अब रिपोर्टर्स नहीं, शार्प शूटर्स चाहिए : रमेश नैयर
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: इंटरव्यू : रमेश नैयर (छत्तीसगढ़ के जाने-माने और वरिष्ठ पत्रकार) : भाग-एक : रायपुर में नैयर साहब का मतलब सिर्फ रमेश नैयर होता है। कुलदीप नैयर जी में लगे नैयर नाम की समानता की वजह से यहां धोखे की कहीं कोई गुजांइश नहीं होती। रमेश नैयर साहब छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के स्कूल की तरह रहे हैं।
उनसे कलम चलाने की तमीज यहां के कितनों पत्रकारों ने हासिल की है, इसकी गिनती करना मुश्किल है। उनके स्कूल का एक नालायक विद्यार्थी मैं भी हूं जो बार-बार क्लास छोड़ कर भागता रहा। पर उनसे जुड़े हुए कछ वाकये हैं, जिनकी तफसील उनकी शख्सियत व कामकाज की शैली को बयान करने के लिये जरूरी हैं। मैं ‘अमृत संदेश’ छोड़ कर ‘भास्कर’ में आया था। ‘अमृत संदेश’ में हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था और लगता था कि किसी को भी हंसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दी जायेगी। नैयर साहब, जहां तक मुझे याद है, ‘दैनिक टिब्यून’, चंडीगढ से होकर रायपुर वापस आये थे। उनके नाम की बड़ी धाक थी, इसलिए थोड़ा डर स्वाभाविक था। पर उनकी कार्यशैली कभी बॉस जैसी नहीं रही। उल्टे हम लोगों के डर को भगाने के लिये वे रोचक किस्से सुनाते रहते।
एक किस्सा अब तक तक याद है।
आकाशवाणी के लिये कभी उन्होंने मायाराम सुरजन जी का इंटरव्यू लिया था। दूसरे दिन लोगों ने पूछा, ‘कैसा रहा?’ वे बोले, ”बहुत बढि़या, मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा और पूरे समय सुरजन जी बोलते रहे। पैसे दोनों को बराबर मिले।”
ऐसे ही एक बार उन्होंने बताया कि किसी दिन टेलीप्रिंटर से रोल सही नहीं निकल रहा था। प्रिंट में खराबी थी। एजेंसी के दफ्तर में फोन लगाकर रोल भेजने की बात कही तो जवाब मिला कि कोई आदमी नहीं है। उन्हें जवाब दिया कि ”थोड़ी देर के लिये आप ही आदमी बन जायें।”
लेकिन हंसी-मजाक के इस माहौल में काम सीखने-सीखाने में कोई कोताही नहीं थी। एक-एक शब्द की शुद्धता की परख होती थी। एक बार ‘कार्रवाई’ व ‘काररवाई’ पर बड़ी लंबी बहस चली थी। फिल्ड-रिपोर्टिंग के लिये भेजने से पहले ही वे हमें आवश्यक दिशा-निर्देश देकर कार्य की जटिलता को आसान कर देते थे। एक बार बिलासपुर के पास जयराम नगर में जादू-टोने के फेर में एक साथ सात लड़कों ने आत्महत्या कर ली थी। संयोग की बात यह कि यह तत्कालीन शिक्षा मंत्री का इलाका था। यह एक बड़ी खबर थी लेकिन नैयर साहब को खरसिया जाना था जहां तत्कालीन मुखयमंत्री अर्जुन सिंह एक उपचुनाव में आकर फंस गये थे। उन्हें किसी सलाहकार ने बताया होगा कि आप खरसिया से चुनाव लड़ लें, आपके आने की भी जरूरत नहीं होगी और हम आपकी फोटो दिखाकर चुनाव जीत लेंगे। लेकिन यहां उनका सामना दिलीप सिंह जूदेव से हो गया और फोटो दिखाकर जीतने की बात तो दूर रही, अर्जुन सिंह को यहां अड्डा मारने के बाद भी एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी। प्रदेश के बाहर से भी लोगों की निगाहें खरसिया पर टिकी हुई थीं। लिहाजा नैयर साहब ने मुझे एक और सहकर्मी के साथ जयराम नगर भेज दिया। कहा कि रिपोर्ट अच्छी हुई तो ‘रविवार’ में जायेगी अन्यथा इसे भास्कर भोपाल में भेजा जायेगा। तब रांची की तरह यहां भी सेठों के विवाद के कारण भास्कर की लॉंचिंग स्थगित थी। उन दिनों ‘रविवार’ में छपना एक बहुत बड़ा सपना था इसलिए रिपोर्ट तैयार करने में हमने अपनी पूरी सामर्थ्य झोंक दी थी।
