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अंत नहीं अनंत खुशवंत / प्रेम प्रकाश

 

खुशवंत सिंह अपनी उम्र की गिनती को दहाई से सैकड़े तक नहीं ले जा सके। यह अफसोस उनके चाहने वालों को हमेशा रहेगा। अलबत्ता जिस जिंदादिली से वह जीते रहे उसे देखकर तो किसी को भी रक्स होगा। विवाद, यश, प्रतिष्ठा, सम्मान और संतोष सब कुछ भरपूर था उनके जीवन में। 

उन्होंने अपने 99 साल के जीवन में न सिर्फ स्वाधीन भारत के लिए संघर्ष और नए राष्ट्र का निर्माण देखा बल्कि वे विभाजन और सिख दंगों समेत इतिहास के कई दुखद प्रसंगों के भी साक्षी रखे। उनके लेखन में ये दोनों तरह के अनुभव बखूबी दर्ज हुए हैं। 

खुशवंत की जिंदादिली का सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि वे विवादों में बेशक हमेशा रहे पर लोगों की नफरत के शिकार कभी नहीं हुए। इसके उलट उन्हें हर क्षेत्र के लोगों से बेपनाह मोहब्बत मिलती रही। शराब और औरतों को लेकर वे भले बढ़-चढ़कर बातें करते हों, पर उनके चरित्र को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठा। बदनामी के जोखिम के बीच नाम और शोहरत पाने की उनकी ललक को देखकर तो कई बार हैरत होती थी।

दिल्ली से उन्हें बहुत प्रेम था। यहां के कई प्रसिद्ध परिवारों से उनके काफी नजदीकी रिश्ते थे। यह सब उनके पिता के जमाने से चला आ रहा था। दिल्ली के सिख समुदाय के लोगों के तो वे काफी आत्मीय थे। वैसे बात चाहने वालों की करें तो क्या कोलकाता और क्या मुंबई, उनके मुरीद देश में हर जगह थे।

खुशवंत जितने भारत में लोकप्रिय थे, उतने ही पाकिस्तान में भी। उनकी किताब 'ट्रेन टु पाकिस्तान’ बेहद लोकप्रिय हुई। इस पर फिल्म भी बन चुकी है। उन्हें 1974 पद्मभूषण और 2००7 में पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया था। उनके पिता का नाम सर सोभा सिह था, जो अपने समय के प्रसिद्ध रईस और जमींदार थे। एक जमाने में सोभा सिह को आधी दिल्ली का मालिक कहा जाता था।

खुशवंत ने गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से तालीम हासिल की। पसंद नहीं आने के बावजूद उन्हें कानून की पढ़ाई करनी पड़ी। उनका विवाह कंवल मलिक के साथ हुआ। उनके बेटे का नाम राहुल सिह और पुत्री का नाम माला है।

एक पत्रकार के तौर पर खुशवंत सिह ने काफी ख्याति अर्जित की। 1951 में वे आकाशवाणी से जुड़े और 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना’ का संपादन किया। मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेजी साप्ताहिक 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ के और 'न्यू देहली’ के वे 198० तक संपादक थे। वे 'नेशनल हेराल्ड’ के भी संपादक रहे। 1983 तक दिल्ली के अंग्रेजी दैनिक 'हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक भी वही थे। तभी से वे प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय कॉलम लिखते थे, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता था। 

उनके तीन उपन्यास खासे प्रसिद्ध हैं- 'देहली’, 'ट्रेन टु पाकिस्तान’ और 'दि कंपनी ऑफ वूमन’। वर्तमान संदर्भों और प्राकृतिक वातावरण पर भी उनकी कई रचनाएं हैं। दो खंडों में प्रकाशित 'सिखों का इतिहास’ उनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति है। साहित्य के क्षेत्र में पिछले सात दशकों में खुशवंत सिह का विविध आयामी योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

1947 से कुछ सालों तक खुशवंत सिह ने भारत के विदेश मंत्रालय में विदेश सेवा के महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 198० से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। सेक्स, मजहब, भाषा खासतौर पर हिंदी और ऐसे ही कुछ विषयों पर की गई टिप्पणियों के कारण वे हमेशा आलोचना के केंद्र में रहे। पर यह सब शायद जिंदादिली से जीवन जीने का उनका तरीका था। भीतर से वे खासे संवेदनशील इनसान थे और देश-समाज की चिंताओं से हमेशा गहराई से जुड़े रहे। 

यह अलग बात है कि अपने सरोकारों और रास्तों को तय करते हुए वे कभी लकीर के फकीर नहीं बने। अपने लेखन की तरह अपनी शख्सियत को भी उन्होंने अपने तरीके से ही गढ़ा। जीवन और रचना के बीच आत्मविश्वास का ऐसा गाढ़ा मेल शायद ही कहीं और देखने को मिले।


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