यकीन करने का मन तो नहीं होता, लेकिन युद्ध में सब कुछ संभव है। यह भी कि रूसी महिलाएँ अपने सैनिक पतियों को यूक्रेनी महिलाओं के बलात्कार के लिए प्रेरित करें। यदि ऐसा है, तो मानना होगा कि यह युद्ध न्याय और सत्य के लिए नहीं, घृणा और बर्बरता के ऋणशोधन के लिए लड़ा जा रहा है! देशभक्ति नहीं, मानवद्रोह इसके मूल में है!
माना कि युद्ध एक अनिवार्य बुराई है, लेकिन जब वह उन्माद बन जाता है, तो मनुष्यता को बचाने के लिए उसे रोकना सारे सभ्य समाज की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने की ईमानदार कोशिश किसी ओर से होती दिखाई नहीं दे रही। जो ऐसी कोशिश कर सकते थे, वे आग में घी डालने में लगे हैं! यह रूस और यूक्रेन के हित में तो है ही नहीं, शेष विश्व के हित में भी नहीं है कि दोनों देश न तो झुकने के लिए तैयार हैं, न ही बातचीत के जरिए शांति स्थापना के लिए कोई प्रयास कर रहे हैं। इस बीच युद्ध के दौरान क्रूरता के अलावा यौन हिंसा की जो खबरें आ रही हैं, वे मानव जाति को कलंकित करने वाली हैं। रणनीतिक तटस्थता के बावजूद किसी को भी युद्ध का समर्थन करने वाले 80 प्रतिशत रूसियों की इस बीमार मानसिकता की निंदा ही करनी चाहिए कि वे यूक्रेनी महिलाओं के साथ रूसी सैनिकों के बलात्कार को जायज़ मानते हैं! भुक्तभोगी महिलाओं का यह आरोप हमलावरों की बर्बरता का प्रमाण है कि रूसी सैनिक हत्यारे हैं, हमेशा नशे में धुत रहते हैं, उनमें से ज्यादातर बलात्कारी और लुटेरे हैं!
नफरत और नासमझी भरा यह युद्ध फौरन बंद होना चाहिए। वैसे तो युद्ध में बलात्कार के एक हथियार की तरह इस्तेमाल का अनुमोदन मानव सभ्यता ने कभी नहीं किया। लेकिन तमाम युद्धों में बर्बर फौजें ऐसा करती आई हैं। यह दुनिया का सबसे पुराना और बदनाम युद्ध-अपराध है। वही संभवतः यूक्रेन में भी हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र का गठन दुनिया को ऐसी अमानवीयता से बचाने के लिए ही किया गया था। लेकिन उसके पास भी युद्धोन्माद का कोई तोड़ नहीं है। उसका काम चिंताhh प्रकट करने तक ही सीमित रह गया लगता है।
सयाने बता रहे हैं कि यूक्रेन में पिछले छह हफ़्तों से अधिक समय से जारी युद्ध का महिलाओं और लड़कियों पर भीषण असर हुआ है और एक पीढ़ी के बरबाद हो जाने का जोखिम है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार युद्ध शुरू होने के बाद जान बचाकर भागने वाली हर पाँच में से एक महिला या लड़की को यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। महिलाओं और लड़कियों के साथ बीच रास्ते में या शरणार्थी कैंपों में हैवानियत हुई है। बुचा और मारियुपोल में महिलाओं से ज्यादती के मामले सामने आए हैं। युद्ध के कारण दूसरों पर निर्भर रहने वाले लोगों में से 54 प्रतिशत महिलाएँ हैं। संयुक्त राष्ट्र की वरिष्ठ अधिकारी प्रमिला पैटन ने सुरक्षा परिषद में कहा तो ज़रूर है कि महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार हैं और युद्ध व शान्ति के समय में समान रूप से सार्वभौमिक हैं। लेकिन इनका उल्लंघन रोकने की कोई शक्ति उनके पास भी नहीं है। उनका काम तो शायद निगाह रखना भर है। सो, उन्होंने राजदूतों से, संघर्ष और युद्ध संबंधी यौन हिंसा के मामलों में जवाबदेही सुनिश्चित करने का आग्रह किया है।
सवाल वहीं का वहीं है कि युद्धरत दोनों पक्षों को समझौते की मेज पर लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र क्या कुछ भी नहीं कर सकता! क्या एक पक्ष पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना और दूसरे पक्ष को हथियार मुहैया कराते रहना वास्तव में किसी भी लिहाज से शांति-प्रयास है? 000