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आप सा कोई नहीं / लाल बहादुर शास्त्री

Previous: मुझे राजीव लौटा दीजिए मैं लौट जाऊंगी, नहीं लौटा सकते तो उनके पास यहीं मिट्टी में मिल जाने दीजिए । आपने देखा है न उन्हें। चौड़ा माथा, गहरी आंखे, लम्बा कद और वो मुस्कान। जब मैंने भी उन्हें पहली बार देखा, तो बस देखती रह गयी। साथी से पूछा- कौन है ये खूबसूरत नौजवान। हैंडसम! हैंडसम कहा था मैंने। साथी ने बताया वो इंडियन है। पण्डित नेहरू की फैमिली से है। मैं देखती रही। नेहरू फैमिली के लड़के को। कुछ दिन बाद, यूनिवर्सिटी कैंपस के रेस्टोरेन्ट में लंच के लिए गयी। बहुत से लड़के थे वहां। मैंने दूर एक खाली टेबल ले ली। वो भी उन दूसरे लोगो के साथ थे। मुझे लगा, कि वह मुझे देख रहे है। नजरें उठाई, तो वे सचुच मुझे ही देख रहे थे। क्षण भर को नजरे मिली, और दोनो सकपका गए। अगले दिन जब लंच के लिए वहीं गयी, वो आज भी मौजूद थे। कहीं मेरे लिए इंतजार। मेरी टेबल पर वेटर आया, नैपकिन लेकर, जिस पर एक कविता लिखी थी। वो पहली नजर का प्यार था। वो दिन खुशनुमा थे। वो स्वर्ग था। हम साथ घूमते, नदियों के किनारे, कार में दूर ड्राइव, हाथों में हाथ लिए सड़कों पर घूमना, फिल्में देखना। मुझे याद नही की हमने एक दूसरे को प्रोपोज भी किया हो। जरूरत नही थी, सब नैचुरल था, हम एक दूसरे के लिए बने थे। हमे साथ रहना था। हमेशा। उनकी मां प्रधानमंत्री बन गयी थी। जब इंग्लैंड आयी तो राजीव ने मिलाया। हमने शादी की इजाजत मांगी। उन्होंने भारत आने को कहा। भारत? ये दुनिया के जिस किसी कोने में हो, राजीव के साथ कहीं भी रह सकती थी। तो आ गयी। गुलाबी साड़ी, खादी की, जिसे नेहरूजी ने बुना था, जिसे इंदिरा जी ने अपनी शादी में पहना था, उसे पहन कर इस परिवार की हो गयी। मेरी मांग में रंग भरा, सिन्दूर कहते हैं उसे। मैं राजीव की हुई, राजीव मेरे, और मैं यहीं की हो गयी। दिन पंख लगाकर उड़ गए। राजीव के भाई नही रहे। इंदिरा जी को सहारा चाहिए था। राजीव राजनीति में जाने लगे। मुझे नही था पसंद, मना किया। हर कोशिश की, मगर आप हिंदुस्तानी लोग, मां के सामने पत्नी की कहां सुनते है। वो गए और जब गए तो बंट गये। उनमें मेरा हिस्सा घट गया। फिर एक दिन इंदिरा निकलीं। बाहर गोलियों की आवाज आई। दौड़कर देखा तो खून से लथपथ। आप लोगों ने छलनी कर दिया था। उन्हें उठाया, अस्पताल दौड़ी, उनके खून से मेरे कपड़े भीगते रहे। मेरी बांहों में दम तोड़ा। आपने कभी इतने करीब से मौत देखी है? उस दिन मेरे घर के एक नही, दो सदस्य घट गए। राजीव पूरी तरह देश के हो गए। मैंने सहा, हंसा, साथ निभाया। जो मेरा था। सिर्फ मेरा, उसे देश से बांटा। और क्या मिला। एक दिन उनकी भी लाश लौटी। कपड़े से ढंका चेहरा। एक हंसते, गुलाबी चेहरे को लोथड़ा बनाकर लौटा दिया आप सबने। उनका आखरी चेहरा मैं भूल जाना चाहती हूं। उस रेस्टोरेंट में पहली बार की वी निगाह, वो शामें, वो मुस्कान।बस वही याद रखना चाहती हूं। इस देश में जितना वक्त राजीव के साथ गुजारा है, उससे ज्यादा राजीव के बगैर गुजार चुकी हूं। मशीन की तरह जिम्मेदारी निभाई है। जब तक शक्ति थी, उनकी विरासत को बिखरने से रोका। इस देश को समृद्धि के सबसे गौरवशाली लम्हे दिए। घर औऱ परिवार को संभाला है। एक परिपूर्ण जीवन जिया है। मैंने अपना काम किया है। राजीव को जो वचन नही दिए, उनका भी निबाह मैंने किया है। सरकारें आती जाती है। आपको लगता है कि अब इन हार जीत का मुझ पर फर्क पड़ता है। आपकी गालियां, विदेशी होने की तोहमत, बार बाला, जर्सी गाय, विधवा, स्मगलर, जासूस ... इनका मुझे दुख होता है? किसी टीवी चैनल पर दी जा रही गालियों का दुख होता है, ट्विटर और फेसबुक पर अनर्गल ट्रेंड का दुख होता है?? नही, तरस जरूर आता है। याद रखिये, जिससे प्रेम किया हो, उसकी लाश देखकर जो दुख होता है। इसके बाद दुख नही होता। मन पत्थर हो जाता है। मगर आपको मुझसे नफरत है, बेशक कीजिये। आज ही लौट जाऊंगी। बस, राजीव लौटा दीजिए। और अगर नही लौटा सकते , तो शांति से, राजीव के आसपास, यहीं कहीं इसी मिट्टी में मिल जाने दीजिए। इस देश की बहू को इतना तो हक मिलना चाहिए शायद। (सोनिया गांधीजी के पत्र का एक अंश!)
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 बिसारा हुआ असाधारण महानायक- श्री लाल बहादुर शास्त्री जी !