रिपोर्ट तैयार की और नैयर साहब के कक्ष में पहुंचे। वे खरसिया की अपनी रिपोर्ट लिख रहे थे। सारा सरकारी अमला अर्जुन सिंह के पीछे लगा हुआ था। पैसे पानी की तरह बहाये जा रहे थे और इसके जवाब में जूदेव की ओर से उस समय का एक लोकप्रिय फिल्मी गाना जगह-जगह बज रहा था। नैयर साहब को गीत याद नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा। फिल्मी गानों का मेरा ज्ञान शून्य था। नैयर साहब ने प्यार से डांटा कि ”फिल्में नहीं देखते, रिपोर्टिग क्या खाक करोगे?” इस बीच नवीन ने सिर खुजलाते हुए गाना याद किया। मुखड़ा था, ”हमरे बलमा बेईमान हमें पटियाने आये हैं, चांदी के जूते से हमें जूतियाने आये हैं।” नैयर साहब ने नोट किया और हमारी रिपोर्ट पर निगाह डाली। पहली ही नजर में एक गलती पकड़ी। मैंने लिखा था ‘वह कड़ाके की धूप में घर से बाहर निकला…’।’ नैयर साहब ने तुरंत सुधार किया और कहा कि ‘कड़ाके की ठंड होती है, धूप चिलचिलाती है।’ पूरी रिपोर्ट पढ़ी और कहा कि इसे भोपाल भेज देते हैं। मैं कलकत्ता भेजे जाने की उम्मीद कर रहा था। मैंने थोड़ी निराशा से पूछा कि रिपोर्ट में क्या खराबी है? नैयर साहब ने कहा कि ”कोई खराबी नहीं हैं, पर बेहतर बनाने की गुंजाइश तो होती है न?” नवोदित पत्रकारों को हतोत्साहित किये बगैर उनकी खामियों को बताने का यह उनका तरीका था।
कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा था कि नैयर साहब को भी नहीं मालूम होगा -या उन्होंने नोट नहीं किया होगा – कि उनके कैबिन के मेज की दराज से कीमती सिगरेट कहां गायब हो जाती थीं? ‘संडे ऑब्जर्वर’ में नैयर साहब को सिगार पीते हुए देखा था पर भास्कर में उनका ब्रांड शायद ‘डनहिल’ या ऐसा ही कुछ था। कत्थे रंग की यह सिगरेट, मुझे अब तक याद है, मेरा एक साथी उनकी दराज से उड़ा लिया करता था और इस शरारत के पीछे एक अपनेपन का भाव होता था, अधिकार का भाव होता था और स्वंतत्रता-बोध का उद्घोष होता था कि ”देखो, यहां के राज में संपादक और ट्रेनी एक ही ब्रांड की सिगरेट पीते हैं।”
बहरहाल, युगधर्म, नवभारत, क्रानिकल, ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, संडे ऑब्जर्वर, समवेत शिखर, हितवाद आदि अनेक अखबारों में पत्रकारिता व संपादकी के बाद अब नैयर साहब अपना पूरा समय केवल लिखने में लगा रहे हैं। हालांकि स्वास्थ्य बहुत बेहतर न होने के कारण दिन में दो-तीन घंटे ही लिख पाते हैं। बीच में एक अरसा वे छत्तीसगढ ग्रंथ अकादमी में भी रहे। मैं ‘इप्टा’ के अपने मित्र मनोज के साथ उनके घर पहुंचा तो वे अकेले ही थे। लिहाजा चाय -वगैरह बनाने की जेहमत भी खुद उन्होंने ही उठायी। पूर्ववत् स्नेह के साथ मिले। बिल्कुल अनौपचारिक माहौल में उनसे हुई बातचीत इस प्रकार है–
- जिस दौर में आप पत्रकारिता में आये और आज के दौर में आप क्या फर्क महसूस कर रहे हैं? इसी में यह भी जोड़ना चाहूंगा कि पत्रकारिता आपका चुनाव था या संयोगवश इसमें आना हुआ?
