Sumit Srivatava-
गुमनामी में खोती पत्रकारिता….. वर्ष 2006 में मै ग्रेजुएशन करने के बाद पत्रकारिता का कोर्स करने के लिये जब मैं दूसरे जनपद के लिये निकला तब मैं अपने जुनून से लबरेज था कि पत्रकारिता में कुछ कर दिखाना है। पत्रकारिता में प्रवेश लिया। पिताजी मेहनत करके हर माह पैसा भेजते थे जिससे मैं अपने संस्थान की फीस भरता और अपना खर्चा चलाता था।
लाखों रुपये खर्च करने और काफी मेहनत के बाद मैंने पत्रकारिता का सार्टिफिकेट और मार्कशीट पाई। जोश से लबरेज था और भविष्य के सपने देखना शुरू कर दिया था। मैं भी दूसरे ईमानदार पत्रकारों की तरह लोगों के मुद्दे को उठाने एवं उनका समाधान करने की कोशिश करूंगा, ये भाव था।
समय बीता। शुरू हुई हमारी इंटर्नशिप। तीन माह इंटर्नशिप करने के बाद 2500 रुपये की नौकरी भी पाई। कुछ सालो बाद चैनल हेड बदले और उसी के साथ हमारी नौकरी भी चली गई। फिर शुरू हुआ चैनल के ऑफिस में जाकर अपना रिज्यूम देने का सिलसिला। गेट पर गार्ड रोककर रिज्यूम ले लेता था और उसके बाद उसका क्या होता, आज तक नहीं पता। कहीं से कोई कॉल नहीं।
बाद में पता चला सोर्स वालों को ही चैनल में रखा जाता है। ऐसे धीरे धीरे करके कई साल गुजरते गये। पिताजी पैसा भेजते रहे। पिताजी अब रिटायर हो चुके थे। उनकी इतनी पेंशन नहीं थी कि वो मेरा और घर का दोनों खर्चा चलायें।
मेरा संघर्ष जारी रहा… कुछ सालों में एक छोटे से संस्थान में नौकरी पाई लेकिन कुछ महीनों बाद वो भी बंद हो गया… फिर दूसरे संस्थान में नौकरी के लिये गये तो पता चला वहां के कर्मचारियों को कई महीनों से सैलरी नहीं मिली। यहां तक आते आते लाखों रुपया खर्च हो चुका था। संघर्ष जारी रहा। चैनल से फिर हम ब्यूरो में काम करने के लिये आ गये। आखिर पेट का सवाल था। भविष्य की तस्वीर अब धुंधली होती जा रही थी।
अचानक एक दिन मैं सड़क से पैदल पैदल गुजर रहा था तो मैं एक व्यक्ति की गाड़ी में प्रेस का स्टीकर लगा देखा। वो आदमी गाड़ी में ही बैठा हुआ था। मैने उससे पूछा कि चैनल में रिपोर्टर कैसे बनें। जिस काम के लिये मैने जिंदगी बिता दी वो आज तक नहीं कर पाया। तब उसने मेरी तरफ हंसते हुये कहा कि मेरी मां के मौसरे भाई का दूर का रिश्तेदार प्रेस में है इसलिये मैंने भी अपनी गाड़ी पर प्रेस का स्टिकर लगा लिया। मन बड़ा निराश हुआ। फिर सोचा ऐसा भी होता है।.
मैं उसकी बात सुनकर आगे बढ़ गया। कुछ महीनों बाद एक कार्यक्रम के दौरान मेरी फिर एक पत्रकार भाई से मुलाकात हो गई। गले में आईकार्ड और हाथों में माइक आईडी लिये इधर से उधर टहल रहा था। मुझे लगा शायद ये मुझे आगे का रास्ता दिखाएंगे। मैने बड़ी हिम्मत करते हुये पूछा कि भईया आप इतनी ऊंचाईयों तक कैसे पहुंचे। उसने मेरी तरफ घूरा और बोला तुम्हें पता है, चैनल में पैसा देकर माइक आईडी लाया हूं।
मुझे एक अन्य व्यक्ति ने उस पत्रकार के बारे में बताया कि वो 8वीं फेल है। जब मैंने ये सुना तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। तब मैं सोचने लगा क्या यही पत्रकारिता का स्तर रह गया है। मेरी सालों की मेहनत पर पानी फिर गया। आज भी मैं और मेरे जैसे जाने कितने पत्रकार हैं जो गुमनामी की जिंदगी जी रहे हौं, दो वक्त की रोटी के लिये संघर्षरत हैं।
पत्रकारिता का कोर्स कराने वाले संस्थानों पर ताले लग जाने चाहिये क्योंकि पत्रकारिता का कोर्स करने से अच्छा किसी चैनल में कुछ पैसा दो और पत्रकार बन जाओ। ऐसे पत्रकार आज कुकरमुत्तों की तरह सड़कों पर देखे जा सकते हैं। यही हाल कमोवेश कैमरामैनों का भी है। अतः सरकार से यही गुजारिश है कि कुछ ऐसे नियम बनाया जाए जिससे फर्जी पत्रकारों पर कार्रवाई के साथ गुमनामी की जिंदगी जीने को मजबूर कई पत्रकारों को न्याय मिल सके।
सुमित कुमार श्रीवास्तव
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