हिंदी पत्रकारिता (दिवस) पर खास नजरिया / अरविंद कुमार सिंह
हाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष भारत के स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन को बनाया गया तो सोशल मीडिया पर इस ऐतिहासिक घटना पर बहुत कुछ लिखा गया है। इसमें एक बात सामने उठ कर आयी कि 194 सदस्य देशों में अधिकतर ने भारत का समर्थन किया तभी डॉक्टर हर्षवर्धन इस जगह पहुंचे। जाहिर है तमाम देशों को तैयार करने में सरकार ने काफी मेहनत की। लेकिन ऐसा कोई प्रयास हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के संदर्भ में नहीं दिखता है। अपने विदेश मंत्री काल में सुषमा स्वराज जरूर इस मुद्दे को उठाती रही है लेकिन मुझे याद नहीं कि कभी मौजूदा विदेश मंत्री ने इस सवाल को मुखरित किया हो। सुषमाजी का कहना था कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने में धन की अड़चन नहीं, लेकिन इसके लिए 129 देशों का समर्थन चाहिए। भारत का कद जिस तरह लगातार बढ़ रहा है, उससे निकट भविष्य में उसे समर्थन हासिल हो जाएगा। 10वें हिंदी सम्मेलन में उन्होने कहा कि जिस भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है, उस पर आने वाला खर्च सभी देशों में बंटता है। अब सवाल यह है कि डा. हर्षवर्धन को विश्व स्वास्थ्य संगठन बनाने मं दिक्कत नही आयी और अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने के प्रस्ताव को 177 सदस्य देशों का समर्थन मिला तो फिर हिंदी में क्या दिक्कत है। संयुक्त राष्ट्र की फिलहाल 6 आधिकारिक भाषाएं हैं जिनमें अरबी, अंग्रेजी, रूसी, चीनी, फ्रेंच और स्पेनिश शामिल हैं। हिंदी की औकात इनमें किसी से कम नहीं है। लेकिन हिंदी जगत क्या कर रहा है। क्या कभी कोई बड़ा डेलीगेशन इसके लिए प्रधानमंत्री, गृह मंत्री या विदेश मंत्री से मिला। हिंदी के लेखक तमाम जगहों पर मनोनयनों या बाकी चीजों के लिए तो सत्ताओं के आसपास आते जाते रहते हैं लेकिन क्या इस बाबत कहीं दिखाई पड़े हैं।
आज विश्व पटल पर हिंदी की हैसियत बहुत अधिक बढ़ गयी है। 21वीं सदी को हिंदी व देवनागरी लिपि की सदी कहा जा रहा है। 10 जनवरी, 2006 से विश्व हिंदी दिवस मनाया जा रहा है। डेढ़ सौ से अघिक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी में पठन-पाठन हो रहा है। ब्रिटेन में हिंदी दूसरी सर्वाधिक बोलने वाली भाषा बन गयी है और दक्षिण एशियाई लोगों ने इसे संपर्क भाषा मान लिया है। कई देशों में हिंदी का विस्तार हो रहा है। भारत के हिंदी भाषी इलाकों में साक्षरता के बढऩे के कारण एक बड़ा पाठकवर्ग, दर्शक और श्रोता पैदा हुआ है। हिंदी इलाका एक बड़ा बाजार भी है। अंग्रेजी जिसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने का गौरव है, के मूल शब्द मात्र 10 हजार है, लेकिन हिंदी में ये ढ़ाई लाख से ज्यादा हैं। दुनिया के कई देशों में भारतीय मूल के लाखों लोगों ने हिंदी को जीवित ही नहीं रखा बल्कि उसकी शाखाओं को विस्तारित किया है। अंग्रेजी के दबदबे वाले कई इलाकों में हिंदी पनप रही है। भारतीय कृतियों का काफी अनुवाद हो रहा है। इन देशों में हिंदी फिल्मे,धारावाहिक और चैनल काफी चाव से देखे जा रहे हैं। हिंदी मे पत्र -पत्रिकाएं व अखबार भी निकल रहे हैं। हिंदी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा नहीं है इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां अपना भाषण हिंदी में देते हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवतजी हिंदी की पैरोकारी में लगातार कई बयान दे चुके हैं।