आज भारत में, अधिकांश राजनीतिज्ञों को भ्रष्टाचार का पर्याय माना जाता है, और ज्यादातर तथाकथित नेताओं का उद्देश्य भी, राजनीति के माध्यम से संपन्न होना है, वहीं इस समंदर एक अनोखा अपवाद थे, लाल बहादुर शास्त्री जी, जिनके कुर्बानियों और नैतिक्ता की अमर कहानी पढ़कर, आपकी आँखें तो नम हो जायेंगी।


2 अक्तूबर 1904 को, उत्तरप्रदेश में वाराणसी, के पास मुगलसराय में, एक गरीब अध्यापक पिता शारदा प्रसाद  और माता राम दुलारी ने, एक बेटे को जन्म दिया, नाम रखा, 'लाल बहादुर'। लाल बहादुर का जीवन में विषमताओं की प्रचंडता बाल्यकाल से ही शुरू हो गई और आजीवन चली पर इस स्वाभिमानी, दृढ़संकल्पित, साहसी व निडर महानायक ने कभी भी अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं किया। अभी दो साल का भी नहीं था कि, लाल बहादुर के पिता का अकास्मिक निधन हो गया। परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, मां तीनों बच्चों को लेकर, नाना के पास आ गई पर त्रासदी देखिए, कुछ ही समय बाद,नाना जी का भी देहांत हो गया। इन बड़े झटकों से, लाल बहादुर बिखरे नहीं, अपितु अभाव भरे जीवन में भी असूलों के साथ जीते हुए, निखरते चले गए।


लाल बहादुर उर्फ 'नन्हे'का स्कूल गंगा पार था, और पार जाने का नाव का किराया था ,एक पैसा। पर गरीबी से त्रस्त लाल बहादुर के पास पैसे कहां  थे, इसलिए वे रोज, गंगा नदी के, आधा मील चोड़े पाट को तैरकर, पार करके स्कूल जाते थे, हालांकि उनके दोस्तों ने कई बार उनका किराया भरने को भी कहा पर, लाल बहादुर मना कर देता क्योंकि अपने गौरव, नैतिक्ता और आत्मसम्मान से कोई समझौता करना, इस महामानुष ने सीखा ही नहीं था।


 16 वर्ष की आयु में आते-आते,पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।आंदोलन के दौरान पहली बार जेल गए, बाहर आकर 'शास्त्री'की पढ़ाई की और तब से ही अपने नाम से जाति 'श्रीवास्तव'का त्याग कर 'लाल बहादुर शास्त्री'बन गए। 


शास्त्री जी, फिर से जेल में थे, जेल से अपनी माता को पत्र लिखा कि संस्था की ओर से, 50 रुपये मिल रहे हैं या नहीं और घर का खर्च कैसे चल रहा है ? मां ने पत्र के जवाब में लिखा कि 50 रुपये महीने आ रहे हैं, पर हम घर का खर्च 40 रुपये में ही चला लेते हैं, शास्त्री जी ने तुरंत संस्था को पत्र लिखकर कहा कि, आप हमारे घर प्रत्येक महीने 40 रुपये ही भेजें और बाकी के 10 रुपये दूसरे गरीब परिवार को दें।


1927 में मिर्जापुर की ललिता जी से शादी हुई पर भारत मां की आजादी के संग्राम से पीछे नहीं हटे। शास्त्री जी, जेल में थे, बेटी सख्त बीमार, पत्नी सहित सभी शुभचिंतकों ने, पैरोल पर रिहा हो बेटी की देखभाल की, अपील की, पर उस समय पैरोल के लिए अंग्रेज़ों से माफी मांगना और दुबारा संघर्ष न करने का लिखती माफीनामा देना जरूरी थी, शास्त्री जी ने देशहित में निजी हित का त्याग कर, पैरोल नहीं लिया,,आखिर अंग्रेज सरकार ने बिना शर्त शास्त्री जी को रिहा कर दिया पर जब शास्त्री जी घर पहुंचे तो, आह! प्यारी बेटी का देहांत हो चुका था, शास्त्री जी दुखी तो बहुत हुए, पर आजादी की लड़ाई में दोगुने जोश से लग गए। देश की आज़ादी के लिए फिर से जेल गए, भाग्य की विडंबना देखिए, इस बार शास्त्री जो के बेटे को टाईफाईड हो गया, फिर भी शास्त्री जी ने अंग्रेज सरकार के आगे घुटने न टेके तो, अंग्रेज सरकार ने एक हफ्ते के लिए उन्हें रिहा कर दिया, पर सप्ताह में बेटे का बुखार और बढ़ गया, शास्त्री जी को पता था कि बेटे की कुर्बानी भी तय है, पर धन्य थे शास्त्री जी, मैं नतमस्तक करता हूं आपको, और माता ललिता जी को, आप फिर  ये कुर्बानी कर, मां भारती के लिए जेल चले गए।


