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अंदाज-ए- मेट्रो फरीदाबाद / विवेक शुक्ला

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मेट्रो रेल फरीदाबाद की तरफ बढ़ रही है।  साउथ दिल्ली से सटा फरीदाबाद। रोज दिल्ली से फरीदाबाद और फरीदाबाद से दिल्ली में हजारो लोग नौकरी,कारोबार और दूसरी वजहों से आते-जाते हैं। बस, दोनों के बीच में इतना ही संबंध है। इससे ज्यादा नहीं। आपको दिल्ली और फरीदाiबाद के अंतर को देखने-समझने के लिए कभी मेट्रो रेल से फरीदाबाद के सफर पर निकलना चाहिए। एनएचपीसी, मेवला महाराजपुर, ओल्ड फरीदाबाद वगैरह किसी भी स्टेशन पर उतरिए। आप स्टेशन पर उतरते ही बदलाव की आहट को महसूस करेंगे।


आप तुरंत नोटिस करेंगे कि यहां पर महिलाओं ने सलवार-कमीज पहनी है, तो चुन्नी से सिर ढ़का होगा और साड़ी पहनी है तब साड़ी के पल्लू से सिर को ढका होगा। फरीदाबाद की जिंदगी में एक ठहराव मिलता है। इधर दिखाई नहीं देते तेज रफ्तार से कारें या मोटर साइकिलें दौड़ाने वाले।


 ये बात नहीं है कि फरीदाबाद वालों के पास कारें या मोटर साइकिलें नहीं हैं। हरेक घर के अंदर-बाहर लक्जरी कारें खड़ी हैं। वरिष्ठ गीतकार दिनेश रघुवंशी एक अरसे से फरीदाबाद में रहते हैं। उनके साथ फरीदाबाद  में घूमते हुए पता चलता है कि इस औद्योगिक शहर में नाइट लाइफ नाम की कोई चीज नहीं है। यहां पर रात दस बजे तक जिंदगी थम जाती थी। पर यह मत समझिए कि फरीदाबाद वाले सामाजिक नहीं है। इनमें आपसी प्रेम और भाईचारा कमाल का है। ये सुख-दुख में एक दूसरे के साथ खड़े होते हैं।


 पर इन्हें देर रात किसी बार या रेस्तरां में बैठना स्वीकार नहीं है। चूंकि यह शहर देर तक नहीं जागता, इस कारण यहां पर बीपीओ सफल नहीं हुए। बीपीओ में तो रात भर कामकाज चलता है। तो लगता यह है कि फरीदाबाद को दस से छह बजे तक के दफ्तर ही रास आते हैं। दिल्ली तो छोड़िए, फरीदाबाद क्यों नोएडा या गुड़गांव की तुलना मेंभी  इतनी धीमी और सुस्त रफ्तार को पसंद करता है? एक कारण यह भी समझ आ रहा है कि फरीदाबाद पर ग्रामीण जीवन का गहरा असर है। इधर की शानदार कोठियों में रहने वाले सैकड़ों लोग अब भी अपने-अपने गांवों से जुड़े हुए हैं। वे गांवों की संस्कृति, समाज और नैतिकताओं से दूर जाने के लिए तैयार नहीं है। ये अब भी अपने हरियाणा के गांवों में जाते रहते हैं। इन कोठियों के बाहर बुजुर्ग गप-शप करते हुए  मिल जाते हैं। 


 फरीदाबाद भरा हुआ है बन्नूवालों से भी। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा सूबे का अंग है बन्नू। यहाँ के वासियों को बन्नूची कहते हैं और यह मशहूर शहर डेरा इस्माइल ख़ान से 150 किलोमीटर की दूरी पर है। दादा ध्यानचंद भी बन्नू में रहे हैं। दिल्ली के शाहदरा, रोहिणी, ईस्ट ऑफ कैलाश वगैरह में बहुत से बन्नू के परिवार हैं। ये भी अपनी भाषा बन्नूवाली जुबान और संस्कृति से अपने को जोड़े हुए हैं। ये हर साल फरीदाबाद में अपनी एक रामलीला भी आयोजित करते हैं। उसमें संवाद हिन्दी,बन्नूवाली और उर्दू में होते हैं। 


राम-रावण के बीच के एक संवाद को पढ़िए। रावण को ललकारते हुए राम कहते हैं, “रावण,तुम शैतान हो। तुम जुल्म की निशानी हो। तुम्हें जीने का कोई हक नहीं है।” रावण का जवाब। “ राम,मैंने मौत पर फतेह पा ली है। पूरी कायनात में मेरे से ज्यादा बड़ा और ताकतवर शख्स कोई नहीं है। मेरे से फलक भी खौफ खाता है। तू जा अपना काम कर।” फरीदाबाद के विपरीत दिल्ली के बन्नू वाल परिवारों की मौजूदा पीढ़ी हिन्दी को अपना चुकी है। फरीदाबाद का चरित्र अलग है। उसे जड़ों को छोड़ना फिलहाल मंजूर नहीं है। आप फरीदाबाद से फिर वापस दिल्ली चलते है। आपको राजधानी के मोहन इस्टेट स्टेशन से ही समझ आ जाता हैकि आप एक भागती-दौड़ती दुनिया में आ गए हैं।


Vivek Shukla 

 नवभारत टाइम्स में25 नवंबर , 2021 को छपे लेख के अंश।

Picture- NHPC metro station, Faridabad


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