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लोकतंत्र का लावारिस प्रहरी होता हैं पत्रकार / शिशिर सोनी


खरी खरी

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बिहार के प्रखर पत्रकार जुगनू शारदेय जी के ब्रह्मालीन होने के बाद अपने अपने darwing room में बैठे सजावटी लोग श्रद्धांजलि दे रहे हैं। जब तक वो जिंदा थे दर दर की ठोकरें खाते रहे। तब फेसबुक पर श्रद्धांजलि सभा करने वाले कोई दिखाई नहीं दिये। संसार में अकेले, बिना शादी के बौराने वाले फक्कड़ जुगनू जी कभी पटना रहे, कभी दिल्ली तो कभी मुंबई। जहाँ पनाह मिला, उम्र की इस बेला में वही ठहर लिए। 


मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है जुगनू जी की लावारिस मौत। मेरा परिचय दैनिक भास्कर में उनके लगातार लिखने, दफ्तर आने जाने के क्रम में हुआ। अंतिम नौकरी उन्होंने राम बहादुर राय के सानिध्य में हिंदुस्तान समाचार की पत्रिका में की। वहाँ से विदा हुए तो मानो पैदल हो गए। दिल्ली छूटा। पटना पहुंचे। हम सभी पत्रकारों के कंधे पे कोई नेता हाथ रख दे तो हम उसे अपना खैर ख़्वाह मानने की भूल करते हैं। लगातार करते हैं। फलां हमारा मित्र है, अभी फोन करता हूँ, काम हो जायेगा... ऐसी हवा बनाते हैं। बुलबुले को हकीकत समझते हैं। हकीकत में नेता किसी के नहीं होते। जुगनू जी भी खुद को नितीश का मित्र बताते थे। बुरा वक़्त आया तो खुद को अकेला पाया। न नेता, न अभिनेता। न पत्रकार, न फनकार। परिवार में कौन है, पता नहीं। न वो जिक्र करते थे, न मैं पूछता था। 


दिल्ली छोड़ जब वो पटना गए, किसी के आसरे गए होंगे। सहारा नहीं मिला तो पटना सिटी के गुलजारबाग स्थित वृद्ध आश्रम में रहे। वहीं से उन्होंने फोन कर सारी आपबीती बताई। पता नहीं क्यों मुझ से वो खूब बतियाते थे। बताया कैसे ये आश्रम नहीं पागलखाना है। यहाँ ज्यादा रहा तो पागल हो जाऊंगा। सुबह एक ही कप चाय मिलती है। पटना सिटी के समाजसेवी Pradeep Kash को फोन कर मैंने उनका ध्यान रखने को कहा। प्रदीप दोस्तों के साथ उनसे मिलने पहुंचे। खूब बातें हुई। कुछ कमी बेसी पूछ ली। पूरी की। अन्य दोस्तों के मार्फत भी ये सिलसिला चलता रहा। 


एक दिन अचानक पटना का वृद्ध आश्रम छोड़ दिल्ली आ गए। फोन कर बताया कि राम बहादुर राय जी की मदद से गांधी प्रतिष्ठान में ठहरा हूँ। उस समय मैं दिल्ली से बाहर था। लौट कर आया तब तक वे गांधी प्रतिष्ठान से जा चुके थे। उनके कुछ calls मैं miss कर गया। अब उनको miss कर रहा हूँ। किस अवस्था में कहाँ उन्होंने अंतिम साँसें ली, कोई जानकारी नहीं। 


मगर, हम पत्रकारों की यही व्यथा है। कहने को लोकतंत्र का चौथा खंभा। न कोई सोशल सेकुरिटी है, न नौकरी के बाद गरिमापूर्ण जिंदगी जीने के साधन। हम नून तेल के जुगाड़ में कब अधेड़ हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। कब, कौन सी बीमारी के वाहक हो जाते हैं, इल्म ही नहीं होता। 


हम लोकतंत्र के लावारिस प्रहरी हैं। जिसे टेनी जैसे नेता जब चाहे गरिया दें। जब चाहे मरवा दें। उस पाले में ढेंगरा रहे हमारे पत्रकार मित्र भी खबर दिखाने से बचेंगे। खबर लिखने से बचेंगे। अपनी बारी की प्रतीक्षा करेंगे। खंड खंड में विभक्त रहेंगे। Drawing Room से श्रद्धांजलि देते रहेंगे।


श्री राम नाम सत्य है...


शिशिर सोनी 


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