छद्म लेखक बनाम रँगे सियार की हुआँ हुआँ
एक हैं जनाब सलमान खुर्शीद साहब। नहीं, वे कोई नया नाम या अपरिचित चेहरा नहीं हैं। कांग्रेस के जाने माने नेता हैं। धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार होना तो उनका दलगत जन्मसिद्ध अधिकार है ही। लगता है कि वे सियासत से इतना पक गए हैं कि अब बुद्धिजीवी और लेखक दिखना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने अंग्रेज़ी में एक किताब (सनराइज इन अयोध्या : नेशनहुड इन आवर टाइम्स) लिख मारी है और रातोंरात प्रसिद्धि पाने के लिए उसके एक अध्याय (द सेफरन स्काई) में हिंदुत्व की तुलना आतंकवादी तंजीमों आईएसआईएस और बोको हराम से कर डाली है! अब इस 'विद्वत्तापूर्ण'तुलना को लेकर कांग्रेसी और भाजपाई पहलवानों में लट्ठमलट्ठा चल रही है और भारतीय समाज की मूलभूत समरसता तार तार हो रही है!
नेता लोग कोई किताब लिखें और उस पर कोई बवाल न मचे, ऐसा हो ही नहीं सकता। वे इतने घुटे हुए और घाघ होते हैं कि कोई न कोई ऐसी सनसनीखेज़ बात जरूर लिखते हैं, जिससे किसी व्यक्ति या समुदाय की भावनाएँ आहत हों और रातोंरात किताब अखबारों की सुर्खी बन जाए! अखबार यानी मीडिया तो इन्हीं चीजों को लपकने को ठाली बैठे रहते हैं! उन्हें भी तिल का ताड़ बनाने में महारत हासिल है। फलस्वरूप नेता से लेखक बने लोग चर्चा में बने रहने के अपने लक्ष्य में कामयाब हो जाते हैं। इस सारे मायाजाल को नेताओं और मीडिया की सोची समझी साजिश कहा जाना चाहिए! आशय यह कि वे दोनों ही जान बूझ कर विवादास्पद विषयों का चुनाव करते हैं और प्रकारांतर से समाज का 'अहित'करके ख्याति और सफलता बटोरते हैं। इसके विपरीत जो लेखक वास्तव में साहित्यकार होते हैं, वे इस साहित्यिक नैतिकता का पालन करते हैं कि उनके लिखे विषय और भाषा से न तो किसी व्यक्ति अथवा समुदाय के सम्मान को ठेस पहुँचे और न किसी भी प्रकार समाज का 'अहित'हो। वे मानवता के 'हित'के लिए लेखन करते हैं, जबकि नेता लोग 'हिट'होने के लिए कुछ भी लिख मारते हैं। पाठक समाज को इतना तो सचेत होना ही चाहिए कि इन छद्म लेखकों को साहित्यकार न माने।
नेता से लेखक बने ऐसे लोग आम तौर पर साहित्यकार के रूप में 'रँगे सियार'होते हैं और इन्हें जल्द ही इनकी हुआँ-हुआँ से पहचाना जा सकता है। सलमान खुर्शीद भी अपनी किताब पर अब जो सफाई दे रहे हैं, वह उनकी हुआँ-हुआँ ही तो है! किताब में अपनी सोची समझी विवादास्पद और समाज के लिए अहितकर टिप्पणी के बाद अब वे अपने पाठकों की समझ में खोट बता रहे हैं कि लोग अंग्रेज़ी नहीं जानते तथा कि उन्हें 'सिमिलर'और 'सेम'के बीच फ़र्क़ की तमीज नहीं है! उनकी इस बचकाना लीपापोती से भला कौन इत्तिफाक रख सकता है? सच्चाई यह है खुर्शीद साहब, कि खोट पाठक की समझ में नहीं, आपकी अपनी नीयत में है!
नीयत के ऐसे खोटे लोग साहित्यकार नहीं होते, सिर्फ राजनीतिबाज होते हैं। सलमान खुर्शीद वैसे ही चतुर राजनीतिबाज हैं और हिंदुत्व पर उन्होंने जान बूझ कर यह अवांछित बहस छेड़ी है। कहना न होगा कि उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में मतदाता के मन पर अगर इसका कुछ असर पड़ेगा, तो उल्टा ही पड़ेगा। अगर इस समय यह बहस चुनाव के मद्देनजर हिंदू-मुस्लिम करने के लिए खड़ी की जा रही है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि सलमान खुर्शीद कांग्रेस के लिए एक और भस्मासुर ही सिद्ध होंगे। वैसे भी चुनाव के मौके पर कांग्रेस के भीतर भस्मासुरों के होने की अच्छी खासी प्रथा है! 000