–नहीं, मिल गया था इसलिए नहीं आये थे। बिल्कुल चुनकर आये थे। मैं भिलाई में लेक्चरर था और उससे आधी तनख्वाह पर यहां अखबार में आया था। जबकि आर्थिक-माली हालत घर की भी अच्छी नहीं थी, मेरी भी नहीं थी लेकिन ऐसा लगता था कि ये एक ऐसा माध्यम है जिससे हम अपनी बात कह सकते हैं। देश को, समाज को बदलने का, कुछ करने का जो एक जज्बा था, उसके लिए लगता था कि यह एक मंच बन सकता है, इसलिए आये। और इसमें असुरक्षा के बावजूद, सारे अभावों के बावजूद एक जज्बा बना रहा और लिखते रहे…. करते रहे। पत्रकार उस समय पढ़ते थे। जितनी भी बड़ी पत्रिकायें होती थीं, हिंदी की, अंग्रेजी की वे पढ़ी जाती थीं। मैं तो खैर, दिनमान से भी पहले आ गया था। धर्मयुग व हिंदुस्तान वगैरह थे, अंग्रेजी की पत्रिकायें थीं वे सब पढ़ी जाती थीं और कोई घटना होने पर वहां पहुंचा करते थे। जनजातीय क्षेत्रों में, आदिवासी इलाकों में, जन-आंदोलनों में, श्रमिक-आंदोलनों में हिस्सेदारी पत्रकार उस समय किया करते थे वो अपने आप में बड़ी स्फूर्तिदायक बात हुआ करती थी। कहीं भी दुर्घटना हुई और रात को दो बजे भी मालूम हुआ तो निकल पड़ते थे। साधन चाहे जो मिल जायें।
एक घटना मुझे अभी तक याद है। खोंगसरा के पास एक रेल दुर्घटना हुई थी। दो बजे रात को ही खबर मिली। उस समय बिलासपुर के संस्करण नहीं हुआ करते थे। तो अखबार के बंडलों की जो जीप जाती थी, उसी में सवार हो गये। वहां से थोड़ा पहले पता लगा कि खोंगसरा के लिये कौन-सा रास्ता मुड़ता है। फिर आगे चलकर जब रास्ता बंद हो गया तो मुझे याद है एक साथी रेल पटरी के ऊपर मोटर साइकिल दौड़ाकर ले गये और वहां तक पहुंचे … ये एक जज्बा होता था।
ऐसी ही एक घटना 25 मार्च 1966 की है। मैं उस समय नया-नया ही आया था युगधर्म में। पता चला बस्तर में गोली चली है और प्रवीण चंद्र भंजदेव को मार दिया गया है। उस समय बस्तर जाने के लिये आठ-नौ घंटे लगते थे। जो कुछ भी साधन मिल पाये उससे देर रात को ही हम लोग निकले और दोपहर बाद, बल्कि शाम को वहां तक पहुंच पाये। अखबार वालों को वहां जाने नहीं दे रहे थे, पत्रकारों के जाने की मनाही थी। कुछ परिचय के लोग किसी तरह बचते-बचाते ले गये और वो रिपोर्ट तैयार की।
तो उस समय की पत्रकारिता में मूल्य थे। अखबारों के मालिक तब भी थे और उनके प्रति आम श्रमजीवी पत्रकारों का गुस्सा होता था और आरोप होता था कि ये लोग शोषण करते हैं। लेकिन वो कम से कम कलम के धनी होते थे। पढ़ते थे और मूल्यांकन करते थे कि कोई अच्छी पत्रकारिता कर रहा है तो उसे खुद जाकर बुला लायें। सौदेबाजी पैसों की नहीं होती थी, लेकिन जहां लिखने की सुविधा अधिक हो, जहां आपकी बातों को काटा न जा रहा हो, उनका चुनाव होता था। मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि युगधर्म एक प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का अखबार था, राष्ट्रीय स्वयं संघ से जुड़ा था, लेकिन हमारी रिपोर्ट्स् को कभी भी काटा-छांटा नहीं गया। इसी तरह क्रानिकल व नवभारत में भी हमने जो कुछ भी लिखा, वो छपता था। उस पर प्रतिक्रिया भी होती थी। एक छोटे से छोटे समाचार पर भी लोग पत्र के माध्यम से या दूसरे तरीकों से अपनी प्रतिक्रिया देते थे तो अपने आप में एक संतोष होता था। हालांकि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती थी। कुछ बेचारे तो ऐसे भी होते थे जिन्हें क्लर्की नहीं मिली, या मास्टरी नहीं मिली तो प्रूफ रीडर में आ गये या अखबार में दूसरे कामों में लग गये और वे अर्थाभाव का रोना भी रोते थे। पर ज्यादातार लोग ऐसे होते थे जो प्रतिबद्धता के कारण या एक तरह की दीवानगी के कारण यहां आते थे और चूंकि वे खुद होकर इस व्यवसाय को चुनते थे इसलिए शिकवे-शिकायत की गुंजाइश बहुत कम होती थी।
