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संगीत घराने की कुलदेवी थीं लता / विमल मिश्र

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( लता मंगेशकर जी पर Vimal Mishra भाई का य़ह लेख अवश्य पढ़ लीजिए... इस स्तर के लेख कभी कभार ही पढ़ने को मिलते हैं. )




‘पहला सम पड़ते ही तालियों की बौछार। सभा भवन अचरज और आह्लाद से हक्का - बक्का है। तबलिये ठेका ऐसे लगा रहे हैं, मानो किसी बच्ची नहीं, किसी उस्ताद का साथ दे रहे हों। कोल्हापुर के पैलेस थिएटर की इस संगीत संध्या में जुटे श्रोताओं को क्षण भर के लिए लगता है जैसे कोई तीर सनसनाता हुआ उनका हृदय विदीर्ण कर गया हो। मास्टर दीनानाथ की नौ वर्ष की यह अबोध नन्हीं बालिका ‘शूरा वंदीले’ की अस्थाई गाकर पहले सम पर आते ही संपूर्ण सप्तक लांघ कर लय और स्वर का विकट बोझ संभालती हुई सम पर अचूक आ पहुंची है। अपने इस जादू से बेभान।’ यह कलम है मराठी के विख्यात साहित्यकार पु. ल. देशपांडे की और यह वर्णन है लता मंगेशकर के उस दिव्य गान का, जो उनका पहला ही स्टेज कार्यक्रम था। वह वह अलौकिक सांगीतिक अनुभूति, जो बाद में करोड़ों - करोड़ श्रोताओं तक पहुंची और जिसे वे हमेशा विरासत के बतौर संभाल कर रखेंगे।

अपनी बहन की इस अलौकिकता के बारे में उनकी बहन और कुछ हद तक उनकी प्रतिर्स्धरिणी आशा भोसले ने लिखा है, ‘दीदी एक शापित अप्सरा है, जिसे स्वर्ग से धरती भेजते वक्त विधाता उससे दो चीजें छीनना भूल गए। एक, उनके सिर के घनेरे बाल। दूसरी, उनकी आवाज।’ किंवदंती संगीत पुरुष कुमार गंधर्व लिखते हैं, ‘साधारण लोगों को आज सुर की सूक्ष्मता की समझ है और नन्हें - मुन्ने तक सुर में गुनगुनाते हैं तो यह लता की ही देन है। लता एकमात्र ऐसी गायिका हैं, जो विख्यात शास्त्रीय गायकों की तीन घंटों की रंगदार महफिल का आस्वाद तीन मिनट की ध्वनिमुद्रिका में प्रस्तुत कर सकती हैं। उनका एक - एक गाना संपूर्ण कलाकृति है। ऐसा कलाकार शताब्दियों में शायद एक ही पैदा होता है।’ पु. ल. लिखते हैं, ‘लता के गानों का ‘गानपन’ है विलक्षण है। संगीत की, विशेषकर फिल्म संगीत को लोकप्रियता, उसके प्रसार और उसकी अभिरुचि के विकास का कारण लता ही हैं।’ 

लता ने नूरजहां से ‘मलिकाए - तरन्नुम’ का खिताब संभाला, पर लता महान तब बनीं, जब उन्होंने अपनी स्वतंत्र शैली विकसित की। कोई भी रस उनके कंठ से अछूता नहीं रह गया। आप उनके गाने सुनें ही नहीं, उन्हें याद भी करें तो भी उतना ही सकून मिलेगा। झरनों की कल - कल, नदियों का प्रवाह, पर्वतों की ऊंचाई और सागर के मोती। लता का स्वर गंभीरता, गहराई और रस का विरल संगम था। कुमार गंधर्व के अनुसार लता की अन्य विशेषता थी स्वर की निर्मलता। 60 वर्ष की उम्र में भी 16 वर्ष की षोडषी का गीत उनके कंठ से स्वाभाविक लगता रहा। दरअसल, उनकी शख्सियत के लिए उम्र का पैमाना छोटा पड़ गया था। संगीत का कैसा भी सवाल हो वे पलक झलकाते सुलझा लेतीं। जिस कंठ या मुरकी को निकालने में अन्य गायक - गायिका आकाश - पाताल एक कर देंगे उसका सूक्ष्म भेद भी। कहां पूर्ण विराम लगाना है, कहां नई सांस भरनी है, कहां गति घटानी बढ़ानी है उनका अलौकिक ज्ञान कभी गलती नहीं करता था। अस्थाई, सम, सप्तक, लय, स्वर - उनके कंठ की रसभीनी बयार दूर तक पीछा करती थी। बिजली की तरह एक कण से दूसरे पर चुपके से उड़कर पहुंच जाने वाली लय, उसका विलक्षण संतुलन और नादमय उच्चार। लता के गीतों में शब्द ही नहीं, व्यंजनयुक्त स्वर भी अर्थमय लगते लगते थे। वे ईश्वरप्रदत्त एक मानवीय सुपर कंप्यूटर थीं, जिसमें संगीत का कोई भी सवाल पलों में सुलझा सकने की लियाकत थी। 

