सुहासिनी गांगुली का जन्म बांग्लादेश के खुलना में हुआ था। उनकी पढ़ाई ढाका में हुई। आगे चलकर उन्हें कोलकाता के एक मूक बधिर बच्चों के स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई। यही वह क्षण था, जब क्रांतिकारियों के शहर कोलकाता आने से उनकी जिंदगी का मकसद ही बदल गया।
एक तैराकी स्कूल में, वह कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता से मिलीं और क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। 1929 में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें इस ओर प्रोत्साहित किया। उनकी बढ़ती सक्रियता और क्रांतिकारियों से मेलजोल, अंग्रेजी पुलिस से ज्यादा दिन तक छुप नहीं पाया। अब उनकी हर हरकत पर नजर रखी जा रही थी। वह जहां जाती थीं, किसी से भी मिलती थीं, कोई न कोई उनपर नजर रख रहा होता था।
एक समय था, जब अंग्रेजी पुलिस चंदननगर की गलियों में भी अपना जाल बिछाने की सोच रही थी और उनके निशाने पर कई नामों के बीच सुहासिनी गांगुली का भी नाम था। एक दिन पुलिस ने छापा मारा, आमने सामने की लड़ाई में जीवन घोषाल मारे गए, शशिधर आचार्य और सुहासिनी को गिरफ्तार कर लिया गया और 1938 तक कई साल उन्हें हिजली डिटेंशन कैम्प में रखा गया। लेकिन लड़ाई अभी थमी नहीं थी। 1942 में कुछ आरोपों की वजह से, उन्हें फिर जेल जाना पड़ा। 1945 में बाहर आईं, तो हेमंत तरफदार धनबाद में एक आश्रम में रह रहे थे, वह भी उसी आश्रम में जाकर रहने लगीं। आज़ाद भारत का सूरज उन्होंने वहीं से देखा था।
साल 1965 में एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। यह एक इत्तिफ़ाक ही है कि जिस दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी पर लटकाया गया था और जिस दिन को हम 'शहीद दिवस'के रूप में मनाते हैं, सुहासिनी गांगुली ने भी इस देश को उसी दिन अलविदा कहा।