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भारत की जल संस्कृति-26 / डॉ. मोहन चंद तिवारी

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चक्रपाणि मिश्र के भूमिगत जलान्वेषण के वैज्ञानिक सिद्धांत

डॉ. मोहन चंद तिवारी 


मानव के लिए जीवनदायी, एकमेव, विकल्‍पहीन संसाधन है जल और उस जल के संरक्षण, स्राेतों की सुरक्षा व संवर्धन लिए संर्वांगतया सोचने का यह अवसर है। सोचने ही नहीं, कुछ संकल्‍प लेने का भी समय है। मौका है तो बात bकहने, चर्चा करने का अवसर भी है।

इस मौके पर याद आते हैं महाराणा प्रताप (1572-97 ईस्‍वी)। यूं तो अपने दौर में दुनिया के सबसे ताकतवर बादशाह से प्राण रहने तक संघर्ष के लिए ही याद किए जाते हैं, मगर, यह बड़ा सच है कि महाराणा प्रताप ने ही शासकों के सामने जल नीति के विकास का ध्‍येय रखा था।


उन्‍होंने अपने अपने क्षेत्र में पानी को सर्वसंभव बचाने पर जोर दिया। यही नहीं, अपने-अपने क्षेत्र में भूमिगत जल की खोज, उस जल की पहचान करवाने वाले पेड़-पौधों के संरक्षण, कम से कम व्‍यय में अधिकाधिक जलस्रोतों के निर्माण, जल के उपयोग के लिए नहरों, कुल्‍याओं के जाल बिछाने तथा पहाड़ों और मैदानी इलाकों में पानी की खोज कैसे हो सकती है,,, इस संबंध में आज्ञा देकर विशेषज्ञों को नियुक्‍त किया। प्रताप के बालसखा और दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र को इस राज्‍याज्ञा के अनुसार ग्रंथ तैयार करने का श्रेय है। 


पंडित चक्रपाणि ने यूं तो 'प्रताप वल्‍लभ'नाम दिया, मगर महाराणा प्रताप का विचार था कि ये प्रिय व रुचिकर मन्‍तव्‍य अकेले मेवाड़ के लिए नहीं है, यह दुनियाभर के लिए है। अत: कृति प्रताप वल्‍लभ नहीं, बल्कि ''विश्‍व वल्‍लभ''होनी चाहिए। पुस्‍तक 'विश्‍व वल्‍लभ'हो गई। विश्‍ववासियों के नाम भारत से लिखी पहली अपीलीय पुस्‍तक। प्रकृतिप्रदत्‍त पानी, पेड़-पौधे, प्राणी प्राण और पर्यावरण के संबंधों पर अनूठा वैज्ञानिक अवदान...। 

✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनु


आचार्य वराहमिहिर की तरह चक्रपाणि मिश्र का भी भूमिगत जलान्वेषण के क्षेत्र में  महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है,जो वर्त्तमान सन्दर्भ में भी अत्यन्त प्रासंगिक है. चक्रपाणि मिश्र ने भारतवर्ष के विविध क्षेत्रों और प्रदेशों की पर्यावरण और भूवैज्ञानिक पारिस्थिकी के सन्दर्भ में देश की भौगोलिक पारिस्थिकी को जलवैज्ञानिक धरातल पर पांच वर्गों में विभक्त किया है और प्रत्येक क्षेत्र की वानस्पतिक तथा भूगर्भीय विशेषताओं को अलग अलग लक्षणों से परिभाषित भी किया है. प्राचीन भारत के परंपरागत जल संसाधनों के सैद्धांतिक  स्वरूप को जानने के लिए भी चक्रपाणि मिश्र का ‘विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है.


