आवाज़ के 75 साल
75 साल के सफर की कुछ रोचक दिलचस्प बातें'
शीर्षक से यह आलेख धनबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक 'आवाज: के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित है (21.07.22).
विजय केसरी
किसी भी अखबार के लिए 75 वर्षों का सफर तय करना कोई मामूली बात नहीं होती है। आवाज, बिना रुके, बिना डरे, बिना झुके बीते 75 वर्षों से निरंतर प्रकाशित होता रहा रहा है। आवाज का नियमित प्रकाशन, किसी इतिहास रचने से कम नहीं है। बीते 75 वर्षों के दौरान आवाज ने कई उतार और चढ़ाव देखे। आवाज इन उतारा और चढ़ाओं को पार करते हुए अपनी गति से आगे बढ़ता ही चला जा रहा है । आवाज के प्रकाशन के 75 वर्षों के सफर की कई दिलचस्प बातें हैं, जिसे पत्र के सभी शुभचिंतकों को जानना चाहिए। आवाज के निर्माण में सिर्फ आवाज परिवार टीम का ही अवदान है, अगर ऐसा कहता हूं, तो यह बात पूरी तरह बेमानी होगी। आवाज के निर्माण में पाठकों, विज्ञापन दाताओं, और सुभचिंतकों के सहयोग ना मिले होते तो शायद 75 वर्षों का सफर तय कर यहां तक पहुंचना संभव नहीं हो पाता ।
आवाज एक निष्पक्ष व निर्भिख पत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है। आवाज ने पत्रकारिता के मूल्य साथ कभी भी कोई समझौता नहीं किया है । आवाज, लोकतंत्र के एक सच्चे प्रहरी के तौर पर बीते 75 वर्षों से अपने कर्तव्य का निर्वहन करता चला आ रहा है । मैंने पूर्व के आलेख में यह बताने की कोशिश की थी कि आवाज भारत की आजादी के साथ ही बड़ा होता चला जा रहा है। देश की आजादी का 75 वां वर्ष, अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर आवाज भी अपने प्रकाशन का 75 वर्ष मना रहा है ।
जिस कालखंड में आवाज का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था, आजादी का दौर था। भारत को आजादी कुछ ही दिनों में मिलने वाली थी। ब्रह्मदेव सिंह शर्मा एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ स्वाधीन भारत के मजबूत पक्षधर थे । 1947 में आवाज के संस्थापक संपादक बिल्कुल युवा थे। वे स्वामी विवेकानंद के विचारों से बहुत हद तक प्रभावित थे । स्वामी विवेकानंद की तरह ही इनका मत था, 'उठो जागो और तब तक आगे बढ़ते रहो, जब तक मंजिल ना मिल जाए'। इस विचार को आत्मसात कर ब्रह्मदेव शर्मा, आवाज जैसे हिंदी पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया था । इधर आजादी के लिए गोष्ठियां आयोजित हो रही थी, तो दूसरी ओर ब्रह्मदेव सिंह शर्मा अपने कुछ खास मित्रों के साथ धनबाद से एक हिंदी दैनिक पत्र निकालने पर विचार कर रहे थे। उनके पास कोई पूंजी नहीं थी। सीमित संसाधन थै, और ना ही अखबार संचालन का कोई अनुभव था । लेकिन दिल हौसला और जोश था। अखबार की शुरुआत कैसे की जाए ?
इस विषय पर अपने साथियों से प्रतिदिन बात कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने हिंदी अखबार का नाम क्या होगा ? पर विचार किया था। कई नाम बिचारा आए। अंत में सबों ने मिलकर आवाज नाम को फाइनल किया था। अखबार का आवाज नाम सबों को बहुत पसंद आया था। अब रही बात अखबार के प्रकाशन का, कैसे प्रारंभ किया जाए ?
अखबार का प्रवेशांक कैसा हो ? उन्होंने इस निमित्त अपने सहयोगी मित्रों के साथ बातचीत करना प्रारंभ किया था। अखबार प्रकाशन की रूपरेखा बन गई।
उस कालखंड में दिल्ली, कोलकोता, बंगाल से हिंदी, अंग्रेजी और बंगला के अखबार धनबाद आते थे । उन अखबारों की मौजूदगी में बिना संसाधन व पूंजी के बिना आवाज का प्रकाशन करना था। आवाज के संस्थापक संपादक इन तमाम कमियों को नजरअंदाज कर प्रवेशांक का विमोचन कैसे हो ? उन्होंने इस विषय पर बातचीत करना प्रारंभ कर दिया था। बहुत मुश्किल से एक मुद्रण के मालिक से बातचीत हुई।, उसने ट्रेडील पर आवाज को छापने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । अब ब्रह्मदेव सिंह शर्मा, कुछ पढ़े लिखे नौजवानों को इस प्रकाशन से जोड़ा । उन्होंने अपने सहयोगियों से अपने अपने क्षेत्र के समाचार लाने के लिए आग्रह किया था। ब्रह्मदेव सिंह शर्मा , आवाज के एक साथ संपादक, प्रकाशक, समाचार संकलन कर्ता, विज्ञापन प्राप्तकर्ता और मुद्रण करता भी बन गए थे।
