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सफर रेल का / रेहान फ़ज़ल

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'सफ़र रेल का'


अगर वक्त की कोई पावंदी न हो तो आज भी हम ट्रेन से ही सफ़र करना पसंद करें. ट्रेन का सफ़र हमारा हमेशा से सबसे पसंदीदा सफ़र है. ट् इसके ज़रिए न सिर्फ़ आप हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों, गांव  - देहात का जायज़ा ले सकते हैं बल्कि आम हिंदुस्तानियों के बिहेवियर पैटर्न की भी स्टडी कर सकतें हैं. आम फ़हम की बिहेवियर पैटर्न स्टडी हमारी ख़ास दिलचस्पियों में शामिल है! 

 पब्लिक प्लेस पर आप घंटों बग़ैर बोर हुए अकेले गुज़ार सकते हैं बस एक कोने में बैठे बैठे आम लोगों को आब्ज़र्व करते रहिए.  ऐसे में सोशिओ - इकॉमोमिक स्ट्रक्चर, कास्ट और रिलिजस बेसिस पर बिहेवियर पैटर्न की मज़ेदार स्टडी भी की जा सकती है. और इसके लिए ट्रेन से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती. 

हिन्दी साहित्य के यात्रा वृत्तांतों में ट्रेन के सफ़र का ख़ासा असर रहा है. शिवानी की कहानियां हों, शरद जोशी के व्यंग हों या अज्ञेय के क़िस्से, ये कहीं न कहीं रेल सफ़र के भी हिस्से रहे हैं. प्रख़्यात घुमक्कड़ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने यात्रा वृतांत ज़रूर ट्रेन के सफ़र के दौरान भी लिखे/प्लान किए होंगे! हिन्दी और ऊर्दू ही नहीं तक़रीबन हर ज़ुबान के अदब में रेल जर्नीज़ का ख़ासा रोल है. 

सही सही याद नहीं कि ट्रेन से पहला पहल सफ़र कब किया था! शायद 4 , सवा 4 साल के रहे होंगे तब जब मुन्नू चाचा की शादी में कानपुर से गोंडा पूरी बोगी में बारात के साथ गए थे. बहुत छोटी छोटी इमेजेज़ हैं लेकिन साफ़ हैं ! मसलन बोगी के पूरे गलियारे में अपने बड़े भाई के साथ दौड़ लगाने की या फिर मुन्नू - चुन्नू चाचा के कूपे में घुसने और वहां से भगाए जाने की! शुरु शुरू की ट्रेन की यादें अपने वालिद के साथ की हैं . फर्स्ट क्लास का कूपे सबसे ऊंचे दर्जे का होता था. कूपे ख़ासा बड़ा होता था जिसमें वुड पैनेलिंग के साथ साथ शायद अटैच्ड वॉशरूम भी होता था. पता नहीं हिन्दुस्तान में तब एसी कोच की ईजाद हुई भी थी कि नहीं लेकिन अगर हो भी गई हो तो हमारे ननिहाल सुल्तानपुर की गाड़ियों में तो एसी कोच नहीं ही होते होंगे. तब ट्रेनों में तीन क्लास ही होते थे. सबसे ऊपर फर्स्ट क्लास उसके बाद सेकेंड जिसमें हरे रंग की रैक्सिन चढ़े मोटे गद्देदार  सीटें होती थीं और सबसे निचला क्लास, लकड़ी के फट्टों की सीटों वाला, थर्ड या जनरल क्लास. अब थर्ड क्लास रिजर्व क्लास है और जनरल अनरिजर्व. पहले फ़र्स्ट को छोड़कर शायद सब अनरिज़र्व होता था. कोई भी टिकट लेकर बैठ सकता था. इतनी भीड़ नहीं थी और टिकट और सीट ट्रेन छूटने के वक्त विंडों से भी मिल जाते थे. 

