बात जुलाई 1991 की रही होगी अभी लखनऊ पोस्टिंग को हुए बमुश्किल डेढ़ महीने ही हुए थे वापस दिल्ली जाने की हूक हो उठी. लखनऊ पोस्टिंग मांग कर ली थी लिहाज़ा दिल्ली का दौरा ही लग सकता था. पोस्टिंग के बाद पहली बार दिल्ली जा रहे थे . पहली तनख्वाह मिल चुकी थी. जेएनयू होस्टल में सबसे मिलने की खुशी के साथ लोगों को ट्रीट देने का वादा भी था. लखनऊ से दिल्ली के लिए एक वीआईपी ट्रेन थी लखनऊ एक्स्प्रेस जो लखनऊ से रात 10 बजे चल कर सुबह 7 बजे दिल्ली पहुंचती थी. ज़्यादातर एमएलए एमपी या स्टेट मिनिस्टर्स इसी ट्रेन से सफ़र करते थे लिहाज़ा ये ट्रेन समय की बड़ी पावंद मानी जाती थी. उन दिनों हम जैसे जूनियर अफ़सरों के लिए फर्स्ट क्लास या A C के दोयम दर्जे के ट्रैवेल का इनटाइटेलमेंट था. सबसे बड़े क्लास में इक्के दुक्के ही होते थे.
बहरहाल लखनऊ मेल का फर्स्ट क्लास भी ख़ासा क्लासी माना जाता था. एमएलए एमपी इसी में चलना पसंद करते थे. 'एक्स'तो लाज़िमी तौर पर इसी क्लास में चलते थे. वजह भी कि इसमें कूपे होता था जो पूरी प्राइवेसी देता था. दो बर्थ वाला कूपे तो पूरा अलग से कमरा लगता था. जब हम अपनी बर्थ तलाशते कूपे में धंसें तो देखा हमारी नीचे की बर्थ पर एक पुलिस वाला अपनी लोहे की ज़ंग लगी मशीनगन नुमा बंदूक के साथ काबिज़ है. जब उसे उठने को कहा तो बोला, 'माननीया पूर्व सांसद के साथ सिक्योरिटी में हैं. आप लेट जाइए हम किनारे बैठे रहेंगे.' पूर्व सांसद के साथ एक महिला एस्कोर्ट ऑलरेडी थी . ये पुलिसवाला तो फ़र्स्ट क्लास कूपे में बग़ैर टिकट बैठा था. हमने बवाल काटना चाहा लेकिन दो महिलाओं को सामने बैठा देख पुलिस वाले को बाहर टीटी के पास ले गए. टीटी भी मजबूर था बोला,'सर लखनऊ मेल में सिक्योरिटी स्टाफ़ ऐसे ही चलता है.थोड़ी देर बैठे रहेंगे फिर बीच में अख़बार बिछा कर लेट जायेंगें !'हम पहली बार 'अफ़सर 'का तमगा लिए चल रहे थे. कुछ कुछ प्रेमचंद की कहानी 'नशा 'जैसा सुरूर था. लिहाज़ा टीटी से कह कर दूसरी किसी जगह नीचे की बर्थ की रिक्वेस्ट की. तब तक पुलिस वाला बोला, 'साथ चलिए पूर्व सांसद हैं. आप मीडिया से हैं मिलना जुलना अच्छा रहेगा. अभी अभी इनके बारह विधायक चुन कर आए हैं. देखिएगा आने वाला समय 'बहनजी'का ही है!' हम कूपे में अपना हैंड बैग निकालने के लिए घुसे देखा सामने एक ग्रामीण परिवेश की महिला चादर ओढ़े अपनी किसी सहयोगी के साथ बैठी थीं. ये बहन मायावती थीं! इसके पहले हमने मायावती के बारे में सुना भी नहीं था! हमने नमस्ते करते हुए पता नहीं क्यों इंट्रोड्यूस करा दिया, 'जी मैं रमन हितकारी दूरदर्शन न्यूज़ में हूं'. मायावती बोलीं, 'कोई दिक्कत है? हमारा सिकोटी वाला बाहर गलियारे में लेट जाएगा.'हमने कहा, 'नहीं मैम थैंक यू!'मायावती के चेहरे पर सुखद भाव थे. उनदिनों उन्हेंं 'मैम'कह कर संबोधित करने वाला शायद ही कोई रहा होगा.