1946 में कांग्रेस सरकार का गठन हुआ, शास्त्री जी को उत्तरप्रदेश में राज्य का संसदीय सचिव और फिर गृहमंत्री बनाया गया। ईमानदार और नैतिक्ता की मूर्त शास्त्री जी की प्रतिभा और ईमानदारी की बदौलत, केंद्रीय मंत्रिमंडल में कई विभागों , रेल, परिवहन एवं संचार, वाणिज्य एवं  उद्योग,गृह मंत्रालय, और नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री का भी कार्यभार संभाला । एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए, पर स्वंय को जिम्मेदार मानते हुए, शास्त्री जी ने रेल मंत्री के पद से नैतिक्ता के आधार पर इस्तीफा दे दिया, संपूर्ण देश और संसद में उनके इस कदम से शास्त्री जी का कद बहुत बढ़ गया।


लाल बहादुर शास्त्री जी की लोकप्रियता और नैतिक छवि, इन्हें 1964 में देश का दूसरा प्रधानमंत्री बनाया गया पर पाकिस्तान, शास्त्री जी को कमज़ोर समझ, 1965 में भारत पर हमला कर बैठा, पर बहादुर शास्त्री जी के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान की कमर तोड़कर रख दी, पाकिस्तान बुरी तरह हार गया।


उस समय भारत गेंहू के उत्पादन में, आत्मनिर्भर नहीं था और अमरीका ने गेहूं भेजने के लिए, पाकिस्तान के साथ युद्ध समाप्त करने की शर्त रख दी, जो देश के गौरव के विरूद्ध थीं, शास्त्री जी अड़ गए, पहले खुद और अपने बच्चों को एकदिन भूखा रखकर देखा। अगले दिन पूरे देश को संबोधन कर, सप्ताह में एक दिन के उपवास की अपील की, लोकप्रियता और प्रभाव देखिए, पूरे देश ने साथ दिया और अमरीका को झुका दिया। शास्त्री जी ने इसी दौरान 'जय जवान,जय किसान'का महान नारा दिया, उनका मानना था कि, 'सीमा पर जवान और खेत में किसान देश के लिए खून-पसीना एक करते हैं'।


शास्त्री जी सादगी की मूर्त थे, उनके पास दो ही धोती-कुर्ते थे और फट जाने पर उन्हीं को टांककर शास्त्री जी पहनते थे, असल में शास्त्री जी देश की सम्पदा का सम्मान करते थे। सरकारी विभाग की तरफ से, उनके घर, कूलर लगवाया गया, पर उन्होंने परिवार से कहा,कभी धूप में भी तो निकलना पड़ सकता है। ऐसे आदतें बिगड़ जाएंगी, और उन्होंने कूलर हटवा दिया। एक बार बेटे ने सरकारी कार निजी कार्य के लिए, प्रयोग में ली तो शास्त्री जी ने उस 14 किलोमीटर का खर्च खुद सरकारी खजाने में जमां करवाया। 


पाकिस्तान के साथ युद्ध खत्म होने के  बाद 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद में शांति समझौते के लिए, पाकिस्तान की ओर से राष्ट्रपति अयूब खान और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री पहुंचे थे ।उसी दिन ताशकंद में उनकी अचानक से हत्या कर दी जाती है।शास्त्री जी के पार्थिव शरीर को भारत लाया गया, शव देखने के बाद शास्त्री जी की पत्नी ललिता जी ने उनकी मौत को संदिग्ध कहते हुए, सवाल किये, क्योंकि उनका शरीर नीला हो चुका था, पर आजतक भी इस राज से पर्दा ही नहीं उठ पाया कि उनकी मौत हुई या उनको जहर देकर हत्या की गई ?


अमर बलिदानी, भारत रत्न,श्री लाल बहादुर शास्त्री जी, न तो अपने पैसा एकत्रित की  और न ही कोई घर या ज़मीन खरीदा। भारत माता के इस महान सपूत को हम सभी भारतवासी आज उनकी जयंती पर शत-शत नमन करते हैं। इस देशभक्त, ईमानदार,नैतिक राजनेता के जीवन की कहानी से, हरेक भारतीय को प्रेरणा लेते हुए, आजीवन हमारे पवित्र सिद्धांतों और नैतिक्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहिए। 


जय कायस्थ

जय चित्रगुप्त

लाल बहादुर शास्त्री जी अमर रहे


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