बचपन में तो शायद ही कभी थर्ड या जनरल क्लास में बैठें होंगे लेकिन जवानी में पूरे पांच छह साल जनरल क्लास में ही सफ़र किया. कभी मूड हुआ तो टिकट लेकर वरना प्लेटफ़ार्म टिकट से ही काम चलाया. जेएनयू में स्टे के दौरान तक़रीबन हर महीने -  डेढ़ महीने में दिल्ली से इलाहाबाद आना होता था. इसके लिए हॉस्टल से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जल्दी पहुंच कर सीधे गदहइय्या लाइन ( वाशिंग लाइन) पर खड़ी प्रयागराज एक्सप्रेस के जनरल कोच में ऊपर की बर्थ पर,जहां पंखा बेहतर चलता ,हो कब्ज़ा जमा लेते थे. इस ट्रेन में इतना सफ़र किया कि कमोबेश सारे टीटीई पहचानते थे टिकट पूछने की नौबत ही नहीं आती. कुछ टीटी तो दोस्त हो गए थे जो आंख फाड़ फाड़ कर हमसे जेएनयू के सच्चे झूठे क़िस्से सुनते और रास्ते के स्टेशनों से फेरी वालों से पूड़ी सब्ज़ी चाय वगैरह का बाक़ायदा इंतज़ाम भी करते! टीटी से  दोस्ती यारी का सबसे अच्छा तरीक़ा उसके साथ मिल कर बेइंतिहाशा भीड़ भरे डिब्बे में टिकट चेकिंग में मदद का था. कुछ टीटी तो इतने दोस्त हो गए थे कि बर्थ ख़ाली होने पर एसी में लिटा कर भी लाए . एक दफ़ा हमने यूं ही शरारतन एक टीटी से कह दिया कि जाड़ा बहुत है हो सके तो होस्टल तक बस में जाने के लिए चदरे का जुगाड़ कर दो तो उसने कहा , 'चुपचाप कंबल उठा लीजिए और निकल लीजिए. हर जर्नी में एकाध ग़ायब हो ही जाते हैं!'उस टीटी की बातों ने हमारी इतनी हौंसला अफ़जाई की कि कुछ महीनों बाद हमारे हॉस्टल रूम में नादर्न रेलवे के चदरे, तकिए के गिलाफ़ और कंबल नज़र आने लगे! पता नहीं वो कैसी उम्र थी? कैसी ज़हनियत थी कि इस छोटी मोटी चोरी चकारी को अपनी शान मानते थे! हमारे एक मामू ज़ाद भाई हैं. कुछ समय पहले ही कमिश्नर होकर रिटायर हुए हैं. बड़े दिलचस्प और बेहतरीन इंसान हैं. जवानी में अपने मामू की बारात में गए तो ख़ातिरदारी में कोताही उनसे बर्दाश्त न हुई और विदाई के वक्त जनवासे के सारे बल्ब ही निकाल लाए!.

ट्रेन में सफ़र के दौरान सबसे मज़ेदार विज़ुअल्स बीच के स्टेशनों पर चढ़ते लोगों की बदहवासी के होते हैं! उसमें मियां बीवी के झगड़ों से लेकर सवारियों की पुलिटिकल बहस देखने सुनने लायक़ होती हैं. बिहार और गोरखपुर के बाद सबसे ज़्यादा बहसी लोग कानपुर के होते हैं जो हर हालत में अपनी बात मनवा कर ही छोड़ते हैं. 

 एक बार लखनऊ से दिल्ली गोमती एक्सप्रेस से आ रहे थे रास्ते में जब इटावा आया तो एक मुसलमान औरत प्लेटफार्म पर उतर कर गिलास में पानी ले आई और अपने दो ढ़ाई साल के बच्चे को पिलाते हुए बोली, 'लो मुलायम सिंह के शहर का पानी पी लो!'हमें तब ही यक़ीन हो गया कि आने वाले 50 सालों तक मुलायम सिंह से मुस्लिम वोट बैंक कहीं खिसकने वाला नहीं! इस बात को आज 35  - 37 साल हो गए हैं.