‘विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ में जलवैज्ञानिक सिद्धांत

सोलहवीं शताब्दी में महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) के समकालीन रहे ज्योतिर्विद पं.चक्रपाणि मिश्र ने वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ तथा जलविज्ञान सम्बन्धी पुरातन शास्त्रों को आधार बना कर ‘विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक ग्रन्थ की रचना की है. यह ग्रन्थ वनस्पतिविज्ञान, उद्यानविज्ञान तथा जलविज्ञान को एकीकृत करके लिखा गया एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है. लेखक ने भूगर्भविज्ञान तथा भूमितगत जलविज्ञान की वैज्ञानिक दृष्टि को रेखांकित करते हुए जो भी लिखा है,वह आज भी भारत के विविध प्रांतों की परम्परागत जलविज्ञान और जल प्रबंधन सम्बन्धी प्रायोगिक पृष्ठभूमि को समझने की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है. पं. चक्रपाणि मिश्र ने इस ग्रन्थ के मंगलाचरण श्लोक के रूप में जलविज्ञान के मूल सिद्धांत की स्थापना करते हुए कहा है कि जल और वृक्ष एक दूसरे के आश्रयीभूत होते हैं.अर्थात् जल के भूमिगत स्रोतों की अवस्थिति का ज्ञान वहां अश्रित वृक्षों के ज्ञान से ही संभव होता है-


“ज्ञानं जलस्याथ तदाश्रयाणामपि

विधिं द्रुमाणामपि रोपणाद्यम्.” -विश्व.,1.1        

चक्रपाणि मिश्र ने अपने इस ग्रन्थ का प्रयोजन बताते हुए लिखा है कि धरती के नीचे विद्यमान जल की मात्रा, जिन लक्षणों और संकेत चिह्नों से ज्ञात की जा सकती है,वे चिह्न,जल की सतह का हस्तमान यानी गहराई की पैमाइश, जल की शिरा और उस शिरा की दिशा का ज्ञान,भूमिगत पाषाण के अंदर रहने वाले जल की मिठास, और धरती के अंदर विद्यमान शर्करा आदि ये सारी बातें उन्होंने प्राचीन शास्त्रों का अवलोकन करके जन सामान्य की भलाई के लिए अपने इस ग्रन्थ में बताई हैं-

“यावन्मानं जलं वै धरणि-

तलगतं ज्ञायते यैश्च चिह्नैः,

यावद्धस्ताभिस्तत्पुनरपि

च शिरा यद्दिशातोsभियाति.

पाषाणाद्यन्तरं यन्मधुर-

मधुरं शर्क्करा वाप्यधस्यात्

तत्सर्वं सुब्रवेsहं सकलजनहितं

वीक्ष्य शास्त्रणि शश्वत्..”-विश्व.,1.2


चक्रपाणि मिश्र ने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में एक और महत्त्वपूर्ण बात यह कही है, जिसे आधुनिक जल वैज्ञानिकों को जानना बहुत जरूरी है, कि भूमिगत जलस्रोत के सम्बन्ध में जानने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि जिस भूमि पर जल की खोज की जा रही है, वह भूप्रदेश साधारण,अनूप, जांगल और पर्वतीय इन प्रदेशों में से किस प्रदेश के अंतर्गत आता है. तभी भूमिगत जलान्वेषी व्यक्ति निश्चयपूर्वक जल की सही सही जानकारी प्राप्त कर सकता है –


“साधारणानूपांश्च जांगलान्पर्वतान्वितान्.

देशान्निमित्तजान्ज्ञात्वा वदेत्सर्वं विचक्षणः..”


पढ़ें — वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता


चक्रपाणि मिश्र का कथन है कि पर्वत या वृक्ष के मूल से भूमि के नीचे बहने वाली जो वाहिकाएं झरनों आदि जलस्रोत तक जाती हैं उन्हें जलविज्ञान की भाषा में ‘शिराएं’ कहा जाता है तथा कहीं कहीं ये जलशिराएं पर्वतीय कन्दराओं में भी देखने में आती हैं-


“पर्वतावृक्षमूलाद्वा शिराधो याति निर्झरे.