ये मायावती से हमारी पहली मुलाक़ात थी. .
बात आई गई हो गई. जब लखनऊ लौटकर आए तो हमें एक प्रोग्राम नई सरकार की चुनौतियां बनाना था जिसमें सरकार में लोगों के साथ विपक्ष के लोगों की भी रायशुमारी करनी थी. ढूंढते ढूंढते बीएसपी के एक कमरे के दफ़्तर पहुंचे उनके नेता की जब रिकॉर्डिग शुरु की तो वो बोल ही नहीं पा रहे थे. कई रिटेक्स के बाद तय पाया कि जो हम बोलेंगे उसे बस सुन सुन कर वो दोहरा दें. एक एक लाइन कर बमुश्किल से डेढ़ दो मिनट की बाइट रिकार्ड हो पार्ई. जब हम उठने लगे तो तड़ी में कह दिया, 'हम बहन मायावती को जानते हैं. अभी दो दिन पहले ही उनके साथ दिल्ली गए थे .' ये सुनकर उनका नेता खड़ा हो गया. हमारा कंधा पकड़ कर बिठा दिया बोला, 'बिना चाय पिलाए तो हम आपको छोड़ेंगे नहीं!'
बड़े आम, बड़े ग़रीब थे ये लोग. यूपी राजनीति के ब्रह्मनिकल सेट अप में बड़ी मुश्किल से सेंध लगा कर आए थे. यूपी की ब्रह्मनिकल राजनीतिक सेट अप के लिए जितना कांग्रेस ज़िम्मेदार रही थी उतना ही वे 'कुलक्स'पार्टियां भी जिन्होंने सोशल स्ट्रकचर में अपने आपको सैंसिक्रिट्राइज़्ड मान मलाई उतारना शुरु कर दिया था और दमित दलितों के वोट बैंक को अपनी बपौती समझ ली थी.
बहुत साल पहले,शायद 1983 -84 रहा होगा, हमने इलाहाबाद में कांशी राम की एक रैली अटैंड की थी. उसमें मंच से नारे लग रहे थे 'ठाकुर ब्राह्मण बनिया चोर, राज करेगा डीएस-4 'या 'तिलक तराजू और तलवार मारो इनको जूते चार'इन नारों को सुनकर धक्का लगा था. लगा कि इतना वैमनस्य क्यों पैदा किया जा रहा है? क्या समाज को बांटनें वाले इन नारों की बुनियाद पर कोई पार्टी खड़ी हो सकती है? हम ग़लत थे! बीएसपी इन्हीं नारों की बुनियाद पर पैदा हई थी. कांशीराम द्वारा 1 मनुवादी सोंच पर लगातार प्रहार का नतीजा ही था कि 1991 में यूपी में बीएसपी 12 सीटों के साथ पहली बार एक पुलिटिकल फोर्स बनी और प्रदेश की राजनीति में मायावती का अभ्युदय हुआ!
मायावती शुरुआती दौर में कांशीराम के साथ ही लखनऊ आती थीं और फ़िर दिल्ली लौट जाती थीं. आम लोगों या मीडिया के लगातार संपर्क में वे 1993 से ही आईं जब यूपी विधानसभा चुनाव बीएसपी और मायावती के लिए टर्निंग प्वाइंट रहा। ये चुनाव काशीराम और मुलायम सिंह यादव ने मिलकर लड़ा और समाजवादी पार्टी की अगुवाई में सरकार बनीं. इस एलेक्शन में बीएसपी को अनप्रीसिडेंटेड 67 सीटें मिली।
इस वक्त हमें उस पुलिस वाले की बात याद आई जो ट्रेन में साथ सफ़र कर रहा था! जिसने कहा था, 'आने वाला वक्त बहनजी का है।'
सपा और बसपा की मिली जुली सरकार का नतीजा था कि पहली ऑपरच्युनिटी में मायावती को राज्य सभा में भेज दिया गया. एक बार फिर मायावती लखनऊ की पॉलिटिक्स से दूर दिल्ली रहनें लगी. इस बीच कांशी राम बीमार रहने लगे और मायावती यूपी पॉलिटिक्स और गवर्नेंस में सीधे दख़ल देने लगीं.