सबसे दिलचस्प सफ़र दिल्ली से रायपुर राजधानी एक्सप्रेस का 2005 का रहा. हमें एशियन ब्राडकास्टिंग यूनियन के लिए एक स्पेशल स्टोरी करनी थी. स्टोरी राजनांदगांव की एक ग्रामीण महिला फुलबासिन की भी. फुलबासिन ने गांव की महिलाओं का छोटा समूह बनाकर एक माइक्रो बैंक बनाया था. फुलबासिन पर मेरी स्टोरी टीवी की पहली स्टोरी थी. जिसको चाइनीज़ पब्लिक ब्रॉडकास्टर ने ख़ासा हाईलाइट किया था. उसके कई साल बाद फुलबासिन को पदमश्री से नवाज़ा गया और अमिताभ बच्चन ने केबीसी में बुलाया. बहरहाल इस स्टोरी के लिए हमें रायपुर जाना था. पता नहीं क्यों हमने राजधानी से जाना तय किया जब कि जहाज़ से जा सकते थे. राजधानी में दिल्ली से हमारे साथ रायपुर के एक लोकल पत्रकार चढ़े. वो किसी एमपी के रेलवे टोकन्स पर सफ़र कर रहे थे. उन्होनें हमसे हमारा तार्रफ़ पूछा और राजनांदगांव जाने की वजह.जब हमने बताया कि एशियन ब्राडकास्टिंग यूनियन के लिए माइक्रो फाईनेंस प्रोजेक्ट पर स्पेशल स्टोरी करनी है तो उसके कुछ पल्ले नहीं पड़ा. उसने कहा, 'राजनांदगांव तो पूरी तरह से नक्सल एरिया है. सिक्योरिटी लेकर जाइएगा.'हमें लगा कि कितने अफ़सोसनाक हालात हैं कि एक लोकल पत्रकार भी ग़रीब ट्राइबल एरिया में कुछ अच्छा नहीं देखता. बस उसे नक्सल कह कर ख़ारिज कर देता है. ग़रीब पिछड़े ट्राइबल एरिया के प्रति ये एक आम नज़रिया है जो कभी बदलने वाला नहीं! बहरहाल उस पत्रकार ने हमारे सरकारी स्टेट्स को ताड़ लिया और हमारे साथ साथ रायपुर तक अपने सफ़र का बेहतर जुगाड़ बिठा लिया. एसी टू  की चार बर्थ वाले कूपे में हम दोनों थे उसके अलावा दो और पैसेंजर को आना था. ट्रेन में एसी टू का एक कूपे दो बर्थ वाला भी था. पता नहीं टी टी को क्या वरगला कर उन मौसूफ़ ने दो बर्थ वाले कूपे के पैसेंजर्स को हम लोगों की सीट पर ट्रांसफर करवा दिया और हमारे साथ दो बर्थ वाले कूपे में शिफ़्ट हो लिए. हमने जब उनसे पूछा कि कैसे बर्थ चेंज करवा ली तो बोले, 'बस टीटी से कह दिया जो साहब साथ में ट्रैवेल कर रहें हैं वो नक्सल एरिया का बहुत सीक्रेट डाक्यूमेंट ले जा रहें हैं और हम इनके साथ हैं लिहाज़ा हम लोगों को किसी तरह सेपरेट कूपे में अलग बिठाइए!' 

ट्रेन नई दिल्ली से कुछ दूर ही चली कि वो महाशय ग़ायब हो गए. थोड़ी देर बाद अपने साथ एक अटैंडेंट लेकर अवतरित हुए जिसे उन्होनें कहीं से निकलवा कर हमारी सेवा में लगवा दिया था. शाम होते ही बैरा चाय नाश्ता लेकर आया तो उन्होनें चाय उठाकर गलियारे में फेंक दी. बहुत ज़ोर से चिल्लाते हुए बोले, 'सर प्लाटिक के गिलास में चाय पियेंगे और ये सड़ा नाश्ता करेंगे? जाओ सेट में चाय लाओ और एसी वन वाला नाश्ता सर्व करो!'बैरा भाग गया और काफ़ी देर तक जब नहीं आया तो हमनें कहा,  'आपने नाहक़ वापस कर दिया.'तो जवाब दिया, 'थोड़ी देर रुक जाइए. सब आएगा!' 

