्यूटरों की संख्या जल्द बढ़ा दी जाएगी. वे कहते हैं, "हम और कंप्यूटर नहीं मांग रहे, हम काम करने की आज़ादी चाह रहे हैं."

निशा ज़रगर युवा पत्रकार हैं जो 2016 से फ्रीलांसर के तौर पर काम कर रही हैं. वह कहती हैं कि मीडिया सेंटर के कारण बहुत परेशानी होती है.

वह कहती हैं, "हमारी तलाशी ली जा रही है. हमें अपनी पहचान साबित करनी होती है और फिर घंटों तक लंबी कतारों में इंतज़ार करना होता है. एक बार दिल्ली से एक पत्रकार आईं. उन्हें एक रिपोर्ट फ़ाइल करनी थी. इसी में चार घंटे लग गए. जब वह इसमें सफल हुईं तो इतनी उत्साहित थीं कि अपना ईमेल लॉगआउट करना भूल गईं और उनका कुछ सामान भी यहां छूट गया था."

मीडिया सेंटर के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी यहां इश्तियाक़ अहमद नाम के अधिकारी के पास है. वह दावा करते हैं कि पिछले पांच महीनों में यहां कम से कम चार लाख लोगों ने इंटरनेट इस्तेमाल किया है.

उनका दावा है, "हर रोज़ औसतन यहां 300 पत्रकार अपना काम भेजने आए. पांच अगस्त से यह सिलसिला चल रहा है. अनुशासन बनाए रखने के लिए हमने एक रजिस्टर रखा है जहां लोगों को अपना नाम और फ़ोन नंबर देना होता है. यह पत्रकारों के ही भले के लिए है क्योंकि हम नहीं चाहते कि पत्रकारों के अलावा कोई और यहां आए."

नेट कर्फ़्यू से भारतीय और विदेशी मीडिया के लिए काम करने वाले ही पत्रकार प्रभावित नहीं हुए हैं बल्कि स्थानीय प्रेस को भी अस्तित्व बचाए रखने के लिए पुराने तौर-तरीक़ों की ओर लौटना पड़ा है.

कश्मीर का मीडिया सेंटर

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कश्मीर का मीडिया सेंटर

स्थानीय अख़बारों को भी दिक्कत

आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 200 दैनिक अख़बार और 50 साप्ताहिक अख़बार श्रीनगर से छपते हैं. वे भी पूरी तरह मीडिया सेंटर पर ही आश्रित हैं. उस मीडिया सेंटर पर जहां इंटरनेट कनेक्शन वाले आधा दर्जन से अधिक कंप्यूटर नहीं हैं.

उर्दू दैनिक अख़ाबर घड़ियाल के संपादक मुहम्मद अरशद कहते हैं, "हम अपने पन्ने कैसे भरें. हमें लगता है कि हम 1989 में हैं, जहां हर काम मैनुअली होता था. बिना इंटरनेट न्यूज़रूम चलाने के बारे में सोचिए. हमारा स्टाफ़ ख़बरें वग़ैरह जुटाने के लिए कई घंटे मीडिया सेंटर में बिता देता है. फिर प्रिंटिंग करनी होती है. हम पीडीएफ़ फ़ाइल को प्रेस को ईमेल कर देते थे. अब सोचिए कि हमें बटर पेपर पर अख़बार प्रिंट करना होता है और फिर उसे प्रिंटिंग प्रेस ले जाना होता है. ख़राब मौसम और सुरक्षा कारणों से यह काम बेहद मुश्किल और ख़तरनाक भी है."

कश्मीर में अख़बारों के बिज़नेस को आधिकारिक तौर पर उद्योग का दर्जा नहीं हासिल, मगर फिर भी हज़ारों लोग इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं.

संवाददाता हों या फिर स्थानीय मीडिया हाउस, इंटरनेट पर पाबंदी ने कश्मीर के कवरेज को हल्का कर दिया है.

वरिष्ठ पत्रकार परवेज़ बुख़ारी कहते हैं, "नज़र रखे जाने के डर से कई पत्रकार कॉन्टेंट इकट्ठा करते हैं और दिल्ली जाकर स्टोरी देते हैं. जो काम एक दिन में हो जाना चाहिए, उसे छपने में एक हफ़्ते तक का वक़्त लग रहा है. भले ही यहां न्यूज़ को सेंसर नहीं किया जा रहा है मगर पाबंदियां इतनी हैं कि हमें सेंसर जैसा ही महसूस हो रहा है."

भारत के गृह मंत्री अमित शाह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इंटरनेट की बहाली ज़मीनी हालात के बेहतर होने पर निर्भर करती है. उन्होंने पिछले महीने संसद में कहा था, "हालात बेहतर होंगे तो स्थानीय प्रशासन इस पर फ़ैसला लेगा."

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