हम लोगों के जमाने में भाषा के संस्कारों पर बड़ा जोर हुआ करता था। उस समय सिर्फ एक ही समाचार सेवा हुआ करती थी और वो प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया या पीटीआई थी। तो युगधर्म वालों को एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो अंग्रेजी से अनुवाद भी कर सके और जो समाचारों की भाषा को भी समझता हो। अब चूंकि मैंने अंग्रेजी में एम.ए. किया था व लिखता था इसलिए मुझे ऑफर दिया गया। लेकिन मैं जहां पर नौकरी में था वहां 300 के करीब मिलते थे और युगधर्म में मुझसे कहा गया कि 165 रूपये दिये जायेंगे। फिर भी मैं चला आया। हालांकि थोड़ी दुविधा भी थी और घर के लोगों से सलाह भी नहीं की। ये कहना पड़ेगा कि मेरे माता-पिता ने भी इसका प्रतिवाद नहीं किया कि क्यों इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर चले आये? तो अर्थाभावों के कारण संकट तो रहता था लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा बड़ी व्यापक थी। प्रशासन में व राजनीतिक गलियारों में भी पत्रकारों की पूछ-परख ज्यादा होती थी या पूछ-परख से बेहतर शब्द होगा कि धाक ज्यादा थी…..
- कह सकते है कि उनका रूतबा खूब हुआ करता था…..
–हां रूतबा भी कह सकते हैं जो कि अर्थाभाव के बावजूद हुआ करता था। इसके बाद मुझे चंडीगढ में दैनिक ट्रिब्यून में काम करने का मौका मिला जहां पत्रकारिता का बड़ा मूल्य था। बहुत मूल्यों वाली पत्रकारिता वहां हुआ करती थी। सबसे अच्छी बात यह कि समाचारों की निष्पक्षता व उनके सामाजिक -आर्थिक सरोकारों पर बड़ा जोर हुआ करता था। मैं जब दिनमान के लिये लिखा करता था.. पहले तो अज्ञेय जी थे तो उनके समय में मैं बहुत थोड़ा छपा था… फिर रघुवीर सहाय आये तो कोई रिपोर्ट जब हम भेजते थे तो वे उस समाचार से जुड़े सामाजिक-आर्थिक पहलुओं पर बड़ा जोर दिया करते थे। उनका कहना होता था कि समाचारों के संदर्भ में हमें राजनेताओं के इंटरव्यू नहीं चाहिये। घटना से जुड़े सामान्य व्यक्ति की बात – जो सत्य से ज्यादा निकट है-हमारे लिये ज्यादा महत्वपूर्ण है। ये भी देखिये कि समाचारों के भेजने के बाद क्या घटनाक्रम बनता है और उस संदर्भ में समाजशास्त्रियों के, अर्थशास्त्रियों के, घटना से जुड़े लोगों के, उनके परिजनों के व समाज के प्रबुद्ध लोगों के इंटरव्यू लीजिये और घटना के सामजिक-आर्थिक पक्ष को उजागर कीजिये। प्रशासन से भी बात होती थी।
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उदाहरण के तौर जब बैलाडीला में गोली चली तो समाचार के भेजने के बाद भी हम कई दिनों तक जंगलों में घूमते रहे कि कहीं हडि्डयों के अवशेष तो नहीं पड़े हैं या कहीं राख दिखाई पड़ती थी तो जली हुई लाशों का शुबहा होता था। तो इसका असर ये होता था कि रिपोर्ट का प्रभाव बड़ा व्यापक होता था और संसद तक में उसकी गूंज होती थी। लोग प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। पाठकों के पत्र आते थे। ये धीरे-धीरे कम होने लगा..
