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टाटा समूह का आदिवासियों से छल/ संजय बाडा

 जोहार

30 साल पहले टाटा स्टील में आदिवासी मजदूरों की संख्या करीब 29 हजार थी । जो घटकर लगभग 1900 हो गई है। यह खबर 3 वर्ष पूर्व एक अखबार में प्रकाशित हुई थी। जी हाँ हम बात कर रहे है पूर्वी सिंहभूम के 'साकची गाँव'में स्थित आज के जमशेदपुर या टाटानगर के नाम से प्रसिद्ध शहर की, जो आरंभ में आदिवासी गांव था, यहीं 27 अगस्त 1907 को दो करोड़ रुपये की पूंजी से टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी की स्थापना हुई थी। टाटा स्टील की स्थापना के लिए 108 गांवों की जमीन का अधिग्रहण किया गया था।

  यह क्षेत्र छोटानागपुर पठार का एक हिस्सा है। जमशेदपुर या पूर्व साकची गाँव मुख्य रूप से एक पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है, और पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली दलमा पहाड़ियों से घिरा हुआ है और घने जंगलों से आच्छादित है। शहर के पास अन्य छोटी पहाड़ी श्रृंखलाएं उकम हिल और जादूगोड़ा-मुसाबनी पहाड़ी श्रृंखला हैं। यह स्थान खरकई और सुवर्णरेखा नदियों के संगम पर स्थित है।

आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी एवं जानकारों का कहना है कि साकची, मानगो, कपाली, जुगसलाई घोड़ाचौक से नया बाजार आदिवासी समाज की जमीन पर बसा है। 2 जनवरी 1919 को यहां भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड आए थे। उन्होंने टाटा समूह के संस्थापक जमशेद जी टाटा के सम्मान में  ‘साकची’ का नाम जमशेदपुर और ‘कालीमाटी’ रेलवे स्टेशन का नाम ‘टाटानगर’ रख दिया। तब से इ🙃स शहर को जमशेदपुर और स्टेशन को टाटानगर के रूप में जाना गया। अभी यहाँ आदिवासी लोग मुख्यतः बिरसानगर एवं आस पास में रह रहे हैं । इस स्थान पर बाहरी लोगों का 1907 के बाद से आगमन बढ़ा एवं रोजी रोजगार के लिए बाहर से आये लोग यहीं बस गए और जो इस साकची गाँव के स्थायी वासी, आदिवासी थे, जो सदियों पहले से यहाँ रह रहे थे विलुप्त हो गए। आदिवासियों की जमीन पर ही कॉलोनी आबाद होती गई। उद्योग-धंधे खुलते गए, लेकिन जिनकी भूमि ली गई उन विस्थापितों के पुनर्वास की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई। औद्योगिकीकरण व शहरीकरण के कारण विस्थापन, और पलायन की समस्या आई और शहर में आदिवासियों की संख्या घटती चली गई। टाटा स्टील, टाटा मोटर्स अन्य कंपनियों में नियोजन के कारण बाहर से बड़ी संख्या में लोग आए और शहर में बसते चले गए। ग्रामीण क्षेत्र की करीब 11 लाख आबादी में लगभग 50% आदिवासी जनसंख्या है। जिले में आदिवासियों की आबादी करीब छह लाख है। यदि टाटा स्टील व दूसरे औद्योगिक घरानों ने आदिवासियों के हित के लिए काम किया होता और उन पर ध्यान दिया होता, तो ऐसी स्थिति नहीं आती। टाटा स्टील की स्थापना के लिए 108 गांवों की जमीन का अधिग्रहण किया गया। आदिवासियों की भूमि चली गई , तत्कालीन प्रबुद्ध जनप्रतिनिधि के अनुसार आज आदिवासी समुदाय के लोग कहां हैं? इसकी जानकारी न तो कंपनी प्रबंधन के पास है और न राज्य सरकार के पास। शहर के विकास एवं नगरीकरण के कारण भी आदिवासी लुप्त होते चले गए। 

सवाल अभी भी वही है, कहाँ चले गए आदिवासी ? क्या इस सवाल की कोई जिम्मेदारी तय करेगा, यदि इसी तरह आदिवासी अपनी भूमि से बेदखल किया जाता रहेगा एवं ढंग से पुनर्स्थापित नहीं किया जाएगा तो संभव है आदिवासियों का अस्तित्व इसी तरह समाप्त होता चला जाएगा।

#संजय_बाडा


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