वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता
:- डॉ. मोहन चंद तिवार
पिछले लेख में बताया गया है कि वराहमिहिर के भूगर्भीय जलान्वेषण के सिद्धांत आधुनिक विज्ञान और टैक्नौलौजी के इस युग में भी अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी हैं, जिनकी सहायता से आज भी पूरे देश की जलसंकट की समस्या का हल निकाला जा सकता है तथा अकालपीड़ित और सूखाग्रस्त इलाकों में भी हरित क्रांति लाई जा सकती है. इस लेख में वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता और वर्त्तमान सन्दर्भ में उनकी उपयोगिता के निम्नलिखित विचार बिंदु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
1. सर्वप्रथम, वराहमिहिर का जलविज्ञान के क्षेत्र में मौलिक योगदान यह है कि उन्होंने विश्व के जलवैज्ञानिकों को इस सत्य से अवगत कराया कि भूमि के अन्दर भी सैकड़ों ऐसी जल की शिराएं सक्रिय रहती हैं जिनके कारण कृत्रिम प्रकार के बनाए गए जलाशयों में पूरे वर्ष भूमिगत जल का भंडारण होता रहता है. वस्तुतः वराहमिहिर का जलविज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोक्तावाद की भावना से संदोहन करने वाले विकासवादियों का जलविज्ञान नहीं है, बल्कि यह विज्ञान सम्पूर्ण में शान्ति की कामना करने वाले प्रकृति के उपासकों का जलविज्ञान है.
2. वराहमिहिर का महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी है कि उन्होंने विभिन्न प्रकार के वृक्षों की निशान देही करते हुए भूमिगत जल की शिराओं को खोजने के जो उपाय बताए हैं, आज के ग्लोबल वार्मिंग की परिस्थितियों में वे उपाय पर्यावरण संरक्षक उपाय होने के कारण पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं. भारतीय जलविज्ञान के सन्दर्भ में भूमि पर उगने वाले वृक्ष भूमिगत जलशिराओं से जुड़े हुए ऐसे ‘वाटर प्लान्ट्स हैं, जिनके कारण भूमिगत जल का स्तर ऊपर उठा रहता है तथा कूप, तालाब, सरोवर आदि में जल की शिराएं सक्रिय रहने के कारण जल की आपूर्ति भी बराबर बनी रहती है. यही कारण है कि वराहमिहिर ने किसी भी नए जलाशय के निर्माण के समय उसके तटों पर तरह तरह के छायादार और फलदार वृक्षों को लगाना आवश्यक बताया है.
वराहमिहिर के अनुसार जल और जंगल एक दूसरे के रक्षक माने गए हैं. वृक्ष वनस्पतियां जमीन से शक्ति ग्रहण करती हैं किन्तु वे जमीन को अपनी जड़ों से बांधकर उसे मजबूती भी प्रदान करती हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में जहां वर्षा बहुत होती है और भूस्खलन के खतरे बढ़ जाते हैं तथा मैदानी क्षेत्रों में जहां बाढ़ के कारण उपजाऊ मिट्टी प्रत्येक वर्षा ऋतु में बहती जाती है, वहां जंगल और वृक्ष ही भूमि की रक्षा करते हैं. इस लिए वराहमिहिर के अनुसार वृक्ष एक प्रकार से जल स्रोतों के रक्षाकवच हैं.
3. वराहमिहिर ने निर्जल प्रदेशों में मिट्टी और भूमिगत शिलाओं के लक्षणों के आधार पर भूमिगत जल खोजने की जो विधियां बताई हैं आधुनिक विज्ञान के धरातल पर भी उनकी पुष्टि की जा सकती है. आधुनिक भूविज्ञान के अनुसार भूमि के उदर में ऐसी बड़ी बड़ी चट्टानें होती हैं जहां सुस्वादु जल के सरोवर बने होते हैं वराहमिहिर की बृहत्संहिता में इन्हीं भूमिगत जल के खजानों को खोजने के अनेक उपाय बताए गए हैं. आधुनिक भूवैज्ञानिक अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि पृथिवी पर नब्बे प्रतिशत शुद्ध जल भूमिगत है जो प्राकृतिक चट्टान संरचनाओं में छिपा रहता है. आधुनिक जलवैज्ञानिकों ने इसे ‘एक्वीफरर्स’ की संज्ञा दी है.
वर्षा का जल ही भूमि के सतहों से छनकर इन चट्टानों तक पहुंचता है. लेकिन न तो हर प्रकार की मिट्टी जल को जल-ग्रहण करने वाली चट्टानों तक पहुंचाने में सक्षम होती है और न ही भूमिगत प्रत्येक चट्टान भूस्तरीय जल को ग्रहण करने में समर्थ होती है. बृहत्संहिता (54.107-11) में मिट्टी तथा पाषाण शिलाओं का जल-वैज्ञानिक विश्लेषण इसी दृष्टि से किया गया है.
4. आधुनिक विज्ञान कहता है कि आग्नेय चट्टानों की अपेक्षा अवसादी चट्टानें जलधारण करने में अधिक समर्थ होती हैं. कठोर चट्टानों में जल-संग्रहण की क्षमता नहीं होती है क्योंकि इन चट्टनों में छिद्र नहीं होते. दूसरी ओर बलुआदार और कोमल चट्टानें जिनमें दरारें होती हैं उनमें न केवल भूमिगत जल का भंडारण होता है बल्कि अपने इर्द गिर्द भी ये चट्टानें संचित जल को सक्रिय रखती हैं. भूस्तरीय मिट्टी से चट्टानों तक जल पहुंचने की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि चट्टानों के पास पहुंचते पहुंचते जल स्वयं ही शुद्ध होता जाता है किन्तु यदि पानी प्रदूषित हो जाए तो वही जल भूमिगत जल की शिराओं को भी प्रदूषित कर सकता है.
5.वराहमिहिर का यह जलवैज्ञानिक सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है कि आकाश से एक ही स्वाद का जल बरसता है किन्तु वह भूमि की विशेषताओं से अपना स्वाद और गुण बदल लेता है. इसलिए यदि जल की पहचान करनी है तो भूमि की परीक्षा करनी चाहिए-
“एकेन वर्णेन रसेन चाम्भश्च्युतं
नभस्तो वसुधाविशेषात्.
नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं
परीक्ष्य क्षितितुल्यमेव..”
-बृहत्संहिता,54.2