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कौन अछूत / अजीत शाही



कल मध्यप्रदेश में एक दलित लड़की की पिटाई इसलिए कर दी गई क्योंकि वो जन्माष्टमी के पंडाल के आसपास खड़ी थी. पीटने वाले लोग माली जाति के हैं. मतलब ये है कि मालियों के लिए दलित अछूत है. अगर कोई माली जाति की लड़की यादवों की जन्माष्टमी पंडाल पर भटक कर पहुँच जाए तो यादव भी उसको पीट ही देंगे. हमारे जैसे कायस्थ तो ख़ैर क्या यादव और क्या माली, सभी को छोटी जाति का ही मानते रहे हैं और घर में आने वाले इन जाति के लोगों को चुपके से अलग गिलास में पानी पिलाते रहे हैं.


कायस्थों के मेरे ख़ानदान में मैंने पूरी उम्र एक इंसान नहीं देखा जिसको ये बुरा लगता हो कि हम ब्राह्मणों, ठाकुरों और बनियों से नीचे की पायदान पर हैं. बल्कि बचपन से यही देखा है कि पंडीजी के पैर छूकर आशीर्वाद लेने की होड़ में हर कोई एक दूसरे से आगे है. हम कायस्थ इसी से ख़ुश हैं कि ब्राह्मणों ने हमको अपने एक एक्सक्लूज़िव भगवान दिए हैं. और फिर, अगर बांभन-ठाकुर हमसे ऊपर है तो ये क्यों भूल जाते हो कि कितने सारे हमसे नीचे भी तो हैं? अगर मैं अपने किसी रिश्तेदार को कह भर दूँ कि, भाई, हमको अपने आप को हिंदू समाज में किसी से नीचे नहीं समझना चाहिए और हमें ऐसे समाज से बग़ावत करनी चाहिए जो हम को ब्राह्मण से कम लगाता है तो उलटा मुझे ही लतिया दिया जाएगा.


दरअसल हिंदू धर्म और समाज की ख़ूबी यही है कि हर जाति को ये मालूम है कि उसके ऊपर कौन है और उसके नीचे कौन है. हमारे धर्म-ग्रंथों में, पौराणिक कहानियों में पात्रों की  जाति अमूमन सामने ही रहती है जिससे कि ये सामाजिक ज्ञान सबको रहता है कि भगवानों के बीच भी हमारी जाति का क्या स्टेटस है. ये ज्ञान उदासी या हताशा का नहीं, इत्मीनान का स्रोत है. वो हिंदू ही क्या जिसे ये न मालूम हो किसको हड़काया जा सकता है और किसके सामने हाथ जोड़कर कमर झुकानी है? दिल्ली के चौदह-पंद्रह अंबेडकरवादियों को छोड़ कर मुझे आज तक कोई जाटव, वाल्मीकि, मल्लाह, पासी, खटिक नहीं मिला जिसने अपना परिचय देते हुए कहा हो कि मैं दलित हूँ. कोई ब्राह्मण नहीं देखा जो जातिवादी हो कर भी हंसते हंसते अपनी बेटी की शादी अपनी जाति से नीचे वाली जाति के लड़के से कर दे.


आज से पैंतीस-चालीस साल पहले जब मेरी पीढ़ी के नौजवानों में अंतर्जातीय विवाह होने शुरू हुए तो मजबूरी में लिबरल ढले जा रहे माँ-बाप सबसे पहले ये देखते थे लड़की कहीं हमसे नीचे की जाति में तो नहीं जा रही है? जिस लड़के की प्रेमिका थोड़ी बहुत भी ऊँची जाति की होती थी उस लड़के के माँ-बाप राहत की साँस लेकर हामी भर देते थे. मसलन अगर लड़का ब्राह्मण था और लड़की बनिया तो लड़के के परिवार वालों की कच्ची हो जाती थी. लेकिन लड़की वाले मन ही मन इत्मीनान कर लेते थे कि चलो कम से कम यादव से तो शादी नहीं कर रही है.


चार किताबें पढ़-लिख कर और फ़ेसबुक पर जय भीम लिख देने वाले सोचने लगे हैं कि बस अगले साल नीची जातियाँ बग़ावत करके भारत में फ़्रेंच रेवोल्यूशन का रीमेक बनाने वाली हैं. असलियत ये है कि खटिक भी पंडितजी को मोटा रोकड़ा देकर संडे को सत्यनारायण की कथा करवा रहा है और मंडे को मालियों की जन्माष्टमी पंडाल के बाहर पिट रहा है.


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