जिस सुबह आवाज के प्रवेशांक का विमोचन होना था, उस रात उन्होंने खुद से ट्रेडिल मशीन चलाया था। आवाज की प्रवेशांक की प्रतियां जब ब्रह्मदेव सिंह शर्मा के हाथों में आई थी, तब उनकी खुशी का कोई ठिकाना ना था । उनकी इतने दिनों की मेहनत रंग ले आई थी । इसके लिए उन्होंने दिन रात एक कर दिया था । आवाज का विमोचन शानदार तरीके से हुआ था । इस विमोचन समारोह में धनबाद के कई राजनीतिक नेता व कार्यकर्ता सम्मिलित हुए थे । उस समय आज की तरह राजनीति के क्षेत्र में यह दलगत स्थिति नहीं थी। इस विमोचन समारोह में पहुंचने वाले सभी नेतागण, कार्यकर्ता एवं अन्य लोग आजाद भारत को शीघ्र अति शीघ्र बनते देखना चाह रहे थे । सबों ने मुक्त कंठ से आवाज के प्रवेशांक की प्रशंसा की थी। सबों ने कहा था कि यह अखबार कोयलांचल के लिए जरूर कुछ बड़ा करेगा। ब्रह्मदेव सिंह शर्मा, सबों की बातें शुभ रहे थे। इन बातों का उन पर यह असर हुआ, अखबार का स्वरूप कैसा होगा ? अखबार कौन सी खबरों को आवाज में प्राथमिकता दे ? इन बातों को समझने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ। आवाज अपने नाम के अनुरूप शोषित, पीड़ित, दलित और अभिवंचित और मजदूरों की एक सशक्त आवाज बंन सका । मुद्रण कर्मचारियों के कभी-कभी अनुपस्थिति रहने पर ब्रह्मदेव सिंह शर्मा खुद अपने हाथों से ट्रेडिंल मशीन चलाया करते थे । ताकि समय पर आवाज का अंक निकल पाए। उन्हें अंक के निकालने में किसी भी तरह का विलंब बर्दाश्त नहीं था।
देखते ही देखते आवाज का दस वर्षों का समय बीत चुका था। बिना पूंजी और सीमित संसाधन के अखबार प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। आवाज परिवार टीम की हिम्मत मेहनत रंग लाई । अब इलेक्ट्रिक युक्त ट्रेडिल मशीन से आवाज का सपना प्रारंभ हो गया था। आवाज के संपादक मंडल में दस से ज्यादा उप संपादक कार्यरत थे । पूरे कोयलांचल में संवादाता दिन रात आवाज के लिए काम कर रहे थे। इन तमाम उपलब्धियों के साथ आवाज आगे बढ़ता जा रहा था।
अभी भी आवाज के समक्ष कई बड़ी चुनौतियां थी। दिल्ली, कोलकाता और बिहार से आने वाले अखबारों के मुद्रण में जो सुविधाएं थी, उससे आवाज बहुत पीछे था। दिल्ली एवं अन्य प्रांतों की खबरों के लिए आवाज में टेलीप्रिंटर लग चुके थे। विदेश की खबरों के लिए भी आवाज को टेलीप्रिंटर ही एक मात्र सहारा था। आवाज के मुख्य कार्यालय के रिपोर्टर रेडियो के माध्यम से देश-विदेश की ताजा तरीन खबरें प्राप्त करते थे,। रिपोर्टर इन खबरों को सबसे पहले हाथों से लिखते थे, उसके बाद कम्पोजिंग होता था। तब जाकर ट्रेडिल मशीन पर खबरें छपती थी । पाठकों तक खबरें पहुंचाने के लिए आवाज की पूरी टीम को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी ।
उस जमाने में आज की तरह लिखने वाले भी कम थे। अखबार हेतु आर्टिकल अथवा संवाद मंगाने का एकमात्र माध्यम डाकघर ही था। आवाज, इस दौर में संपूर्ण देश के लेखकों तक अपनी पहुंच बनाने में सफल रहा था । देश भर से आवाज को आर्टिकल प्राप्त हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर ब्रह्मदेव सिंह शर्मा कोयलांचल के लेखकों के आलेखों को छापना प्रारंभ किया थ। इसका असर यह हुआ कि कोयलांचल से कई लेखक उभर कर सामने आए । बाद के काल खंड इनमें से कई लेखक विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़कर विधायक, सांसद और मंत्री तक बने थे ।
आवाज पूरी निर्भीकता के साथ हर अंक का प्रकाशन करता चला आ रहा था। जैसे-जैसे मुद्रण प्रणाली में तब्दिलियां होती गईं, आवाज भी बिना विलंब किए इन तब्दिलियों को स्वीकार करता गया। आवाज, पत्र प्रकाशन की बेहतरी के लिए हर तब्दीली को स्वीकार किया था।
हाथ से चलने वाले ट्रेडिल मशीन से आवाज की शुरुआत हुई थी। आज आवाज बिल्कुल आधुनिक ऑफसेट मशीन में छप रहा है। यह आवाज की पूरी टीम की मेहनत का प्रतिफल था। आवाज ने इस क्षेत्र से लीडरशिप को भी विकसित किया था। दिल्ली, कोलकाता और पटना से प्रकाशित होने वाले अखबारों में स्थानीय नेताओं के वक्तव्य को बहुत कम जगह मिल पाती थी । आवाज में ऐसे नेताओं को दिल खोलकर छापा । आवाज ने स्थानीय नेताओं को आगे बढ़ने में भरपूर सहयोग दिया था। इस क्षत्र में जो भी मजदूर संगठन बने, स्थानीय नेतागण राजनीति में जो अपनी पहचान बनाए, उन सबों के प्रारंभिक दिनों के संघर्ष में कहीं ना कहीं आवाज जुड़ा रहा था।
आवाज ने 75 वर्षों का सफर तय किया है। 100 वर्ष पूरा होने में सिर्फ 25 वर्ष शेष है, अगर आवाज को अपने पाठकों, विज्ञापन दाताओं और शुभचिंतकों से इसी तरह के सहयोग मिलता रहेगा तो यह भी दिन दूर नहीं है।
विजय केसरी,
(कथाकार/ स्तंभकार)
पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301.
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