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आप तो एकदम अपने निकले

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- सुशील झा | 1998-99 बैच

कुछ लोगों के लिए मधुकर संपादक रहे, कुछ लोगों के लिए दोस्त हैं, कुछ के साथी और कुछ के लिए मधुकर उपाध्याय रेडियो का पर्याय भी रहे. उनके लिए जो बीबीसी रेडियो के दीवाने हैं. मेरे लिए मधुकर इनमें से कुछ भी नहीं रहे. उनका और मेरा रिश्ता करीब तेरह साल पहले किताबों के कारण बना और आज भी कायम है.

उनसे पहली मुलाकात लड़ाई से शुरु हुई थी. एक ऐसा संपादक जिसने एक ऐसे लडके को नौकरी दी जो संपादक से पहली मुलाक़ात में लड़ पड़ा था. फिर एक दिन मैंने पूछा- सुना है आपने भी किताबें लिखी हैं. कोई किताब बताइए तो पढ़ूंगा. उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया- बस एक काम किया है अगर वो कहीं मिले तो सुन लेना. बाकी जो लिखा वो बस यूं ही है. फिर बोले- बैठो, ये सुनो.

खोदते खोदते खो देंगे अयोध्या
नागपुर में नाग रहते हैं.
हवाई जहाज़ और बैलगाड़ी की कभी टक्कर नहीं होती.
औरत घुटने भर पानी में नहीं भीगती.

रद्दी कागज़ पर हाथ से लिखे इन वाक्यों को पढ़कर मैं प्रतिक्रिया देता और वो मुस्कुराते. आखिरी वाक्य नहीं समझ पाया था तो वो बोले- जब शादी होगी तब समझ आ जाएगा.

ये पंक्तियां बाद में चलकर पूर्ण विराम सिद्धांत कौमुदी के रूप में प्रकाशित हुईं. ज़बर्दस्त किताब- आज अगर इस किताब की समीक्षा हो तो लोग कहेंगे कि फेसबुक स्टेटस है. सोच लीजिए मधुकर ने फेसबुक आने से बहुत पहले लिख दी थी ऐसी किताब.

फिर एक दिन मधुकर कुछ बोल रहे थे और जैसा होता है किसी न्यूज़ रुम में संपादक बोलता है तो सब सुनते हैं. लेकिन मैं थोड़ा उजड्ड था तो मैंने टोक दिया. बात किसी किताब की ही थी. मधुकर ने केबिन में बुलाया और पूछा- चिनुआ अचेबे को पढ़ा है. मैंने कहा नहीं. बोले- पढ़ना. दो महीने बाद मैं फिर था केबिन में- चिनुआ अचेबे की तीनों किताबें पढ़ने के बाद. एक सवाल के साथ- और किताबें बताइए. फिर गैब्रिएल गार्सिया मार्केज़, नगीब महफूज़, अमीन मालूफ और न जाने कितने लेखकों से परिचय इसी लेखक ने कराया.

फिर धीरे धीरे कुछ और किताबें आईं. चुनावी युद्धकला और उसके बाद बात नदी बन आए. मैं दूसरी नौकरी में आ चुका था लेकिन मधुकर से संपर्क बना रहा. उनकी दो किताबें पचास दिन पहले पचास साल बाद मैंने बीबीसी में ही सुनी ऑडियो में. खोजते खोजते खरीद भी लीं.

दांडी मार्च पर लिखी किताब समझिए सुनी ही है ऑडियो में. प्रति मेरे पास नहीं है. लोग बताते हैं कि मधुकर जब दांडी यात्रा के लिए गए तो उनके मित्र उन्हें छोटा गांधी कहते थे.

हां ये भी बता दूं कि मधुकर विज्ञान विषय से स्नातक हैं लेकिन उनकी रुचि समाज शास्त्र और इतिहास में हैं. आईआईएमसी में 1978-79 बैच में पढ़े. यूनीवार्ता और उसके बाद 1990 में बीबीसी हिंदी में रहे. जिस दौरान कई महत्वपूर्ण सीरिज़ों को अंजाम दिया. बीबीसी छोड़ने के बाद मधुकर 1999 में पीटीआई भाषा के संपादक बने और फिर लोकमत और आज समाज अख़बारों के समूह संपादक. कुछ समय पहले तक वो जामिया मिलिया इस्लामिया में Scholar in Residence थे. आजकल मधुकर कथित रुप से कुछ नहीं कर रहे हैं जिसका मतलब है कि वो संभवत बहुत कुछ कर रहे हैं.