- किस दौर में …
–1995-96 के आस-पास। इससे पहले 1990 में अखबारों में पूंजी के आने से स्पर्धा का सिलसिला शुरू हुआ। जब बाजार की ताकतें अखबारों में आने लगीं तब उनकी प्राथमिकतायें बदलने लगीं। उनका जोर अखबार में लगनी वाली मशीनों पर, मार्केटिंग के नेटवर्क पर ज्यादा होने लगा। पत्रकारिता में जो एक तरह की कशिश होती थी, या स्वयं पत्रकार को जो एक चिंता होती थी कि व्यक्ति के साथ, समाज के साथ कहीं कोई अन्याय हो रहा है तो उसका प्रतिकार किया जाना है, ये लगातार कम होता चला गया…..
- सरोकारों की इस कमी के लिये भी पूंजी ही जिम्मेदार थी, या ऐसा पत्रकारों की ओर से ऐसा हुआ?
–शुरुआत पूंजी से ही हुई। अखबारों में बड़ी पूंजी के आने के बाद ये काम धीरे-धीरे हुआ। क्योंकि मैं जब तक अखबार में था – 2003 तक – तब तक ऐसा कोई वाकया नहीं हुआ कि मेरे लिखे को कभी काटा गया हो…
……जारी…..
भड़ास4मीडिया के लिए इस इंटरव्यू को किया है दिनेश चौधरी ने. इंटरव्यू का अगला भाग 24 घंटे बाद.
Comments on “अब रिपोर्टर्स नहीं, शार्प शूटर्स चाहिए : रमेश नैयर”
[i][/i]hum journalist ko apni maryada bana kar rakhani chaiya………………………….
Patrakarita Ko jo log Majak Samajhte Hai Ve sahi mayno me Na to Pathak Hote Hai, Na Hi Patrakar & Na hi Samghdar. Aaj Bhi Hamara Hindustan Sache Patrakaro & Media Ke karan Hi Bacha Huwa Hai. Kisi Ko Chinta Karne Ki Jarurat Nahi Hai Kitne Bhi Punjiwadi Log Media Me Aa Jaye Patrikarita Zinda Rahegi & Desh Ka Her Nagrik Pahle Ki Tarah Hi Aage Bhi Patrakaro Per Hi Vishwas Karega. Punjivadiyo Ke Karan Bhale Hi Patrikarita Me Badlav Lane Ka Kuch Logo Ne Kutsit Prayas Kiya Hai Magar yah Badlaw Ek Choti Si Lakir Se Jyada Nahi Ho Paya Hai. Patrakar & Patrikarita Pahle Bhi Zinda Thi & Age Bhi Zinda Rahegi. Yashwant Ji Ko is Website Ke Liye Sadhuvad…Media Ke Bare Me Goog Jankari Rahti Hai..Bare Bare Maharati Bhi Aapki Website Per Jakar Pratikriya Dekhte Hai.. Lage Raho..Bhagwati Sahayata Karegi …
DINESH JI AAPANE NAIAR SAHAB KE VICHAR PRASTUT KAR HAM JESE LOGO KO SEEKHANE KA AVASAR DIYA DANYABAD .PURANI PEEDI KE LOGO NE PATRAKARITA KO GARIMA PRADAN KI .KASH VARTMAN ME BHI LIKHNE BALE PRATIVADHTA SE KAM KARE TO PAHLE JESI PATRAKARITA SAMBHAV HO SAKTI HAI.
