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लालमुनी चौबे पर शिवानंद झा

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 कल मेरे पुराने मित्र लालमुनि चौबे की बेटी का विवाह हुआ. जहां तक मुझे स्मरण है, 62 या 63 में चौबे जी से पहली मुलाक़ात काशी विश्वविद्यालय में ही हुई थी. उन दिनों मैं आरा जैन कॉलेज का विद्यार्थी था. हमारी मुलाक़ात के माध्यम थे भभुआ के रामगोबिंद तिवारी. पता नहीं कैसे भटकते हुए रामगोबिंद जैन कॉलेज चले आए थे. उन्हीं के माध्यम से बनारस और भभुआ से मेरा संपर्क बना जो आज तक कायम है.

लालमुनि आजीवन जनसंघ और भाजपा से जुड़े रहे. लेकिन स्वभाव से वे जाति और धर्म से हमेशा निरपेक्ष रहे. बनारस से मेरा परिचय लालमुनि चौबे ने ही कराया. 72 में विधायक बनकर पटना आए. अभी जहां जदयू का दफ़्तर है वही उपर वाला फ़्लैट विधायक के रूप मे उनको आवंटित हुआ था. पटना के जनसंघी नेताओं से उनका लगाव बहुत कम था. कैलाश जी या अश्विन जी की वे बहुत इज़्ज़त करते थे.

पटना तो आ गये. लेकिन यह शहर उनके लिए लगभग अपरिचित जैसा ही था. पटना मे उनका पुराना और अनौपचारिक संबंध उस समय तक मेरे ही साथ था. अतः पटना में उनका दूसरा घर श्रीकृष्ण पुरी वाला मेरा फ़्लैट बन गया. मेरी श्रीमती जी यानी बिमला जी उनकी भौजाई नहीं, मालकिन बन गईं. 

दरअसल 72 में ही बाबूजी से अलग होकर श्रीकृष्ण पुरी वाले मकान में मैं आ गया था. एम 3 टाइप का मकान था. जगह की पर्याप्त थी और हमारा वह घर कम्यून बन गया था. जिन मित्र को रहने का कोई ठौर नहीं मिलता था तो वह वहीं आ जाता था.

चौबे, विधायक तो बिहार विधानसभा के बन गये थे. लेकिन उनके मन की राजधानी तो पटना नहीं, बनारस ही थी. पटना में जब भी रहते दस-ग्यारह बजे तक मेरे यहाँ आ जाते थे. उसके बाद तो रसोई घर पर उनका क़ब्ज़ा हो जाता था. बच्चे दाढ़ी चाचा के सहायक बन जाते थे. कभी मुर्ग़ा तो कभी मछली. मछली ज़्यादा. लेकिन सब्ज़ी भी आला दर्ज़े का बनाते थे. उनके रसदार लहसुनसग्गा के साथ भात  खाने का स्वाद याद करके अभी भी मुँह में पानी आ जाता है.

लालमुनि चौबे और मेरे बीच नज़दीकी का एक और आधार था. हम दोनों शास्त्रीय संगीत के प्रेमी थे. एक दिन की बात है. बोरिंग रोड चौराहे के एक कोने पर बनारसी की पान दुकान थी. हम और चौबे साथ ही थे. वहाँ किसी ने बताया कि बनारस के अमुक हॉल में आज रविशंकर और विलायत खाँ की युगलबंदी होने वाली है. उस समय तक हम लोग यही जानते थे कि इन दोनों महान कलाकारों के बीच कभी जुगलबंदी हुई ही नहीं है. बस क्या था ! यह ऐतिहासिक मौक़ा क्यों चूका जाए ! उस समय एकमात्र गाड़ी तूफ़ान एक्सप्रेस ही थी. लगभग बारह बजे रात हम मुगलसराय उतरे. वहाँ से टेम्पो पकड़कर उस हॉल में पहुँचे जहाँ वह कार्यक्रम होने वाला था. पता चला कि हम लोग अफवाह के चक्कर मैं इतना झंझट और परेशानी उठाकर यहाँ पहुँचे हैं. वहाँ पंडित भीमसेन जोशी का कार्यक्रम समाप्त हो रहा था. समापन में वे ‘जो भजे हरि को सदा’ अपना प्रसिद्ध भजन गा रहे थे. उस दिन शायद उनके गले में सरस्वती उतर आईं थीं! वह भजन उन्होंने ऐसा गाया कि हम सब लोग उसमें डूब गए. भले हमलोग पं. रविशंकर और विलायत खां साहब की युगलबंदी नहीं सुन सके लेकिन पं. भीमसेन जोशी के भजन ने हमें तरोताज़ा कर दिया.

