यह फोटो जयपुर के एक आलीशान हॉटल की लॉबी में लगी हुई है...
हाल ही जब मैं वहाँ गया तो इसे आपके लिए ले आया...
गौर से देखिए इसे... इसमें कुछ शिकारी लोग हैं जो इतने जांबाज थे कि चीते पालते थे...
चीता भारत के जंगलों में अंतिम बार 1969 में देखा गया था, उसके बाद यह जीव भारत में कभी नहीं देखा गया...
यह अब अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के जंगलों में पाया जाता है...चीता दुनिया का सबसे फुर्तीला और तेज दौड़ने व लपक वाला जीव होता है...
अभी कुछ 80-100 साल पहले तक जयपुर में कुछ शिकारी लोग इन्हें अपने घर पर पालते थे और खाट से बाँधकर रखते थे... उनका एक मोहल्ला (चीतावतान) भी था पुराने जयपुर में... जो आज भी मौजूद है...
वे स्थानीय राजाओं और अंग्रेज अफसरों के लिए जंगली जीवों का शिकार इनसे करवाते थे...शिकार मुख्यतः आधुनिक साँगानेर और विद्याधर नगर के बीच में होता था...या फ़िर नाहरगढ़-झालाना में...चीते उनके आदेश पर हिरण मारकर अपने मालिक को सौंप देते थे...
यह कला (कला ही थी यह) अफगानिस्तान और अफ्रीका से जयपुर पहुँची थी...अब ना कला है ना कलाकार...
हम अपनी विरासतों व परम्पराओं को किस तरह से खोते हैं यह इसकी मिसाल है...
आज राजस्थान सहित भारत में चीतों को पुन: बसाने, अफ्रीका से चीते मँगवाने की कई योजनाएं बन चुकी हैं और बन रही हैं, जबकि कभी यहाँ चीते इतने सहज रूप से मौजूद थे... हमने उन्हें नष्ट किया और अब उनके संरक्षण की बातें हो रही हैं...
कुछ गौर उन लोगों पर भी कीजिये जो तस्वीर में दिख रहे हैं....
क्या दमखम, क्या छरहरी देह, क्या लपक और क्या फिजिकल फिटनेस रही होगी कि चीतों के साथ जंगलों में भाग-दौड़ कर लेते थे वे जाँबाज...आज के लोग एल्सेशियन, पोमेरियन के साथ पार्क में जोगिंग कर खुद को फिट समझ रहे हैं...
जंजीर से चीतों को बाँधने वाले लोग कैसे रहे होंगे क्या खानपान रहा होगा... क्या नस्ल होगी वो आदम की...
क्या विश्वविद्यालयों को इन पर शोध नहीं करने चाहिए या वहाँ सदा टीपन्तरी और चौर्य कला से ही शोध (कॉपी पेस्ट) होते रहेंगे...क्या मेडिकल साइंस, हेरिटेज, वाइल्ड लाइफ वालों को इधर नहीं सोचना चाहिए...
- उपेंद्र शर्मा जी