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भारतीय_स्वतंत्रता_संग्राम_के_आरंभिक_शहीद

 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक शहीद वीरपंड्याकट्टबोम्मन तमिलनाडु के एक महान देशभक्त थे। सन 1790 मे महज 30 वर्ष की अल्पायु मे वह पंचालनकुरुचि के शासक बने। उस काल मे दक्षिण भारत का एक बड़ा भाग आरकोट के नबाब के अधीन था। नबाब ने 1792 मे ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक समझौता किया था जिसके अंतर्गत उसने करों की वसूली का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया था ।अपनी फितरत के अनुरूप ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश के रीति रिवाजों और परंपराओं की अनदेखी ही नहीं की वरन वह राजाओं से अधिक से अधिक धन वसूली के लिए निरंकुश भी हो गयी थी। अधिकांश स्थानीय राजाओं ने बिना किसी प्रतिरोध के कंपनी की तानाशाही कबूल कर ली थी और उनके दास बन गए थे। परंतु वीरपंड्या कट्टबोम्मन ने अंग्रेजों की दासता स्वीकार करने से इनकार कर दिया और कंपनी द्वारा अपनाए राजस्व समझौते की जम कर भर्त्सना भी की।


अंग्रेजों ने पंचालनकुरुचि किले पर अपना अधिकार करने की तमाम कोशिश की पर उनका हर प्रयास विफल ही रहा। यहाँ तक वीरपंड्या कट्टबोम्मन को छल से रामनाथपुरम मे गिरफ्तार करने के कंपनी के तिरुनेलवली के कलेक्टर डब्लू सी जैक्सन का प्रयास भी पूर्णतः विफल ही रहा। धीमे धीमे क्षेत्र के अधिकांश स्थानीय सरदार जिन्हे स्थानीय भाषा मे पालीगर कहा जाता था , कट्टबोम्मन को छोड़ कर कंपनी के वफादार बन गए , इससे कट्टबोम्मन के लिए परिस्थितियां विषम होने लगीं।


मैसूर और ब्रिटिश साम्राज्य की चौथी लड़ाई शुरू होने पर कट्टबोम्मन ने इस अवसर को लाभ मे परिवर्तित करने का निर्णय लिया और विद्रोहियों का एक संगठन बनाया। इस संगठन मे नागलपुरम , कुलातुर , कडालकुडी , कोलारपट्टी , मैलमंताई , ईझझरम्पनने के पालीगरों के अलावा रामनाथपुरम , शिवगंगा ,विरूपतची और स्थानीय लोग शामिल थे। सन 1799 मे कट्टबोम्मन ने कंपनी को कर देने से मना कर दिया और साथ ही साथ कंपनी अधिग्रहीत इलाकों पर आक्रमण भी कर दिया। उनके इस कदम को और बल मिल गया जब विद्रोही पालीगरों ने भी कंपनी को कर की किश्त का भुगतान करना बंद कर दिया।


अपनी किरकिरी से आगबबूला होकर , विद्रोही पालीगरों का दमन करने की इच्छा से मद्रास प्रेज़िडेन्सी के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली एक विशाल फौज भेजी ।सन 1799 मे मेजर जॉन बैनेरमन ने कट्टबोम्मन के खिलाफ सैन्य कार्यवाही प्रारंभ की और कट्टबोम्मन को पालयमकोट्टई मे स्वयं मिलने की अंतिम चेतावनी दी। परंतु कट्टबोम्मन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा । हारकर निराश मे ब्रिटिश फौजों ने 5 सितंबर 1799 को पंचालनकुरुचि किले पर हमला बोल दिया । दोनों पक्षों को भारी नुकसान हुआ। लेकिन जैसे मेजर जॉन बैनेरमन ने किले पर जल्द से जल्द कब्जा करने की योजना बनाई थी वह विफल हो गयी। कई दिनों तक बहादुरी से ब्रिटिश फौजों का सामना करने के बाद विद्रोहियों ने किले को खाली कर दिया।


कट्टबोम्मन और उनके साथियों को पुडुकोट्टई के निकट कालापोर के जंगलों मे पुडुकोट्टई के पालीगर विजया रघुनाथ तोंडईमान ने गिरफ्तार कर लिया और अंग्रेजों को सौंप दिया। 6 अक्टूबर 1799 को मेजर जॉन बैनेरमन ने इस बहादुर पालीगर कट्टबोम्मन को कायत्तर मे पालीगरों की एक सभा मे पेश किया। एक दिखावटी मुकदमा चलाने के बाद कट्टबोम्मन को 39 वर्ष की अल्पायु मे मौत की सजा सुना दी गई।


कट्टबोम्मन ने जीवन के अंतिम क्षणों मे भी अदम्य साहस का परिचय दिया। वह सम्राज्यवाद के एजेंटों के हाथों फांसी पर लटकना नहीं चाहते थे उन्होंने स्वयं ही निकट इमली के पेड़ पर लटकती हुई रस्सी उठाई और अपने आप ही स्वयं को फांसी लगा ली। इस प्रकार माँ भारती का यह सपूत स्वाधीनता संग्राम मे अपनी भारत भूमि के लिए प्रथमतः बलिदान देने वाले शहीदों के अग्रिम पंक्ति मे शामिल हो गए।


वीरपाण्ड्या कट्टबोम्मन के अदम्य साहस और बलिदान को मेरा शत शत नमन

सफर अभी जारी है ....

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