मुलायम सिंह यादव कभी भी किसी की हक़तल्फ़ी के ख़िलाफ़ रहते थे. ये उनकी गवर्नेंस की स्टाइल थी. अपने सहयोगियों को छोड़ें वो तो आने वाले समय को ध्यान में रखते हुए अपने धुर विरोधियों का भी चुपके से जा - बेजा काम कर दिया करते थे. अपनी पार्टी अफ़ेयर्स में मायावती पूरी तरह से 'सैडल'पर काबिज़ हो चुकीं थीं और उनकी महत्वाकांक्षाएं हिलोरें लेने लगीं थीं.
बीजेपी भी इस स्थिति को ताड़े बैठी थी लिहाज़ा बीजेपी का सहयोग हासिल कर मायावती ने सपा से समर्थन वापस ले लिया. सपाई इस बात को पचा नहीं पाए . उन्होनें जमकर हंगामा काटा और बसपाईयों को घेर कर पिटाई कर दी.यही यूपी का बहु चर्चित गेस्ट हाउस कांड था. जिसको मायावती अपने लाईफ़ पर अटेम्पट के तौर पर आजतक देखतीं हैं. इस कांड को 27 साल हो चुके हैं और अभी तक ये कोर्ट कचेहरी में फंसा है!
1995 में मायावती भाजपा के सहयोग से पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गई और इसी के साथ पब्लिक डोमेन में उनकी आमद हुई. चार साल के गैप के बाद हम मायावती से मिल रहे थे अब काफ़ी मेकओवर हो चुका था. सीएम वो भी यूपी के सीएम की कुर्सी पर बैठने वाला हर शख़्स हिन्दुस्तान का दूसरा सबसे ताक़तवर इंसान जो बन जाता है!
दूरदर्शन का मिजाज़ रहा है कि दिल्ली में तो ये केन्द्र सरकार और उसकी नीतियों के साथ चलता है लेकिन अगर सूबों में मुख़तलिफ़ सरकारें हुईं तो वो उसके रीजनल केंद्र उन सरकारों के दफ़्तरी बन जाते हैं. अमूमन ऐसा ही देखा गया है. लिहाज़ा हमें भी मायावती की कवरेज करने , 15 अगस्त का संदेश और नई सरकार की चुनौतियों जैसे पब्लिसिटी प्रोग्राम की हिदायत दी गई. इनके इस पहले चार महीनों के टर्म में जितनी भी मुलाक़ातें रहीं उसमें 'दूरदर्शन के लम्बे वाले अधिकारी'के तौर पर कुछ कुछ पहचाननें लगीं थीं . हमारे न्यूज़ रूम में एक संवाददाता होते थे जो न्यूज़ एडीटर के एक तरह से 'प्रातिश़ी'थे वो मायावती के क्लोज़ क्वाटर्स में आ गए और उनकी ब्रीफ़ संभालने लगे. हालांकि बाद में वे मायावती के यहां बैन कर दिए गए और मायावती ने उनके ख़िलाफ़ दूरदर्शन के अधिकारियों को फ़ेवर्स मांगने की लिखित शिकायत भी की.