चौबे के विधायक बनने के दो वर्ष बाद ही चौहत्तर का आंदोलन शुरू हो गया. आंदोलन के दरम्यान जब जेपी ने आंदोलन समर्थक दलों के विधायकों को विधानसभा से त्यागपत्र देने का निर्देश दिया तो चौबे उन चंद लोगों में थे जिन्होंने जेपी की पहली आवाज़ पर विधानसभा से इस्तीफ़ा दे दिया था.

आंदोलन के दरम्यान मैं बिहार के कार्यक्रमों में व्यस्त हो गया. चौबे भभुआ और बनारस में आंदोलन का अलख जगा रहे थे. इमरजेंसी में वे बनारस जेल में थे और मैं पटना के फुलवारी शरीफ में. हम दोनों के बीच नागी जी कड़ी थे. दोनों की ज़रूरतों को पूरा करने की जवाबदेही नागी जी यानी नागेंद्र सिंह पर थी. वे भी ग़ज़ब के समर्पित मित्र थे.

आपातकाल के बाद हुए चुनाव में चौबे जी पुनः विधायक बने. इस मर्तबा आर ब्लॉक में थोड़ा बड़ा घर मिला. इस बीच पटना में उनका दायरा फैलने लगा था. हमारे सभी मित्र उनके भी मित्र बन गये . उसी चुनाव में अरुण (बसावन) भी लालगंज, वैशाली से विधायक हुआ था. वह भी चौबे से गहरा जुड़ गया. इसी समय कर्पूरी जी की जगह रामसुंदर जी मुख्यमंत्री बन गये. चौबे जी उस मंत्री मंडल में मंत्री बन गए. उसके बाद अभी जो भाजपा का कार्यालय है, वह मकान उनको आवंटित हो गया. वहाँ जिस तरह की बैठकी होने लगी वह चौबे के व्यक्तित्व के विस्तार को ही प्रतिबिंबित करता है. गफ़ूर साहब (अब्दुल गफ़ूर) तो जब भी पटना मे होते थे दो-चार घंटा तो उनका वहाँ बीतता ही था. विख्यात पत्रकार सुरेंद्र प्रताप , कवि आलोक धन्वा और दो एक दफा एम जे अकबर भी वहाँ की बैठकी में शामिल हुए थे. गिरिराज चौबे जी की बैठकी में उस समय ‘अप्रेंटिस’ था. लालमुनि चौबे के सामाजिक सरोकार का दायरा बहुत विस्तृत था. उस दायरे में जनसंघ या भाजपा के लोग कम दिखाई देते थे. समाजवादी या उदारवादी ज़्यादा.

लालमुनि चौबे के साथ मैंने बक्सर लोकसभा का चुनाव दो बार लड़ा. पहला चुनाव 99 में. लालू जी स्वयं मेरा नामांकन कराने गये थे. उस चुनाव में ग्यारह बारह हज़ार वोट से हार गया था. अटल जी की सभा और उसमें उनके भाषण ने मुझे हरा दिया था. दूसरा चुनाव तो मैं बुरी तरह हारा था. राजद का आधार वोट यानी यादव वोट ही मुझे नहीं मिला. लोकतंत्र मे चुनाव कैसे लड़ना चाहिए यह उन दोनों चुनावो से सीखा जा सकता है. हम दोनों ने चुनाव अभियान के अपने भाषण में कभी एक दूसरे का नाम तक नहीं लिया. अभियान के दरम्यान आमना-सामना होने पर रूक कर बतिया लेने में भी कभी हमलोगों ने संकोच नहीं किया. वोट की गिनती के समय हम रिटर्निग अफसर के कमरा में चाय पान साथ ही कर रहे होते थे.

लंबे राजनीतिक जीवन में चौबे जी की ईमानदारी पर कभी उँगली नहीं उठी. चौबे ने ‘लोग’ कमाया है. उनकी बेटी के विवाह में लगभग सभी पार्टी के लोग थे. उनको चाहने वालों ने उनकी कमी का एहसास ही होने नहीं दिया. रविंद्र किशोर बाप की भूमिका में थे. उन्हीं के दरवाज़े पर बारात आई. सारा इंतज़ाम उनका था. स्वभाविक है कि भाजपा के लोगों की उपस्थिति ज़्यादा थी. विधानसभा में विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव भी उपस्थित थे. मनोज सिन्हा कश्मीर मे गवर्नर हैं. इस विवाह के लिए ही वे पटना आए थे. कांग्रेस पार्टी के लोग भी नज़र आए. नीतीश कुमार की पार्टी के लोग भी थे. चौबे जी का बेटा शिशिर उनके छोड़ी जवाबदेही का सबके सहयोग से अच्छी तरह निर्वहन कर रहा है.

चौबे को गये काफ़ी दिन हो गये. कभी उनपर लिखा नहीं था. कल विवाह के समय उनकी बहुत याद आईं. अपने प्यारे और ज़िंदादिल मित्र की स्मृति को प्रणाम करता हूँ.

तस्वीर दीपक की है.


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