वो नेता, जिसने आज़ादी मिलने से 5 साल पहले ही बता दिया था कि देश का बंटवारा होकर रहेगा -
1942 का साल था. उस दौर में कांग्रेस के अधिवेशन होने बंद हो गए थे. 1939 में रामगढ़ अधिवेशन के बाद कांग्रेस का कोई अधिवेशन नही हो रहा था, क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण एक जगह इकठ्ठा होने में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को परेशानी उठानी पड़ती थी. लेकिन फिर भी कांग्रेस के शीर्ष नेता कहीं न कहीं बैठक कर ही लेते थे. ऐसे ही एक बार 1942 में कांग्रेस के अधिकांश नेता इलाहाबाद में बैठे. जिन्ना के पाकिस्तान की रट लगाने और उससे देश में फैल रहे साम्प्रदायिक माहौल पर चर्चा चल रही थी. इस दौरान राजगोपालाचारी के बोलने की बारी आई. जब उन्होंने मुंह खोला तो सब आवाक रह गए. राजगोपालाचारी ने तब साफ-साफ कह दिया था कि विभाजन रोकना किसी के वश में नही है. सबने उनका खुलकर विरोध किया. खुद महात्मा गांधी ने भी विरोध किया. लेकिन 5 साल बाद 1947 में राजगोपालाचारी की बात सही निकली. इसके बाद जब कांग्रेस और जिन्ना की मुस्लिम लीग के मतभेद और ज्यादा बढ़ने लगे, तब 1944 में उन्होंने एक फार्मूला भी दिया, जिसे सीआर फार्मूला (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी फार्मूला) कहा जाता है.
दरअसल इस फार्मूले में उन्होंने पांच बा.तें रखी थी :
1.द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद एक कमीशन बनाया जाए, जो भारत के उत्तर-पश्चिम में मुस्लिम बहुल इलाकों की पहचान करे. यहां उनके बीच जनमत संग्रह करया जाए कि ये लोग भारत से अलग होना चाहते हैं या नहीं.
2. मुस्लिम लीग को भारत की आजादी के आंदोलन में जोशोखरोश से भाग लेना होगा. साथ ही उसे अंतरिम सरकारों में भी भागीदार बनना होगा.
3. विभाजन के बाद दोनों देशों के बीच रक्षा, व्यापार और कम्युनिकेशन पर एक समझौता हो.
4. अगर लोग एक देश से दूसरे देश में जाना चाहते हों तो ये पूरी तरह उनकी मर्जी पर होना चाहिए.
5. समझौते के ये नियम तभी लागू होंगे, जब भारत को ब्रिटेन पूरी तरह से आज़ाद कर देगा.
लेकिन जिन्ना ने इस फार्मूले को सिरे से नकार दिया. जिन्ना चाहते थे कि कांग्रेस द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर ले, और उत्तर-पूर्वी व उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में केवल मुस्लिम लोगों को ही मत देने का अधिकार मिले. उन्होंने फार्मूले में प्रस्तावित साझा सरकार के गठन का भी विरोध किया. जिन्ना का पूरा ध्यान केवल अलग पाकिस्तान की मांग पर ही था, जबकि कांग्रेस भारतीय संघ की स्वतंत्रता पर जोर दे रही थी. इन परिस्थितियों को देखते हुए महात्मा गांधी ने भी सीआर फार्मूले से सहमति जताई, लेकिन फिर भी यह फार्मूला सर्व-स्वीकार्य नही बन पाया.