बहरहाल जब 1996 में चुनाव की घोषणा कर दी गई और चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों के संदेश रिकार्ड किए जाने शुरु हो गए तो एक दिन दोपहर को मायावती धड़धड़ाती हुई अपने पूरे कारकेड के साथ दूरदर्शन में दाखिल हुईं. आते ही बोलीं, 'हमारी रिकार्डिंग का टाइम स्लाट चेंज करो. अभी स्क्रिप्ट नहीं बन पाई है. हमारे यहां इस वक्त कोई नहीं है जो लिखना पढ़ना जानता हो'. ये तब की बात है जब वो 4 महीनें तक सीएम रह चुकीं थीं. उन दिनों यूपी में सात आठ पुलिटिकल पार्टीज़ थी जिनके 30-35 रिकार्डिंग स्लाट्स थे समय कम था. हर नेता अपनी रिकार्डिंग ओवर शूट करता था. लिहाज़ा किसी के मन मुताबिक रिकार्डिंग टाइम दे पाना मुमकिन नहीं था. मायावती अपने साथ कुछ पार्टी के परचे, कुछ स्पीच की कापियां और हैंड बिल्स लिए थीं. हमने सजेस्ट किया , 'आप कहिए तो दो छोटी छोटी 10 मिनट और 5 मिनट की स्पीचें ही तो हैं, इन्ही कागज़ों से ट्राई करके देखते हैं!'मायावती बोलीं, 'लिख लोगे?'हमनें कहा , 'कोशिश करते हैं!'बहरहाल कट एंड पेस्ट कर घंटे भर में दो स्पीचें तैयार हो गईं. बहनजी को पसंद आनी ही थीं. उन्होनें पूछा, 'ये हितकारी कौन होते हैं?'हमनें जब बताया कि कायस्थ होते हैं तो बोलीं, 'हमारे यहां भी एक कायस्थ रिटायर्ड जस्टिस उमेश चंद्र श्रीवास्तव हैं आज मिल नहीं पाए. तुम लोग पढ़े लिखे होते हो. अगर चाहो तो हमारी पार्टी में लिखाई पढ़ाई का काम देख लो!'ये नौकरी छोड़ कर उनकी पार्टी ज्वाइन करने का न्योता था. हम थोड़ा थ्रिल्ड हो गए और शाम को जब घर में अपने वालिद को बताया तो इतनी ज़ोर से डांट पड़ी कि सारा थ्रिल ख़त्म हो गया.
इसी बीच दूरदर्शन डायरेक्टरेट ने दिल्ली से नलिनि सिंह को एक प्री इलेक्शन डिस्कशन के लिए लखनऊ भेजा. पैनल में स्टुडियो में मायावती और कोई एक कोग्रसी नेता था और ओबी लोकेशन से समाजवादी पार्टी की तरफ़ से उनके प्रदेश अध्यक्ष राम शरण दास पार्टिसिपेट कर रहे थे. मायावती ने लाइव प्रोग्राम में मुलायम सिंह यादव को 'गुंडों का हेड'कह दिया तो राम शरण दास ने उन्हें 'गुंडी गुंडी'कहना शुरू कर दिया. ज़ाहिर है ऐसे में प्रोग्राम बंद करना पड़ा. मायावती बेहद नाराज़ थीं. उन्हें लगा कि ये सब दिल्ली से की गई साज़िश का नतीजा है. देर रात हमारे पास दूरदर्शन डायरेक्टर का फ़ोन आया कि मायावती ने उनके दफ़तर पर लगी ओबी वैन को तुरंत हटाने के लिए कहा है वरना उनके कार्यकर्ता उसमें आग लगा देंगे. सुबह सुबह स्कूटर से हम मायावती से मिलने उनके घर पहुंचे. पहले तो मिलने से मना कर दिया लेकिन जब कहलवाया कि दूरदर्शन से लम्बे वाले अधिकारी आए हैं तो निकल कर आईं. बहुत फ़यूरियस थीं. हमलोगों पर साज़िश के खुले इल्ज़ाम लगा रहीं थीं. खड़े खड़े एक्सप्लेन करते हम भी थक चुके थे लिहाज़ा चलते चलते कह दिया, 'मैम ओबी वैन सरकारी सम्पत्ति है मेरे घर की नहीं. देख लीजिए. अगर कुछ ऐसा हुआ तो चुनाव पर असर पड़ सकता है अभी तो वोट भी नहीं पड़ने शुरु हुए हैं!'मायावती बग़ैर कुछ कहे अंदर चली गईं और ओबी वैन वैसे ही दिन भर खड़ी रही!
