हमने फेसबुक की जिन गलियों में रहते हुए लिखना सीखा और धीरे-धीरे मीडिया, सिनेमा,संस्कृति के मसले पर अकादमिक और रिसर्च की दुनिया में गुम होते जा रहे हैं, सच पूछिए तो हम आख़िर-आख़िर तक अपनी इस बदनाम बस्ती में बने रहना चाहते हैं. यह जानते हुए कि ये दुनिया बेहद चाट, नकली और कई बार मन को तार-तार कर देनेवाली हो गयी है.
शुरु-शुरु में ब्लॉगिंग करते हुए जब हम यहां आए तो तेजी से हमारा लोगों से परिचय बढ़ा, कुछ से मिलना-जुलना भी हुआ. अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी में रह रहे प्रवासी भारतीय जब भारत आते तो वो हमारे लिए चॉकलेट लेकर आते और हम चॉकलेट से कई गुना ज़्यादा पैसे लगाकर एयरपोर्ट पर उनसे मिलने और लेने चले जाते. हम एक-दूसरे को बिल्कुल नहीं जान रहे होते, न ही वो हमारे रिश्तेदार होते. बस हमारे बीच एक तार होती कि हम देवनागरी में लिख रहे होते. बनारस, इलाहाबाद, पटना,जयपुर चेन्नई...जैसे शहरों में जाते और अपडेट करते कि यहां आया हूं तो उसके बाद से होटल का खाना खाने की ज़रूरत ही न पड़ती. कई बार तो होटल का कमरा तक छोड़ देते और उनके ही साथ हो लेते. बस वही एक तार कि हम हिन्दी में, देवनागरी में लिखनेवाले लोग हैं. हमें अच्छा लगता. घर छोड़कर आए हुए हम जैसे लोग पूरे देश में किस्तों में, टुकड़े-टुकड़े में घर को महसूस करते.
वक़्त बदला. धारदार लेखन का पर्याय बनी ये दुनिया देखते-देखते खेमेबाजी, दोहरेपन और ख़ुश करने, चाटुकारिता की हद तक उतर आने का अड्डा बनता गया. लिखने और जीने का अन्तराल साफ दिखने लगा. देशभर के शैक्षणिक-अकादमिक संस्थानों से जुड़े लोगों ने इसे गुरुजी को ख़ुश करने का पीठ बनाने में लग गए. कारोबारी मीडिया ने इसे पैसे झोंककर जिस तरह से इसे राजस्व का नया ठिकाना बनाया, सालों से पहचानी जानेवाली आंखें नज़र चुराने लग गए. मैंने ग़ौर किया जब उनकी नौकरी छूटती तो पोस्ट लाइक करते, कमेंट करते, नौकरी लगने पर एकदम से ग़ायब कि कहीं बॉस नाराज़ न हो जाय. खुली दिखनेवाली दुनिया बंधी-फंसी सी होती गयी और तब हम जैसे हजारों लोग यहां होकर भी मन और आत्मा से इससे अलग होते चले गए.
हमें सोशल मीडिया की ये बस्ती बहुत अपनी सी लगती रही है. सबकुछ बदल जाने के बावज़ूद यहां बने रहने का मन होता है. लिहाजा व्यस्त होने के बावज़ूद कतर-ब्यौत करके समय निकालते हैं. लिखने-बोलने के पैसे नहीं मिलते लेकिन बने रहने की कोशिश करते हैं. हम बेवक़ूफ लोग नहीं हैं. हम जानते हैं कि हमारे घर का चूल्हा क्या करने से जलता है ? हम यहां कॉमिक रिलीफ के लिए आते हैं.
दिल्ली जैसे शहर में सतरह-अठारह घंटे काम करते रहने के बीच मन में बहुत कुछ जमता चला जाता है, हम उसे लिख-बोलकर निकाल देना चाहते हैं. मैं तो यहां लिखते हुए भी बोल ही रहा होता हूं. एक बार लिख लेने के बाद हल्का सा लगता है. उसके बाद हमें कुछ नहीं चाहिए होते हैं.
सोशल मीडिया पर जिस इरादे से सक्रिय होने की हमें सलाहियत दी जाती हैं, वो हमें नहीं चाहिए होते हैं. सभा-संगोष्ठी के लिए बुलाया जाना, चर्चा में बने रहना, छिटपुट लाभ हासिल कर लेना, ये सब हमें थकानेवाली चीज़ लगती है. सच पूछिए तो लोगों से मिलने-जुलने में सबसे ज़्यादा थकान होती है. ये वर्चुअल स्पेस है, हम वर्चुअली ही जुड़े रहना चाहते हैं. हमारी ख़ुद की ज़िंदगी ऐसी है नहीं कि उसे असल ज़िंदगी में शामिल कर सकें. ऐसे में कई बार हम इस घबराहट से भी डिजिटल डिटॉक्स के नाम पर दूर चले जाते हैं कि हम इसे निभा ही नहीं सकते.
आज कई दिनों बाद एक पोस्ट लिखी. लिखने के बाद इनबॉक्स में कई मैसेज आए. उनमें से एक पत्रिका के संपादक का भी संदेश आया. आग्रह यह कि मैं पोस्ट में लगायी गयी तस्वीर की मूल प्रति उन्हें मेल करूं जिसे कि वो पत्रिका का आवरण चित्र बना सकें. साथ ही वो मेरी पोस्ट प्रकाशित कर सकें. मैंने उन्हें लिखा- ये सब करने के लिए हमें कितना मानदेय( ऑनरेरियम ) मिलेगा ?
आप चाहें तो मुझे कह सकते हैं कि मैंने लिहाज छोड़ दिया है और बेशर्म हो चला हूं लेकिन आप जब कॉमिक रिलीफ, लीजर पीरियड का मतलब समझने के लिए तैयार ही नहीं है तो फिर मुझमें लिहाज कैसे रह जाएगा.
थियोडॉर एडोर्नों की एक किताब है- The Culture Industry. ये किताब दरअसल मास कल्चर पर उनके लिखे गए निबंधों का संग्रह है. इसी में उनका एक लेख है- Free Time. मौक़ा मिले तो कभी पढ़िएगा. एडोर्नो बहुत स्पष्टता के साथ बताते हैं कि ख़ाली समय में कैसे सांस्कृतिक उत्पाद बनाए जाते हैं जो कि पारंपरिक पूंजी से कहीं ज़्यादा बड़ी पूंजी तैयार करते हैं.
हम जैसे लोग ख़ाली समय को पैसे में बदलना जानते हैं.
आप जिसे सरोकार और मानवीय सहयोग के नाम पर हमसे जो झटकना चाहते हैं, बाज़ार की भाषा में उसे कन्सलटेंसी कहते हैं. बाज़ार जहां हर दूसरी चीज़ बेची-खरीदी जा सकती है. हमने अभी अपने इस समय को बेचना शुरु नहीं किया है.
जिस दिन बेचना शुरु करेंगे, अपनी शर्तों पर क़ीमत तय करेंगे. जब तक यूं ही लिख-बोल रहे हैं, एन्ज्वॉय कीजिए. आग्रह बस इतना है कि बेवक़ूफ मत समझिए और न यह कि समाज के नाम पर अपनी दूकान सजायी जा सकती है.
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यह सोच बहुत पीछे छूट गयी है. पढ़िएगा न कभी एडोर्नो को और उससे पहले वेब्लेन की The Theory of Leisure Class, आपको मेरी बात और ठीक से समझ आएगी.