और हां अगर यहां 1857 से मधुकर के लगाव को न जोड़ूं तो ठीक नहीं रहेगा. चूंकि ये लेखक फैज़ाबाद-अयोध्या के हैं तो उस इलाके से उनका लगाव ज़ाहिर है. किस्सा सूबेदार सीताराम पांडे और विष्णुभट्ट की आत्मकथा दोनों ही पुस्तकें 1857 के इतिहास को जानने में बड़ी भूमिका अदा करती हैं. सीताराम पांडे मैंने जेरॉक्स कराकर पढ़ी औऱ विष्णुभट्ट की आत्मकथा पुरानी दिल्ली में कहीं फुटपाथ पर मिली.

बात नदी जब बन आए कविताओं का संग्रह भी मधुकर का है और इसका विमोचन एक दिलचस्प घटना रही मेरे लिए. इसमें कविताएं हैं या गज़ल है या शेर है जो कहिए. इसके विमोचन में अशोक वाजपेयी औऱ नामवर सिंह दोनों थे. बाद में पता चला कि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं. ये मधुकर का लेखन ही था जो दो विरोधी दिग्गज़ों को एक साथ ला सकता था.

आगे चलकर बीबीसी रेडियो का उनका कालजयी कार्यक्रम भारतनामा भी आने वाला था जिसका एक किस्त दक्षिणावर्त ही आया है. मैं दावा कर सकता हूं कि मधुकर उपाध्याय की लिखी अधिकतर किताबें मैंने पढ़ी हैं. एक छूट गई है- खिलो कुरिंजी- पता नहीं क्यों मुझे नाम पसंद नहीं रहा कभी भी इसका.

उनसे बातचीत कम ही होती है. मैंने जितना दुनिया को देखा समझा और जाना है कह सकता हूं कि मधुकर उपाध्याय को वो शोहरत और वो सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था. शायद वो किसी मठ के नहीं थे. किसी गुट के नहीं थे. लेकिन मैं जानता हूं कि उनका लेखन जीवित रहेगा. आने वाले कई वर्षों तक क्योंकि उन्होंने जो लिखा है वो किसी मठ या गुट का मोहताज नहीं है.

हाल ही में पता चला कि उनकी सात या आठ किताबों का अनुवाद मिशीगन विश्वविद्यालय कर रहा है. आज जब किसी की किताब का अनुवाद होता है तो वो उसे ऐसे प्रचारित करता है मानो पता नहीं कौन सा किला फतह कर लिया. लेकिन मधुकर ने शायद ही किसी से मिशीगन वाली बात कही हो. मैंने पूछा तो बोले- ठीक है, कर रहे हैं तो अच्छा है.

ऐसे लेखक विरले होते हैं जो पैसों के लिए नहीं लिखते. वो शायद अपने लिए लिखते हैं. मधुकर पागलों की तरह पढ़ते हैं. बहुत कम विषय ऐसे हैं जिन पर वो रेफरेंस नहीं दे सकते. गांधी, उपनिषद-वेद और अयोध्या पर वो एनसाइक्लोपीडिया की तरह बोल सकते हैं. मधुकर जैसे लेखकों से बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत है. सिर्फ लिखना ही नहीं. लेखन की ईमानदारी और सादगी से रहने की कला.

हां आखिरी बात अपने लिखे या क्रिएटिव कार्यों में मधुकर को संभवत सबसे पसंद जो चीज़ है वो इन किताबों में नहीं है. वो सुनने की चीज़ है. मधुकर ने बहुत साल पहले अपने ख़ास दोस्तों के लिए खलील जिब्रान की पुस्तक द प्रोफेट का अनुवाद किया था और उसे रिकार्ड किया था. अनुवाद आपने कई पढ़े होंगे लेकिन प्रोफेट के इस हिंदी अनुवाद को मधुकर की धीर गंभीर और दिल को बिंध देने वाली आवाज़ में सुनना दैवीय अनुभव है. कभी कहीं मिले तो सुनिएगा ज़रुर.

मधुकर उपाध्याय की कुछ किताबों के नाम-
1. पूर्ण विराम सिद्धांत कौमुदी
2. सितारा गिर पड़ेगा
3. अल मुस्तफ़ा
4. धुंधले पदचिन्ह
5. यही तो सच की खूबी है
6. पृथिवी
7. पंचलाइन
8. पचास दिन: पचास साल पहले
9. Fifty days to freedom
10. किस्सा पांड़े सीताराम सूबेदार
11. रामकहानी सीताराम
12. चुनावी युद्धकला
13. Drawing the battle lines
14. खिलो कुरिंजी
15. बात नदी बन आए
16. विष्णुभट्ट की आत्मकथा
17. निर्मल माया
18. बाल रामायण
19. क्रांति यात्रा
20. मदन मोहन मालवीय
21. मोतीलाल नेहरू


सौजन्य अनामी शरण बबल 1987-88 hj  पहला बैच

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