1997 में फिर इलेक्शन आया. अबकि मायावती जब दूरदर्शन अपनी स्पीच पढने आईं तो आते ही हमें यानि 'लम्बे वाले अधिकारी'को बुलवाया ये बताने के लिए कि उनकी स्पीच तैयार और टाइप होकर आई है. ये कहते हुए वो ज़ोर से हंसी. उन्हें पिछले बार की घटना याद थी. बीस मिनट की स्पीच 15 मिनट में ही ख़त्म हो गई लेकिन उनको इसका इल्म नहीं हुआा. हमारे यहां उनका जो मुसाहिब था उसने ये जड़ दिया कि 5 मिनट शार्ट है इसमें अपना सिंबल हाथी लगाने को कह दीजिए. ऐसा मुमकिन नहीं था कि फ़ुल स्क्रीन पार्टी सिंबल वो भी पांच मिनट के लिए दिखाया जाए. मायावती अड़ी रहीं कि ये 5 मिनट हमारे हैं.हमनें लाईटर वेन में कह दिया,'ज़रूर दिखायेंगे अगर हाथी डांस करेगा'.
मायावती को मज़ा आया और बात वहीं रुक गई.
1997 में मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनीं. दूरदर्शन न्यूज़ में सभी कलीग्स के पास सरकारी घर थे बस हमारे पास नहीं था. गवर्नर रुल में हम बड़ी शिद्दत से इस सेंट्रल पूल से एलाटमेंट के लिए लगे थे लेकिन एक राज्य सम्पति अधिकारी सिद्दीक़ी बार बार रोड़े अटका रहा था. किसी काम से हम मायावती के पास सीएम हाउस गए. उनसे कहा कि हमारे जायज़ इंटाइटेलमेंट के तहत अगर आप इस एप्लीकेशन पर आर्डर कर देंगी तो काम बन जाएगा. मायावती ने एप्लीकेशन हाथ में पकड़ ली और दूसरी बातें करने लगीं. हमें लगा ये करना नहीं चाहती हैं लिहाज़ा फिर कहा, 'मैम आपके राज्य सम्पति अधिकारी सिद्दीक़ी सुनते नहीं हैं!'अबकि मायावती ने कहा, 'करेगा कैसे नहीं. मैं उसे सस्पेंड कर दूंगी!'
अगली सुबह ही सीएम के डायरेक्टर इंफारमेशन रोहित नंदन का घर पर फ़ोन आया, 'आपके एलाटमेंट के आर्डर निकल चुके हैं. चाबी ले लीजिए!'
2001 में हमनें लखनऊ छोड़ दिया देहरादून चले आए. यूपी के तक़रीबन सारे पुलिटिकल लोगों से कट गए. एक दफ़ा 2003 में राजनाथ सिंह देहरादून आए तो पत्रकारों की भीड़ में देखकर अलग से बुलवा लिया. उन्हें लगा कि हमनें विवशताओं के चलते लखनऊ छोड़ा और उनसे मदद की तवक़्को तक नहीं की. कल्याण सिंह, मुलायम सिंह, लालजी टंडन, मायावती और राजनाथ सिंह इन सबसे दूर हो गए. मायावती और उनकी पार्टी में भी इस बीच बड़े बदलाव आए. सतीश मिश्रा ने सेंटर स्टेज पकड़ लिया और जिस पार्टी में नंबर टू का कोई कांसेप्ट नहीं था वहां वो नंबर टू हो गए. बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग का कार्ड चलाया और उसमें वह एक बार सफल भी हुई. लेकिन ये फ़ौरी सक्सेस ही थी. बसपा का कोर तो दलित ही है और वही रहेगा जब तक बसपा की इस स्पेस को कोई दूसरी पार्टी हथिया नहीं लेती.
इस चुनाव में अभी तक मायावती नदारत हैं. सतीश मिश्रा दावा करते हैं कि बहन जी इसी दौरान पांच से दस लाख लोगों को एड्रेस कर चुकी हैं और उनके हज़ारों कार्यकर्ता जनसंपर्क में जुटे हैं लेकिन ये दृश्य पब्लिक स्पेस से ग़ायब हैं. शायद मायावती आश्वस्त हैं अपने कोर वोटर को लेकर जिसे वो क्रिस्टलाइज़ड हुआ पाती हैं. शायद उनको ये भनक लगने लगी है कि एक परिस्थिति में वो किंगमेकर बन सकती हैं! या हो सकता है उनका स्टेट लेवल पालिटिक्स का सपना पूरा हो चुका हो ! आखिर इसके भी तो उदाहरण मौजूद हैं !
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