क़रीब 20 मिनट बाद दो टीटी आए उनके पीछे पीछे पैंट्री का एक आदमी था जिसके हाथ में सेट की चाय और नैपकिन से ढंका नाश्ता था. उसने टीटी से कहा, 'सब अच्छे काम की रिपोर्ट रेल मंत्रालय को जाएगी. सर कुछ कहते नहीं लेकिन इनके आदेश पर मैं ही रिपोर्ट भेजता हूं. अटैच्ड जो हूं इनके .साथ . सुबह ब्रेकफास्ट को ज़रा 'डबुल'करवा दीजिएगा. ट्रेन के सफ़र में हिलने से जल्दी पच जाता है!'ये कहते हुए उसने चार पांच बड़ी तेज़ और भद्दी डकार ली. फिर बोला, 'रात के डिनर में क्या है? वेज या नॉन वेज?'पैंट्री वाले ने कहा, 'जैसी आपकी पसंद!'पत्रकार बोता, 'थोड़ा चिकन रसेदार करवाइए और थोड़ा भुना हुआ. बस साथ में रोटी और चावल रहेगा. सब्जियां या दाल नहीं उसकी जगह चिकन बढ़वा दीजिए!' 

मैं सब ख़ामोशी से देख रहा था और थोड़ी उलझन में भी था कि कहीं ये पत्रकार हमें किसी मुसीबत में न डाल दे. 

बीच बीच में उठकर वो कहीं चला जाता और फिर वापस लौट आता. रायपुर तक बीच बीच में पता नहीं किसे किसे पकड़ कर हमसे बस यूं ही मिलवाने ले आता. उन दिनों हिन्दुस्तान में बहुत कम लोग लैपटाप लेकर चलते थे. इस प्रोजेक्ट के लिए हमें एक लैपटॉप मिला था जिसपर हम रास्ते में कुछ काम कर रहे थे. हमारा लैपटॉप देखकर वो काफ़ी ख़ुश था. जिन लोगों को मिलवाने लाता उन सबसे कहता सब इसी में दर्ज हो रहा है. पता नहीं क्या दर्ज हो रहा है? न वो जानता था न उसके लिवाए लोग! 

डिनर के पहले हमसे बोला, 'आइए पैंट्री का एक राउंड ले लेते हैं!'हम जब उसके साथ पैंट्रीकार की तरफ गए तो देखा पैंट्री वाला एक जिंदा मुर्ग़ा इसके पास लाया और बोला, 'सर ये ठीक रहेगा?'इसने लगता है हम दोनों के बीच एक पूरे मुर्ग़ का जुगाड़ कर लिया था. अगली सुबह  ब्रेकफास्ट बेहतरीन और 'डबुल'था साथ में वो ट्रेन के गार्ड को भी हमसे मिलवाने ले आया. हम तीनों ने एक साथ नाश्ता किया. 

ज़िंदग़ी में हमारा कभी इतने बड़े जालिये से पाला नहीं पड़ा था.

रायपुर में हमारा रुकने का इंतज़ाम पूर्व मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल और  विद्या चरण शुक्ल के गेस्ट हाउन में था. पुराने रायपुर के बाहर हाईवे पर श्यामा चरण और विद्या चरण शुक्ल का एक पेट्रोल पंप था उसी के साथ लगीं उनकी कुछ एयर कंडीशंड कॉटेजेज़ थीं. विद्याचरण शुक्ल के स्टाफ़ के दो तीन लोग पता नहीं क्यों फूल माला लेकर प्लेटफ़ार्म पर हमारी अगवानी के लिए खड़े थे. ट्रेन से उतरते जब उसने इन लोगों को देखा और लोकल होने की वजह से पहचाना तो ख़ासा झटके में आ गया.  उसे लगा  कि वो रास्ते भर हमें जिस हौफ़े में लेकर आया कहीं हम वाक़ई वही या उससे बड़े तो नहीं? बाहर निकलते बोला, 'सर अपना कार्ड तो दीजिए. कभी आपसे संपर्क करना पड़े तो!'


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