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Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
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अपनी शर्तो के साथी / उर्मिलेश

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 जुगनू भाई का इस तरह जाना बहुत दुखद और स्तब्धकारी है.

उनके निकटस्थ मित्रो के मुताबिक दिल्ली के एक वृद्धाश्रम में उनका निधन हो गया. उनके निधन की सूचना उनके मित्रो को बाद में मिली. वह समाजवादी धारा के प्रखर पत्रकार और वन व पर्यावरण मामलों जानकार थे. भारतीय रेल भी उनकी विशेषज्ञता का एक विषय था. 

उनके निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं था. वह अविवाहित थे और पैतृक परिवार से भी कोई खास सम्बन्ध नही रह गया था. अगर भूल नहीं  रहा हूं तो उन्होने एक बार बताया था कि वह बिहार के औरंगाबाद जिले के एक गाँव में पैदा हुए थे. 

जुगनू शारदेय मस्त, मनमौजी और अक्खड़ थे. पत्रकारिता, पॉलिटिक्स, फ़िल्म निर्माण या पर्यावरण किसी क्षेत्र में उन्होंने टिककर काम नहीं किया. लेकिन जो भी किया, उसमें वह अपनी अलग छाप छोड़ते रहे.  उनकी ईमानदारी और समझदारी असंदिग्ध थी. वह सामाजिक न्याय के मुखर समर्थक थे.

'समाजवादी-जनता दली धारा'के तमाम छोटे-बड़े नेताओं से उनका सीधा सम्बन्ध था पर किसी से ज्यादा दिन पटरी नहीं बैठती थी. जहां तक याद आ रहा है, एक दौर में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें किसी महत्वपूर्ण शासकीय पद पर भी मनोनीत किया था. उन्होने कुछ साल उस पद पर काम भी किया. उनके मन-मिजाज का वह काम था. बाद में  न जाने क्या हुआ, वह नीतीश जी से इस कदर अलग हुए कि उनके तीखे आलोचक बन गये. लालू प्रसाद यादव, शिवानंद तिवारी और नीतीश कुमार सहित जे पी आंदोलन के सभी प्रमुख नेताओं से उनका दोस्ताना सम्बन्ध रहा पर उनकी ज्यादा समय तक किसी से पटती नही थी. वह संघ-भाजपा राजनीति के जबर्दस्त आलोचक थे. कुछ साल वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन सांसद और जेएनयू के हमारे सीनियर डीपी त्रिपाठी के सरकारी बंगले में भी रहे. उन दिनों वह प्रेस क्लब भी आया करते थे. यदा-कदा वहां हमारी मुलाकात हो जाती थी. त्रिपाठी जी का भी लंबी बीमारी के बाद पिछले साल के शुरू में निधन हो गया था. 

जुगनू भाई से मेरा परिचय सन् 1986 के आसपास पटना में हुआ था, जब मैं नवभारत टाइम्स के बिहार संस्करण में काम करने दिल्ली छोड़कर पटना गया. मेरी पहली किताब: बिहार का सच(1991) की उन्होंने नवभारत टाइम्स में समीक्षा भी लिखी थी, जो सभी संस्करणों में छपी. उन्होंने एक बार बताया कि उनके मित्र और नवभारत टाइम्स के तत्कालीन कार्यकारी संपादक एस पी सिंह से वह किताब उन्हें इस शर्त पर मिली थी कि वह पढ़कर उसकी समीक्षा लिखेंगे. जुगनू भाई ने वह दायित्व निभाया. वह मेरे आलोचक और प्रशंसक, दोनों थे. बहुत खुलकर बतियाते थे और कभी-कभी खूब नाराज़ भी हो जाते थे. 

जुगनू भाई, सादर नमन!


चित्र सौजन्य: सोशल मीडिया


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