अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी का जो सम्मुख हश्र है, जो सूरतेहाल बेहाल है वह यकीनन बीजेपी और उसके समर्थकों के लिए तो बांछें खिला देने वाला है। जो 50 साल से गुलाम थे वह भी पार्टी को नमस्ते करके किनारा कर लिए हैं। कांग्रेस की स्थिति उस हिचकोले खाते समुद्री जहाज की तरह हो गई है जिसका कभी त्रिपाल उड़ जाता है कभी डूबती उतराती उसकी नैया के मजबूत स्तंभ उखड़ जाते हैं। सवाल सिर्फ एक है कॉन्ग्रेस क्या कभी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के अपने पैटर्न से बाहर आ पाएगी? जवाब है बिल्कुल नहीं कभी नहीं, इस युग में तो शायद नहीं ही नहीं... थोड़ा पीछे जाएं तो उस गांधी परिवार में और इस गांधी परिवार में बुनियादी फर्क यही है कि नेहरू जी इंदिरा गांधी के नाम पर पूरे देश में एकजुट थोक के भाव में वोट पड़ते थे। यह सिलसिला राजीव गांधी के समय तक भी रहा मगर उसके बाद कांग्रेस लगातार अपनी भूमिका से इतर होती गई और हाशिए की तरफ खिसकती चली गई।
अब चमत्कार तभी हो सकता है जब या तो पार्टी नेतृत्व में पूरी तरह से आमूलचूल परिवर्तन हो या पार्टी उन लोगों से छुटकारा पाए जिन लोगों में वोट लेने की तो कोई कुव्वत ही नहीं है लेकिन पार्टी पर वह पूरा अपना साम्राज्य बिछाए रखना चाहते हैं ।
साफ लफ्जो में कहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देश भर में सीधे भिड़ जाने वाली क्षमता का कोई नेता जुटा सकती है कांग्रेस? फिलहाल तो ऐसा कुछ नजर नहीं आता है। याद आता है जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सारे विपक्षी बोलते थे मगर इंदिरा गांधी को जब भी मौका लगता था वह किसी का नाम नहीं लेती थी। आज स्थिति यह है कि राहुल गांधी मंच पर नाम ले कर बार-बार चिल्लाते हैं चोर है चोर है चोर है। इसी असमंजस उहापोह में जूझती कांग्रेस में लगातार जमीन दरक रही है। कई बड़े पुराने नेता जो सपने में भी कांग्रेस पार्टी या गांधी परिवार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलते थे उनकी जुबानों के ताले टूट चुके हैं।
राज्य में जब चुनाव होते हैं तो पार्टी बेशक चुनाव जीत जाती है लेकिन क्या हकीकत में उस में केंद्रीय नेतृत्व का योगदान होता है या उन क्षेत्रीय क्षत्रपों का योगदान होता है जो मेहनत करते हैं। जैसे पंजाब में राजा कैप्टन अमरिंदर सिंह और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल।