गुड़ की भेली से बढ़िया कोई मिठाई
बात बे बात (७९)
पटना में अपने पेशे के आरंभ काल से मेरे निकटतम दोस्त रहे सुरेन्द्र किशोर से मिलने पिछले दिन उनके घर गया था। उनकी पत्नी ने मुझे छठ का ठेकुआ खिलाया। सुरेन्द्र जी ने गुड़ की स्वादिष्ट भेली खिलायी। बहुत दिन पहले दिल्ली प्रवास के दौरान पटना में ही जुड़े पेशे के साथी उर्मिलेश के घर भी कुछ इसी तरह की स्वादिष्ट गुड़ की भेली खाने को मिली थी। वह गुड़ उन्हें गाजियाबाद से मिला था। उस भेली में पश्चिमोत्तर यूपी की खालिस खुशबू मुझे अब भी याद है। आज की तरह तब भी मैंने चाय छोड़ कर गुड़ खाना पसंद किया था।
खैर, सुरेन्द्र जी को बिहटा से उनके एक nपरिचित ने गुड़ की भेली भेजवायी थी। उनके परिचित वर्षों से चीनी के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। यह चीनी छोड़ गुड़ अपनाने का उनका सघन अभियान है। घर-घर जाकर वे लोगों को चीनी त्यागने और भोजन में गुड़ अपनाने पर जोर दे रहे हैं। वाकई गुणकारी गुड़ का कोई जवाब नहीं।अब तो अंग्रेजी डाक्टर भी अपने मरीजों को चीनी छोड़ने और विकल्प में गुड़ खाने की सलाह देने लगे हैं। खास तौर पर डायबिटीज के मरीज को भी सीमित मात्रा में गुड़ खाने की छूट मिलती है।
गुड़ और ठेकुआ दोनों को मैं बचपन से ही बेहद पसंद करता रहा हूं । आज भी इसे खोजता हूं। हम बचपन में अपने गांव पर खेतों में ईख की पेराई के दौरान जलते कड़ाह से गरमा गरम गीला गुड़ निकलवा कर खुब खाया करते थे। हमें अपने छोटका बाबूजी की मीठी डांट के साथ वह गरमा गरम स्वादिष्ट गीला गुड़ खाने में बड़ा मजा आता था। बांस के पत्तों पर गीला गरम गुड़ ले धीर-धीरे फूंक कर खाना या यूं कहा जाये कि उसको चाटना एक बेहद ही रोमाचंक अनुभव देता था। स्वाद और मन दोनों खिल उठते थे।
हम हर बार गुड़ बनने के उस आखिरी पल का बेसब्री से प्रतीक्षा करते। हम विस्मय से घंटों यह देखते कि ईख की पेराई से निकला ढेर सारा रस कड़ाहे में डाल कर कैसे उबाला जाता है? गारे-मिट्टी, ईंट व पत्थर के टुकड़ों से बने स्वनिर्मित उस बड़े चुल्हे का आकार-प्रकार भी रस उबालने वाले तवानुमा गोलाकार बड़े कड़ाह रखने के अनुरूप ही काफी बड़ा बनता था। ढेर सारा चेखुआऔर ईख के पत्तों को चूल्हे में डाल कर आग में ईख का रस देर तक उबाला जाता था। पेराई करते समय जो रस निकलता,वह खाली डालडा टिनों में जमा होता।पेराई के बाद ईख का जो हिस्सा कोल्हुआ से बाहर गिरता, उसको हम चेखुआ कहते थे। उसे सुखने के लिए अर्धनिर्मित मड़ई से बाहर जमीन पर धूप में फैलाया जाता था। वही सुखने के बाद जलावन होता। उसे चूल्हे में झोंका जाता। कटाई के बाद खेतों में बिखरे गन्नों के पत्तों को भी बटोर कर चूल्हे में जलावन के तौर पर उपयोग किया जाता था। पर, चेखुआ से आंच कुछ ज्यादा तेज होती थी। इससे उथले कड़ाह का रस उबल कर धीरे-धीरे गाढ़ा हो जाता। वही ठंडा होकर गुड़ बनता। एकदम खालिस शुद्ध ताजा गुड़। आज शहर में हमें बाजार से जो गुड़ मिलता है, वह गांव के उस गुड़ की तुलना में कहीं नहीं ठहरता है। स्वाद और शुद्धता दोनों में जमीन आसमान का फर्क होता है। ऐसे में यदि कहीं थोड़ा भी अच्छा गुड़ खाने को मिल जाये, तो उसकी तारीफ किये बिना मन नहीं मानता।
सुरेन्दजी को भी मैंने गुड़ की तारीफ की। उन्हें अपने गांव वाले बचपन के दिनों की बात बतायी। वे आजकल पटना शहर से आधे-पौन घंटे की दूरी पर नये बने एम्स अस्पताल से थोड़ा आगे कोरजी गांव में अपना दो मंजिला मकान बना कर सपरिवार रहते हैं। वहां बहुत खुलापन है। स्वच्छ वातावरण है। शुद्ध हवा है। वे सुबह-शाम छत पर टहलते हैं। वहां हम देर तक रहे। दुनिया जहान की ढेर सारी बात हुई। सुख दुख पर चर्चा हुई। हम साल भर बाद मिले थे। आनंद आया।
उनकी पत्नी को मैंने ठेकुआ के अपने पसंद के बारे में बताया। कहा कि हम बचपन में छठ पर्व को ठेकुआ खाने का त्योहार मानते थे। हम बहुत बेसब्री से इसका इंतजार करते। सबेरे घाट पर जाते। नहा-धोकर तैयार होते। अर्ध्य के बाद सुप से ही ठेकुआ उठा कर खाना शुरू कर देते। बाद में कई दिनों तक अपनी ईया से बार-बार मांग कर ठेकुआ खाते। पेट भर खाते थे। इतना पसंद आता कि कई दिनों तक केवल ठेकुआ ही खाते थे। चाचियां ढेर सारा ठेकुआ बना कर रखती थी। गेहूं के आटे में गुड़ डाल कर इसे घी में छाना जाता था। वह गाय के शुध्द देशी घी में बनता। खेत के ईख से गुड़ और घर में पाले जा रहे गाय-भैंस से शुद्ध घी मिल जाता था। गेहूं भी अपने खेत का होता। हम बड़े गौर से देखते कि छठ से काफी पहले ईया की देख रेख में इसकी तैयारी शुरू हो जाती थी। सूप से बीन-फटक कर गेंहू साफ किया जाता। उसे साफ पानी से धोया जाता। अनेक कठौते में पानी में डूबोया गेंहू रात भर छोड़ दिया जाता। दूसरे दिन उसे कठौते से छान कर पूरे आंगन में साफ कपड़ा बिछाकर फैलाया जाता। उसे कई दिन धूप में सुखाया जाता। बाद में चाचियां उसे जाता वाली कोठरी में अपने हाथों से पीसतीं। गाय के दूध की मलाई इकट्ठा करने और उसे कड़ाही में उबाल कर घी निकालने का काम खुद ईया करती। वैसा ठेकुआ खाने की ललक अब भी बनी हुई है।
वही हाल गुड़ का है। गांव में हमें सालों भर गुड़ की भेली खाने को मिल जाती थी। सबेरे दातून करने के बाद खाली पेट पहले गुड़ की पूरी भेली खाते। शाम में चबेना के साथ नियमित गुड़ खाने को मिलता था। परंतु ईख हमें केवल जाड़े में ही चाभने को मिलता। मुंह से ईख का छिलका नोंच कर छोटा-छोटा गुल्ली काटते और उसे चबा कर रस चूसते। जी भर घंटों ऊख चाभते। इससे पेट भर जाता। ईख की कटाई बाद में होती थी। उसके बहुत पहले खेतों में जाकर ऊख चाभना हम शुरु कर देते थे। जब ईख पूरी तरह तैयार हो जाता था, तो चाचा लोग उसे खेत से काट कर कोल्हुआर पहुंचाते। बंडल बनाने के पहले ईख के सारे सुखे छिलके खेत में ही उतार दिये जाते थे। ईख के वे सुखे छिलके ही रस बनाने के लिए जलावन के काम आता।
कोल्हुआर खेत से बहुत दूर नहीं होता था। पास ही होता। ताकि खेत से काटे गये ईख को बंडलों में बांध सिर पर ढोकर वहां पहुंचाना आसान हो। वहां बैलों से ईख की पेराई कर रस इकट्ठा किया जाता। पेराई मशीन के लट्ठे से बंधे बैल गोल-गोल घूमते और कोल्हू से ईख का रस निकलता रहता। उसे टिनों में इकट्ठा किया जाता। इस काम में दो जनों की ड्यूटी लगती। एक बैल हांकता। दूसरा आदमी कोल्हू में ईख डालता जाता। यह खतरे का काम था। पर हम बैल हांकने में आगे रहते। पास ही गुल्ली डंडा या धर-पकड़ का अपना खेल छोड़ मौका मिलते ही बैल हांकने पहुंच जाते। कोल्हु में तीन रोलर आसपास सटे फीट होते। दो बड़े और एक अपेक्षाकृत छोटा रोलर होता। इनके बीच से ईख को अंदर डाला जाता। जब वह घूमता, तो उसकी पेराई होती। ईख के अंदर का सारा रस नीचे रखे बर्तन में गिरता। जब एक बर्तन भर जाता तो झट दूसरा वहां रख दिया जाता। सारा रस चुल्हे पर रखे कड़ाह में पकने के लिए उड़ेल दिया जाता। उस समय दो किस्म की ईखों की खेती होती थी। एक लोहाफारम और दूसरा ईख मसूरहिया कहलाता था। लोहाफरम का छिलका कड़ा होता। उसमें रस ज्यादा होता। उसकी लंबाई और मोटाई ज्यादा होती। इसकी उपज आज भी हर जगह हो रही है। दूसरे मसूरहिया ईख की खेती अब कम हो गयी है। उसका छिलका थोड़ा मुलायम होता था। उसका साइज छोटा होता था। हमें तोड़ कर चाभने में आसानी होती। पर उसमें रस कम होता था। लोहाफारम कड़ा, लेकिन रसीला था।
कोल्हुआर में ही तीन तरह के गुड़ तैयार किये जाते थे। एक चकरी, दूसरा धुंधिया और तीसरा भेली बनता था। चकरी बनाना आसान होता। चकरी ज्यादा बनता था। यह पंद्रह से बीस किलो तक के वजन का होता। एक से डेढ़ किलो के गुड़ से बड़े-बड़े लड्डू बनाये जाते, जिसे हम धुंधिया कहते। इसी प्रकार जरुरत के हिसाब से गुड़ का भेली बनता। यह छोटे-छोटे गुड़ का लड्डू होता। खाने में भेली का उपयोग ज्यादा होता है। एक भेली सौ-पचास ग्राम का गुड़ से बन जाता है। स्वाद बढ़ाने के लिए इसमें सौंफ, काली मिर्च या कुछ और मसाले मिलाये जाते थे। गुड़ की भेली अब भी बनती है। ऐसी ही स्वादिष्ट भेली सुरेंद्रजी के यहां खाकर गांव की याद आ गयी थी।
वहां से लौटते हुए गांव में गुड़ खाने का बचपन का अनुभव मन में तैरता रहा। वह दोबारा नसीब नहीं हुआ। एक बार जो गांव छोड़ा, तो परदेसी बन गया। अब भी कभी-कभी जाता हूं, पर पुराने लोग और पुराना चलन सब बदला हुआ नजर आता है। अब ईख की वैसी खेती भी नहीं होती। बदले हालात में कौन उतना जहमत उठाये? अब गांव वाले भी स्थानीय बाजार से गुड़ खरीद कर खाते हैं। वह ज्यादातर बाहर से मंगाया गुड़ होता है। सोचता हूं, अपने अगले आलेख में गन्ने के खेतों के बारे में कुछ मन की बात कहूं। हमारे बाप-दादा गुड़ खाने के पहले खेतों में अपना कितना पसीना बहाया करते थे ? वह सब याद कर उनके प्रति श्रद्धा से सिर झूक जाता है।
-- परशुराम शर्मा ।
२९ नवम्बर २०१८.