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आज़ाद हूँ और आज़ाद ही रहूंगा /चंद्रशेखर आज़ाद

 "गिरफ़्तार होकर अदालत में हाथ बांध बंदरिया का नाच मुझे नहीं नाचना है। मेरी पिस्टल में 8 गोली हैं और 8 की दूसरी मैगजीन भी है। 15 दुश्मन पर चलाऊंगा और 16वीं खुद पर ! लेकिन जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आउंगा। जिंदा रहते हुए अंग्रेज मुझे हाथ भी नहीं लगा पायेंगे। आजाद था, आजाद हूँ और आजाद ही रहूंगा।" - चंद्रशेखर आज़ाद


हिंदुस्तान के इतिहास में आज का दिन स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। यह दिन उस वीर क्रांतिकारी के जीवन का आखिरी दिन था, जिसके नाम से अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारी कांप जाया करते थे। आज के ही दिन 27 फरवरी, 1931 को गुलाम भारत के इकलौते आजाद महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद जी इलाहाबाद में अंग्रेजी फौज से अकेले ही भिड़कर 15 अंग्रेज सिपाहियों को निशाना बनाने के बाद आखिरी गोली को खुद पर चलाकर जिंदा न पकड़े जाने की कसम को पूरा करके वीरगति को प्राप्त होकर देश के प्रति अपना सर्वोच्च बलिदान कर गए थे।


चंद्रशेखर आज़ाद का पूरा नाम चंद्रशेखर तिवारी था। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को UP के उन्‍नाव जिले के बदरका गांव में हुआ था। लेकिन उनका पूरा बचपन MP में बीता। 1922 में उनकी मुलाकात रामप्रसाद बिस्मिल से हुई और वे क्रांतिकारी बन गए। वे मात्र 15 वर्ष की उम्र में असहयोग आंदोलन से जुड़ गए थे। 


एक बार गिरफ्तारी के दौरान जब उनसे मजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा - तो उन्होंने स्वयं का नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता व घर का पता जेल लिखवाया।


चंद्रशेखर आजाद ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन क्रांतिकारी दल का पुनर्गठन किया और भगवतीचरण वोहरा, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि के साथ अंग्रेजी हुकूमत में दहशत फैला दी। आजाद के नाम से अंग्रेजी हुकूमत में इतनी दहशत थी, कि पुलिस की एक्का दुक्का टुकड़ी सूचना मिलने के बाद छापेमारी में भी दहशत खाती थी। वे आजादी के लिए दीवानगी की हद तक जाने व बेखौफ अंदाज दिखाने के लिए मशहूर हो गए थे।


उन्होंने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सरदार भगत सिंह व अन्य साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश अधिकारी JP सॉन्डर्स की हत्या की साजिश रची।


17 जनवरी, 1931 को अंग्रेज सरकार द्वारा उनका पता लगाने वाले को व्यक्ति को 5000 रुपये इनाम देने की घोषणा कर दी गई।


सरदार भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद अब उन्हें फांसी दिए जाने की तैयारियां चल रही थी। चंदशेखर आजाद इसे लेकर बहुत ज्यादा परेशान थे। वह जेल तोड़कर भगत सिंह को छुड़ाने की योजना बना चुके थे, लेकिन भगत सिंह जेल से इस तरह बाहर निकलने को तैयार नहीं थे। परेशान चंदशेखर आजाद हर तरह से भगत की फांसी रोकने का प्रयास कर रहे थे। आजाद अपने साथी सुखदेव आदि के साथ इलाहाबाद के आनंद भवन के नजदीक अल्फ्रेड पार्क (वर्तमान में आजाद पार्क) में बैठे थे। वहाँ वह आगामी योजनाओं के विषय पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे, कि आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की सूचना अंग्रेजों को दे दी गई। मुखबिरी मिलते ही अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को घेर लिया। अंग्रेजों की कई टुकड़ियां पार्क के अंदर घुस आई व पूरे पार्क को बाहर से भी घेर लिया गया। उस समय किसी का भी पार्क से बचकर निकल पाना मुश्किल था, लेकिन आजाद यूं ही आजाद नहीं बन गए थे। अपनी पिस्टल के दम पर उन्होंने पहले अपने साथियों को पेड़ों की आड़ से बाहर निकाला और खुद अंग्रेजों से अकेले ही भिड़ गए। हाथ में मौजूद पिस्टल और उसमें रही 8 गोलियां खत्म हो गई। आजाद ने अपने पास रखी 8 गोलियों की दूसरी मैगजीन फिर से पिस्टल में लोड कर ली और रुक रुक कर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते रहे।


चंद्रशेखर आजाद ने जितनी भी गोलियां चलाई, हर बार अचूक निशाने पर लगी और कोई न कोई वर्दीधारी मारा गया। दहशत के कारण अंग्रेज भी पेड़ों की आड़ में छुप चुके थे। एक अकेले क्रांतिकारी के सामने सैकड़ों अंग्रेज सिपाहियों की टोली बौनी साबित हो रही थी। चंदशेखर आजाद ने 15 वर्दीधारियों को अपना निशाना बना लिया था, लेकिन अब उनकी गोलियां खत्म होने वाली थी। चंदशेखर आजाद ने अपनी पिस्टल चेक की, तो अब सिर्फ एक गोली बची हुई थी। वह चाहते तो एक और अंग्रेज अधिकारी को गोली मार सकते थे, लेकिन उन्होंने कसम खाई थी, कि जीते जी उन्हें कोई भी अंग्रेज हाथ नहीं लगा सकेगा। इस कसम को पूरी करने के लिए आखिरकार उस महान योद्धा ने वह फैसला लिया, जिससे वे हमेशा के लिए आजाद हो गए। चंद्रशेखर आजाद ने पिस्टल की आखिरी गोली अपनी कनपटी पर चला दी और वहीं पेड़ के नीचे हमेशा के लिए शांत होकर अमर हो गए।


जब आजाद की ओर से गोलियां चलनी बंद हुई और लगभग आधे घंटे तक जब एक भी गोली नहीं चली, तो अंग्रेज सिपाही धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, लेकिन आजाद का खौफ इस तरह था कि एक - एक कदम आगे बढ़ने वाले सिपाही जमीन पर रेंगते हुए अब आजाद की ओर बढ रहे थे। पेड़ के नीचे आजाद के पास पड़े पत्ते भी हवा से हिलते, तो अंग्रेज सिपाही डरकर दूर हो जाते। आजाद के मृत शरीर पर जब अंग्रेजों की नजर पड़ी, तो उन्होंने राहत की सांस ली। लेकिन अंग्रेजो के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था, कि किसी को भी उनके मृत शरीर के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी। उनके मृत शरीर पर भी गोलियाँ चलाई गयी और जब अंग्रेज आश्वस्त हुए, तब आजाद की मृत्यु की पुष्टि हुई। 


यह आज भी कई किताबों में लिखा है, कि आजाद की मुखबिरी एक बड़े नेता ने की थी और यह राज आज भी भारत सरकार के पास सुरक्षित फाइलों में दफन है।


आज उस महान आत्मा, महान स्वतंत्रता सेनानी की पुण्यतिथि है, हालांकि कुछ स्वार्थी लोग उन्हें भूलते जा रहे हैं। उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि व शत शत नमन 🙏


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