दैविक जैसी छवि और विश्व कीर्तिमानों ने लता की सर्वोच्चता के बारे में कभी संदेह नहीं उपजने दिया। कैसा ही फूहड़ और छिछोरी शब्दावली का शब्द हो लता के सुर में ढलकर जैसे इस लोक का नहीं रहता था। अल्हड़, चपला, बालक - बालिका, किशोरी, विरहिणी नायिका, मां, बहन, भाभी, गरीबन मजदूरनी, राजकुमारी से लेकर तवायफ तक-उन्होंने भारतीय नारी के हर रूप क साकार किया है। भूतपूर्व क्रिकेट कप्तान दिलीप वेंगसरकर से एक पुरानी बातचीत याद आती है, ‘मेरी जिंदगी में अवसाद के 


कई क्षण आए हैं और लता के रूहानी स्वर ने ही मुझे उनसे उबारा है।’ । 60 साल बाद भी जिस गीत की आर्त पुकार में आज भी देश के बच्चे - बच्चे की आंखें भिगो जाने की ताकत है तो वह गीत है उनका ‘मेरे वतन के लोगों ...’। सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ देशगीत, जिसे राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान जितना ही सम्मान हासिल है।

आवाज पर इतना गजब का नियंत्रण, फिर भी एकरसता से दूर। लता ने हर रस के गाने गए। इसी कारण हरदम संगीत निर्देशकों की सबसे पसंदीदा गायिका रहीं। 30 हजार से अधिक गीत गाने का विश्व कीर्तिमान उनके नाम दर्ज हुआ। उन्हें ‘भारत रत्न’ इनायत हुआ। फिल्मी और इतर भी - वे जीवन भर बेशुमार पुरस्कारों सहित सफलताओं के शिखर जुटाती रहीं। उन्हें ‘सरस्वती का अवतार’, ‘संगीत का चमत्कार’,  ‘कोकिलकंठी’, ‘गान सरस्वती’ बहुत कुछ कहा गया, पर उनके कद के आगे कोई भी अतिशयोक्ति बौनी लगती रही। डॉक्टर उनके स्वर की मेडिकल प्रापर्टीज पर शोध करते रहे। धीरे - धीरे उनका स्वर देश की राष्ट्रीय संपत्ति बन गया। 

लता का कवच था उनकी निर्मल छवि, चाल - ढाल, शालीनता, निराभिमान और विनम्रता। इनमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी बड़ा योगदान रहा। आर्थिक दुरावस्था के कगार पर उन्होंने जिस तरह अपने परिवार को संभाला था उसी तरह बाद में कितने ही गायकों और संगीतकारों को उनके पैरों पर खड़ा करने में मदद करती रहीं। लोगों को आश्चर्य होता रहा कि इस उम्र में भी कोई आवाज इतनी निर्मल, इतनी कोमल, इतनी मुग्धतामय कैसे हो सकती है! कुमार गंधर्व के अनुसार यह निर्मलता लता के जीवन के प्रति दृष्टिकोण के कारण आई। रेंज के सवाल पर, खासकर बहिन आशा भोसले को लेकर उन्हें भी तुलना का सामना करना पड़ा। रॉयल्टी के कारण मोहम्मद रफी से हुए मनमुटाव के कारण 1964 से 1967 के बीच साथ गाना छोड़ने और मिलती - जुलती आवाज वाली सुमन कल्याणपुर ही नहीं, सगी बहन आशा भोसले के कॅरियर में भी बाधा पहुंचाने के आरोपों को छोड़ दें तो 83 - 84 वर्ष का उनका कॅरियर निर्विवाद ही रहा। उन्होंने फिर साथ गाया और फिर वही जादू जगाने में सफल रहीं। लता जीवन भर गर्दिश के शुरुआती दिनों को भूली नहीं। इसलिए आधुनिकतम प्रविधि जब संगीत विधा में क्रांतिकारी परिवर्तन ले आई है तब भी वे पहले जितना ही रियाज करती रहीं। उन्होंने एक बार कहा था कि उन्हें अपनी कला से ज्यादा अपनी मेहनत पर भरोसा है, और यह भी उनका ‘सर्वश्रेष्ठ’ अभी आना है।’

... पर हमारा ‘सर्वश्रेष्ठ’ तो बीत गया है!  लता के रूप में देश ने जो ताल खोई है वह अब फिर नहीं लौटने वाली।

लेख Navbharattimes गोल्ड में है .


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