हिन्दी पत्रकारिता का उद्भभव 30 मई 1826 को कोलकाता में युगल किशोर शुक्ल के संपादन वाले उदन्त मार्त्तण्ड के प्रकाशन के साथ हुआ। ध्येय वाक्य़ के रूप में जो श्लोक लिखा उसका अर्थ था सूर्य के प्रकाश के बिना जिसतरह अंधेरा नहीं मिटता, उसी तरह समाचार सेवा के बिना अज्ञ जन जानकारी नहीं बन सकते। हिंदी की दुनिया बड़ी और विस्तारित है। स्वाधीनता आंदोलन में इसका बागी तेवर था तो बाद का रास्ता बेहद कांटों भरा। फिर भी हिन्दी पत्रकारिता आगे बढ़ती रही औऱ तमाम संपादकों और प्रतिबद्ध पत्रकारों ने इसकी मर्यादा विस्तार किया। समाज के सुख दुख के साथ वह सामाजिक सराकारों से जुड़ी रही। हिंदी की आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी ने सरस्वती के माध्यम से जो सेवाएं दी हैं और जिस गुणवत्ता की बुनियाद रखी उसे भुलाया नही जा सकता। हिन्दी पत्रकारिता को गढ़ने में संपादकाचार्य अंबिकाप्रसाद वाजपेयी, बाबूराव विष्णु पराड़कर और लक्ष्मण नारायण गर्दे का महान योगदान रहा। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, मदनमोहन मालवीय, प्रतापनारायण मिश्र, माधवराव सप्रे, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसी दास चतुर्वेदी, मुंशी प्रमेचंद्र, शिवपूजन सहाय बालकृष्ण शर्मा नवीन से लेकर लंबी सूची है। आज का दिन हमारे इन पुरखे संपादकों को याद करने का है। इस मौके पर लोकमान्य तिलक औऱ महात्मा गांधी के साथ तमाम नायकों का योगदान भी आता है जिनका हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रति विराट अनुराग रहा। हिंदी पत्रकारिता का कैसा गौरवशाली इतिहास और उन्नत स्तर रहा है, इसे जानने समझने के लिए अगर आप भोपाल में सप्रे संग्रहालय में जाएंगे तो आपकी आंखें खुल जाएगी। इस नाते आज के दिन सप्रे संग्रहालय के संस्थापक पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर जी के योगदान को आज मैं खासतौर पर याद कर रहा हूं, जो लगातार अपने मिशन को आगे बढ़ाते हुए काम जारी रखे हुए।
आजादी के बाद की पत्रकारिता के बारे में बहुत से स्त्रोंतों से हमें काफी कुछ जानने को मिलता है। साठ के दशक के बाद हिंदी पत्रकारिता का रंग रूप बदला और कई महान संपादकों ने एक नया अध्याय रचा। आपातकाल में हिंदी पत्रकारिता को दो धाराओं में बंटा भी देखा गया एक धारा लड़ रही थी तो दूसरी रेंग रही थी या नतमस्तक थी। ऐसे लोग भी थे आपातकाल में मौज कर रहे थे। लेकिन बाद में खुद को भूमिगत बता कर हीरो की तरह पेश किया और नयी पीढ़ी का नायक बनने का प्रयास किया। लेकिन कौन क्या था यह सबके संज्ञान में है इस नाते इस पर अधिक कुछ लिखने का मन नहीं। लेकिन तब 110 पत्रकारों को मीसा में गिरफ्तार किया या था और 83 पत्रकारों को डीआईआर के तहत। 51 पत्रकारों की मान्यता समाप्त कर दी गयी। 97 पत्र पत्रिकाओं के विज्ञापन बंद हो गया। आज पत्रकारों की लिस्ट और अखबारो की सूची देखेंगे तो इससे अधिक पत्रकार तो अकेले नोएडा में हैं।
फिर भी हिंदी पत्रकारिता कभी दिनमान के रूप में तो कभी रविवार और जनसत्ता के रूप में अपना तेवर दिखाती रही है। आज भारत के 20 सबसे बड़े अखबारों की सूची को देखें तो अधिकतर अखबार हिंदी और भारतीय भाषाओं के हैं। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका, लोकमत, गुजरात समाचार, सकाल जैसे अखबार इस सूची में है। हिंदी पत्रकारिता पर आज समग्र रूप से सवाल खड़े हो रहे हैं। कोरोना संकट के दौर में इस पर एक गंभीर खतरा भी दिख रहा है। हर समाज में दो तरह के लोग होते हैं, सकारात्मक और नकारात्मक हिंदी में भी ऐसा है। हिंदी के तमाम लेखक और पत्रकार भी दोनों काम कर रहे हैं। लेकिन बड़ी संख्या रचनात्मक काम करने वालों की है।
(हिंदी पत्रकारिता पर अपने खट्टे मिट्ठे अनुभवों के आधार पर लिखा एक लेख साझा कर रहा हूं। यह भारतीय प्रेस परिषद की स्वर्णजयंती पर मैने लिखा था। एक और लेख हिंदी पर है। इसे पढ़ कर प्रतिक्रिया देंगे तो अच्छा लगेगा।) ✌🏼👌🏽