dinesh je aapne naiyar sahab ke bare me jo vichar prakat kiye ussse he kafi kuch sikhno ko mila iske liyae mai aapko thanks kartu hun
patrikarita me socha, vichar sarokaar ka patan hone ke liye aaj ke tthakathit smapadaako ki madali bhi kaafi jimmedar hai, aaj agar poonji pati akhabaro ko apane hit ke liye chalate hai to unake saath samajauta bhi to karate hai yahi prabudha kahalane wale sampaadak. agar ye unaki betuki, star heen aur patrakarita ke mandanto se khilwaad karane wali bato ko na mane to koi poonji pati kaise kar sakega apani manmaani.aaj akhabaaro me ye channelo me jo parmukha pado par baithe hai o apane biradari ke doosare logo ki taraf dekhate tak nahi ki unhe kya m,il raha ya unako kya parshaani hai, kisi se koi matalab nahi.agra sabhi milkar is visamata ke liye maliko se spasat roop se baat kare to kaise koi malik apani manamaani karake patrakaaro ka shoshan kar sakega,lekin naitikata se gire aur sirf nij swaarth ki poorti ke liye is vidha ko kalima pot rahe is samarth patrakro ko koi sarokaar nahi hai doosare patrako ki pareshaani se, visudha roop se vyawasaik bana diya hai in logo ne patrakarita ko. aur dawe bade-bade karenge ki ham bade tyagi aur samarpit patrakaar hai.isiliye bhawo ke chalate girata jaa raha hai patrakaarita ka star aur agar isi tarah ki sampaadak biradari rahi ki khud lakho lekr doosaro ko hajaaro me majboor karati rahi to aur jyada star girega patrakaarita ka. ye swanam dhanya patrakaar itna tak nahi sochate ki malik koi aur hai aur wah karodo me kama raha hai to kyo na ham appane bhaiyo ko unaka hak dilaye, sirf itana socha le to is chhetra me kam kar rahe logo ka jeevanstar sudhar jaye aur o apane star se kabhi nahi gire. fir koi nahi kar payega patrakaarita ko kalankit. bada jajba tha dil me is chhetra me aane ke pahale, lekin kareeb se dekhane par yah duniya sirf roshani me andhera lagi aur aaj appana wajood khokar murdo ki tarah jinda rahane ko majboor hai,mumbai jaise shahar me raha kaar bhi ghisat ghisat kar jeena jaise niyati ban gai hai,bhagwaan hi jaane aage aur kitana patan ho jayega patrakaarita ka.
nayyar saheb mere ustaado me se hai
… Sir not even “sharp shooters”, as it requires peace of mind and absolute concentration for them to hit the “Bulls Eye” – (Arjun ke dwara machli ki aankh me nishana lagane ka vakya). So, that way they are basically porters, particularly the lot working in “broadcast news factories” (off-course not all), manufacturing “News Items” (USP – sansanikhej, masaledar, tadka maar ke… ) and yet having a “shelf life” of not more than even a few seconds.
yah maatra interview nahi, patrakarita jagat ka nnga sach hai…
achcha interview lene ke liye dono log sahi hona chahiye .sadhu—sadhu—.
bhale saraswati ji lakshmi ji ke ghar kaid hain per ap jaise logon ke hote hue hindi hamesha fale foolegi.
SORRY TO SAY BUT WHERE WE GO EVERYBODY ASK US “DO U HAVE ANY APPROCH”….. THEN IS ONLY TALENT EVERYTHING..???? ME ALSO WORKING IN NEWS CHANNEL BUT NOT IMPROVING WITHOUT ANY APPROCH,,,,WHAT TO DO??????
Par Upadesh Kushal Bahutere, Je Aacharahi Te Nar Na Ghanere.
Is interview ko padhte hi saath Tulasidasji ki ye panktiyan barbas hi smaran ho ayeen. Vaastav me manav jeevan kaisa vichitra hota hai- har doglepan ko chhupaane kee cheshta me poora samay beet jaata hain aur phir pata lagta hai ki jeevan sandhya anayas hi saamne aa khadi hui.
Is interview ko padhne ke baad anayas hi Tulasidas ji ki hastakshar choupayi yaad aa gayi-
Par Upadesh Kushal Bahutere, Je Acharahi Te Nar Na Ghanere.
Wastav me poora jeevan vyakti apne doglepan ko chhupane ki cheshta me laga deta hai aur anayas hi wah pata hai ki wah jeevan ke antim padav me pahunch gaya.
रमेश नैयर जी से आप को सिखने का मोका मिला ये आप की कुश्नासिबी है मई नवोदित पत्रकर हू मने भी सारी सुखभोगी कम को छोड़ कर पत्रकारिता को चुना है देखिये आगे क्या होता है
pichchale dino tin varishtha patrakaron/vicharkon se alag alag milane ka mouka mila. ek dusare ka nam sun kar tino ka muh kadawa ho gaya. jab ye log hindu muslim ekata ya bharat pak varta ya phir sampradayik sadbhav ki bat karte hain to mujhe sharma aati hai. Pahale ap tathakathit vidwan to ek ho len. ek dusare par kichad no uchchalen.
journalism is mission but due to economic pressure this mission is diverted.So journalist of 21st century compare journalism profession with other profesion. But this is not true. paid news is cancer for media.The owner of media houses should think about economic position of media person.
kash hum mashine na bankar insan hi bane raheta
very good sir.