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कितनी बदल गयी दिल्ली / विवेक शुक्ला

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 दिल्ली 1947- 2021 कितनी बदली

 

साउथ दिल्ली के सफदरजंग एन्क्लेव के करीब हुमायूंपुर में मिजो फूड तथा मयूर विहार में मलयाली रेस्तरांओं के साइन बोर्डों की अनदेखी मत कीजिए। 


ये संकेत और संदेश हैं कि दिल्ली अब छोले-कुलचे, बटर चिकन, पनीर टिक्का या साउथ इंडियन फूड से आगे निकल चुकी है। अब दिल्ली बनियों, पंजाबियों, गांव और दिल्ली-6 वालों की ही नहीं रही है।


दिल्ली की आबादी का चेहरा और चरित्र तेजी से बदलता जा रहा है। इधर देश भर से नौजवान आ रहे हैं अपने हिस्से के आकाश को छूने के लिए। उनके साथ दिल्ली जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करती।


आइये आगे बढ़ने से पहले पीछे मुढ़कर देखें। दिल्ली की 1947 में आबादी 10 लाख से कम थी। विभाजन हुआ। यहां  साढ़े से  तीन लाख मुसलमान पाकिस्तान  चले गए, वहां से आ गए पांच लाख से कुछ कम हिन्दू और सिख। तब दिल्ली पहली बार नामधारी सिखों और सिंधियों को  कायदे से देख रही थी। नामधारी सिख चूड़ीदार पायजामा-कुर्ता पहनते हैं। 


यकीन मानिए कि इन और सिंधियों के 1947 से पहले दिल्ली में दस-दस परिवार भी नहीं थे। इन दोनों के खून में है बिजनेस करना। तब दिल्ली ने पहली बार समावेशी होने की दिशा में कदम बढ़ाया था।


आगे चलिए। दिल्ली के लिए 1982 और 1991 बेहद खास रहे। यहां 1982 में एशियाई खेल हुए। उस समय यहां पर स्टेडियमों, खेल गांव, सड़कों वगैरह को बनाने के लिए मुख्यरूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उड़ीसा से हजारों मजदूर आए। वे यहां पर ही बस गए। 


आर्थिक उदारीकरण ने 1991 में दस्तक दी। उसके बाद तो यहां पर बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल, नार्थ ईस्ट राज्यों, उड़ीसा वगैरह के लाखों नौजवान आने लगे। मगध एक्सप्रेस, गरीब रथ और  अन्य  ट्रेनों से आने वाले बिहारियों ने सिर्फ नौकरी ही तलाश नहीं की। वे सिर्फ जेएनयू या डीयू में पढ़ने के लिए ही नहीं आए। उन्होंने इधर सत्ता में अपना हक मांगा और लिया।


 मौजूदा दिल्ली विधानसभा में आठ विधायक मूलत: बिहार से हैं। बनियों का किला समझे जानी वाली शालीमार बाग सीट से मुजफ्फरपुर में पैदा हुई वंदना कुमारी विधायक हैं। साकेत की इमेज पंजाबी बहुत सीट की थी। यहां से नवादा में पैदा और पढ़े सोमनाथ भारती विधायक है। क्या कोई सोच सकता था कि कभी दिल्ली की कैबिनेट में एक भी पंजाबी नहीं होगा? पर यह हुआ। अरविंद केजरीवाल की मौजूदा कैबिनेट में एक भी पंजाबी नहीं है। क्या यह दिल्ली के बदलने का सुबूत नहीं है?


टोक्यो ओलंपिक खेलों में दिल्ली से पांच खिलाड़ी भारतीय टोली में थे। उनमें 22 साल के एथलीट अमोज जैकब भी थे। वे मलयाली है। वे बचपन से दिल्ली में रहे हैं।

 राजधानी की फुटबॉल पर आजादी से पहले और बाद के कई दशकों तक गढ़वाली, बंगाली और दिल्ली -6 के मुसलमानों का असर था। ये ही दिल्ली की फुटबॉल टीमों में होते और फुटबॉल के मैनेजमेंट को देखते थे। बदलाव को देखें। अब दिल्ली सॉकर एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी मलयाली सज्जन डॉ.साजी प्रभारकन हैं। इसी दिल्ली में दुनिया का सबसे मालदार मलयाली परिवार रहता है। वह प्रमोटर मुथूट फाइनेंस के। 


कभी मौका मिले तो किसी संडे को गोल डाक खाना के सेक्रेड हार्ट कैथडरल चर्च में सुबह हो आइये। वहां के मंजर को देखकर लगेगा कि आप मिजोरम, असम या मेघालय में हैं। उधर सैकड़ों पूर्वोत्तर राज्यों के ईसाई प्रार्थना के लिए आए होते हैं।


 परिवर्तन प्रकृति का नियम है। वह होगा ही। पर दिल्ली के बाजारों में पंजाबी-बनिया कोम्बे का कब्जा पहले की तरह से बना हुआ है। पुरानी दिल्ली का चावड़ी बाजार हो या फिर मॉडर्न कनॉट प्लेस। ये नहीं बदल रहे। इधर अग्रवाल, जैन,गुप्ता, कपूर का किला सुरक्षित है।

Vivek Shukla 

Navbharattimes में 15 अगस्त 2021 को छपे लेख के अंश.


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