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नए मोर्चे बनाम नई पुलिस/ ऋषभ देव शर्मा

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हैदराबाद स्थित सरदार वल्लभ भाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में आयोजित प्रशिक्षु आईपीएस अधिकारियों के 73वें बैच की पासिंग आउट परेड के मौके पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल ने अपने दीक्षांत भाषण में भिन्न शब्दों में इस पुरानी मान्यता को दोहराया कि युद्ध एक अनिवार्य बुराई है। कोई नहीं चाहता कि युद्ध हों, लेकिन सभी को कभी न कभी किसी न किसी रूप में युद्ध में पड़ना पड़ता है। उन्होंने सही कहा कि युद्ध खर्चीले और अनिश्चित होते हैं और उनका बोझ उठाना किसी के लिए भी सहज नहीं होता है। 


राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने सही ध्यान दिलाया कि राष्ट्र विरोधी ताकतें प्रत्यक्ष युद्ध के महँगेपन और परिणाम की ढिलमुल संभावना के कारण दूसरे तरीके अपनाती हैं। इन तरीकों को अप्रत्यक्ष या छद्म युद्ध कहा जा सकता है। इन तरीकों में भी बेहद कायरतापूर्ण तरीका है- साधारण नागरिकों को निशाना बनाना। कहना न होगा कि उनका इशारा उन आतंकवादी संगठनों  की तरफ था जो आमने सामने चुनौती देकर   समान शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी से यासेना से टकराने के बजाय या तो छिप कर घात लगा कर वार करते हैं और चोरों की तरह भाग जाते हैं; या फिर दहशत फैलाने के लिए  आम नागरिकों की हत्या करते हैं। कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा निहत्थे अध्यापकों से लेकर छोटे-बड़े व्यवसायियों और स्थानीय या प्रवासी मजदूरों की हत्या की घटनाएँ ऐसे एकपक्षीय कायरतापूर्ण युद्ध का उदाहरण हैं। इसका यह भी अर्थ है कि इन घटनाओं का शिकार बन रहा जम्मू-कश्मीर क्षेत्र वास्तव में नई तरह के युद्ध का सामना कर रहा है। वहाँ के हालात को इस युद्ध के चलते सामान्य कैसे माना जा सकता है? 


गौरतलब है कि प्रत्यक्ष युद्ध के स्थान पर इस तरह की आतंकी वारदातों को अंजाम देना देश विरोधी ताकतों के लिए युद्ध की तुलना में काफी सस्ता है। इससे नागरिक समाज में  अपेक्षाकृत ज़्यादा भय और असुरक्षा फैलाई जा सकती है। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध का यह तरीका पूरी तरह अनैतिक और अमानवीय है। उन्हें तो इसके जरिए किसी भी राष्ट्र में तोड़फोड़ करके वहाँ पर विघटन फैलाना आसान लगता है। यहाँ विचारणीय है कि इस प्रकार के युद्ध के खतरों के बीच हमेशा केवल फौज पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, बल्कि आंतरिक सुरक्षा के लिए पैदा होने वाली ऐसी चुनौतियों से लड़ने के लिए पुलिस का चाक-चौबंद और चौकन्ना रहना बेहद जरूरी है। इस लिहाज से आज की दुनिया में पुलिस की ज़िम्मेदारी पहले से ज़्यादा बढ़ गई है, इसका अहसास भावी आईपीएस अधिकारियों को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के भाषण से हो गया होगा।


यह युग सूचना क्रांति और सम्प्रेषण का युग है। सम्प्रेषण भी इस युग में बहुत ताकतवर हथियार बन गया है। मुख्य अतिथि ने बिल्कुल ठीक याद दिलाया कि युद्ध का बड़ा मोर्चा सोशल साइटें भी हैं। उन्होंने कहा कि लोगों को गलत तथा प्रायोजित प्रचार से बचाना भी सूचना क्रांति के दौर में बेहद महत्वपूर्ण बन गया है। इन सभी चुनौतियों पर नजर रखना मौजूदा दौर की बड़ी ज़रूरत है। 


अंततः। युद्ध के बदलते हुए मोर्चों और खतरों की पहचान तो अपनी जगह ठीक है, लेकिन मूलभूत सवाल यह है कि इन नई तरह के युद्धों के लिए हमारा आंतरिक सुरक्षा तंत्र या पुलिस बल वास्तव में कितना तैयार है! दरअसल पुलिस को नए जमाने की इन चुनौतियों के अनुरूप प्रशिक्षण, उपकरण और अस्त्र-शस्त्र से तो सुसज्जित किया जाना चाहिए ही; साथ ही उसकी छवि को भी पुनर्गठित किया जाना चाहिए। नए मोर्चों पर पुलिस भी नई चाहिए - अधिक मानवीय और अधिक आत्मीय!

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