सर्वाःशिराःक्वचित्सिद्धा दृष्यन्ते कन्दरासु च..”  – विश्व.‚1.6


भूमि में खुदाई करने पर जो मिट्टी पत्थर के समान अत्यन्त कठोर हो वह ‘पर्वताश्म’ यानी ‘एक्वीफर’ कहलाता है तथा इसी कठोर चट्टान के नीचे ही बहुत अधिक जल का भंडार होता है,जिसे आधुनिक जलविज्ञान में ‘ग्राउंड वाटर’ कहते हैं –


‘‘खन्यमानेsतिकठिना

मृच्चपाषाण सन्निभाः.

पर्पटाश्माभिघात तस्यास्तदधः

स्याज्जलं बहु..’’ -विश्व.,1.7

पढ़ें — “वराहमिहिर के अनुसार दीमक की बांबी से भूमिगत जलान्वेषण”


चक्रपाणि मिश्र ने परम्परा से प्राप्त सारस्वत मुनि की उक्तियों तथा वराहमिहिर के वानस्पतिक जलागम संकेतों को आधार बनाकर लगभग तीस ऐसे वृक्षों को चिह्नित किया है,जिनसे भूमिगत जलशिरा का ज्ञान संभव हो सकता है.

चक्रपाणि द्वारा पर्वतीय चट्टानों के मध्य ‘जल द्रोणी’ बनाने का विधान भी अत्यन्त वैज्ञानिक है तथा वर्त्तमान सन्दर्भ में उत्तराखंड जैसे पर्वतीय क्षेत्रों के जलागम स्थानों के पहचान की दृष्टि से भी बहुत प्रासंगिक और उपयोगी है.चक्रपाणि कहते हैं कि पर्वतीय प्रदेशों में दो पर्वतों के मध्य का भाग ‘द्रोणी’ कहलाता है,जहां जल का भारी स्रोत रहता है.अतः वहां पर्वत की घाटी वाले स्थान में जल की उपलब्धि हेतु  बांध बनाकर ‘महातडाग’ यानी बहुत बड़े तालाब या जल सरोवर का निर्माण किया जाना चाहिए. इससे व्यय बहुत कम आता है तथा भूमि जल से परिपूर्ण रहती है-


‘‘गिरिद्वयोरंतरबद्ध पालिद्रोर्ण्या

गिरेरग्रविशालभूर्वा.

अल्पव्ययेनैव महांस्तडागो

भवेत्तदा सततं भूरितोयः..’’- विश्व.2.7

चक्रपाणि मिश्र ने परम्परा जलविज्ञान से प्राप्त सारस्वत मुनि की उक्तियों तथा वराहमिहिर के वानस्पतिक जलागम संकेतों को आधार बनाकर लगभग ऐसे तीस वृक्षों को चिह्नित किया जिनसे भूमिगत जलशिरा का ज्ञान संभव हो सकता है. वराहमिहिर ने जहां जल स्रोत के रूप में वापी के निर्माण की विधि बताई वहां चक्रपाणि ने जलाशय, सरोवर, तडाग, वापी, कूप, कुंड और द्रोणी आदि अनेक जलस्रोतों की जलवैज्ञानिक विधियों का भी उल्लेख किया है जो भारत के पारम्परिक जल संचयन अथवा ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणाली पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं. चक्रपाणि कहते हैं कि गांव का एकमात्र सहारा कूप यानी नौला ही होता है. कूप के नीचे यदि रेत हो तो सारद्रुम की लकड़ी,कगर काष्ठादि से घेर कर, उसे ‘पुषा’ के निर्माण से इस प्रकार नियंत्रित किया जाना चाहिए ताकि नौले के भूमिगत जल की ‘शिरा’ अवरुद्ध न हो-


‘‘कूपस्य नीचैर्यदि वालुका

स्यात्सारदुकाष्ठेः कगरादिभिश्च.

स्थाप्याथमंवीहपुषादिभिर्वा

यथा न रुन्ध्येत शिरा जलस्य..’’

                       -विश्व.,2.16

आगामी लेख में पढ़िए- चक्रपाणि मिश्र के अनुसार जलाशयों के विविध प्रकार 

✍🏻मोहन चंद तिवारी

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)


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