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रवि अरोड़ा की नजर से.......

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 बिलकिस बानो हाज़िर हो / रवि अरोड़ा



सईद अख्तर मिर्जा समानांतर सिनेमा का चर्चित नाम हैं। उनके निर्देशन में बनी सलीम लंगड़े पे मत रो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और नसीम जैसी फिल्मों को कई महत्वपूर्ण पुरस्कार मिल चुके हैं । हाल ही में चर्चित संस्था सहमत के एक कार्यक्रम में उनसे पुनः मुलाकात हुई। दरअसल सहमत द्वारा स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में हिन्दी की अधिकांश कलात्मक फिल्मों का प्रदर्शन दिल्ली में किया गया था । दो हफ्ते तक चले इन महोत्सव की विशेषता यह थी कि फिल्मों के निर्देशकों और पारखी दर्शकों के बीच सार्थक संवाद का भी एक सत्र रखा गया था । शायद आयोजकों की मंशा विगत 75 सालों में अपने लोकतन्त्र की सतत यात्रा पर एक नज़र डालना ही रहा होगा । सईद अख्तर मिर्जा की फिल्मों के प्रदर्शन में आखरी दिन उनकी फिल्म मोहन जोशी हाज़िर हो दिखाई गई । नसीरुद्दीन शाह, अमजद खान, दीप्ति नवल और प्रसिद्ध लेखक भीष्म साहनी समेत अनेक मंझे हुए कलाकारों द्वारा अभिनीत इस फिल्म में बड़ी खूबसूरती से यह दिखाया गया है कि अदालतों में मुकदमें किस तरह सालों तक लटकाए जाते हैं और वकीलों के अदालती दांवपेच के चलते वादकारियों की कैसे फजीयत होती है। इस कार्यक्रम का जिक्र करने का मंतव्य आपको यह बताना भर है कि फिल्म समाप्त होने पर सईद अख्तर मिर्ज़ा जब दर्शकों से संवाद करने मंच पर आए तो अधिकांश दर्शकों ने फिल्म के बाबत कम और देश की अदालतों की उठापटक पर अधिक चर्चा की। अघोषित रूप से यह आयोजन इस नतीजे पर पहुंचता दिखा कि आज के अदालती हालात उस साल 1984 से भी गए बीते हैं, जब यह फिल्म देश भर में प्रदर्शित हुई थी । 


साल 1984 का जिक्र हो रहा है तो यह भला कैसे याद नहीं आयेगा कि उस साल हुई सिख विरोधी हिंसा के मामले आज तक अदालतों में लटके पड़े हैं। राम मन्दिर का मामला 134 साल तक अदालतों में इधर से उधर घूमा। प्रधान मंत्री और पूर्व प्रधान मंत्री की हत्याओं के मामले भी हमारी अदालतों में खूब भटके हैं। दंगों के मामले तो जैसे अनिर्णय के लिए ही अदालत में भेजे जाते हैं। बदनुमा सूरते हाल को खुद सरकार ने संसद में स्वीकार किया और बताया कि इस समय देश की अदालतों में 4 करोड़ 70 लाख मामले लंबित हैं। चलिए अदालतों के बाबत ज्यादा न कहें और अवमानना का खौफ करें मगर अब ये नया खेल क्या शुरू हो गया है ?  वोटों की अपनी फसल काटने को सरकारें अदालती फैसलों को अपनी जरूरत के हिसाब से परिभाषित कर न्याय व्यवस्था का उपहास क्यों उड़ा रही हैं ? जी हां मैं बिलकिस बानो केस की ही बात कर रहा हूं। छह साल तक अदालतों के चक्कर काट काट कर जिन खूंखार अपराधियों को उसने सजा करवाई, वे कानूनी पेचीदगियों का फायदा उठा कर फिर बाहर हैं। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फिर सुनवाई कर रहा है  यानी बिलकिस के लिए अदालतों की परिक्रमा इस जन्म में खत्म नहीं होगी । सात हत्याओं और गैंग रेप के दोषियों को गुजरात सरकार ने जिस बेशर्मी से स्वतन्त्रता दिवस पर रिहा किया है, बेशक उसकी निंदा अधिकांश सेवानिवृत जज भी कर रहे हैं मगर अदालती दांव पेंच का तो इस मुल्क में कोई तोड़ ही नहीं है ना। चलिए इंतज़ार कीजिए , सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फिल्म मोहन जोशी हाज़िर हो कि तर्ज़ पर एक बार फिर अदालत में पुकार होनी है- बिलकिस बानो हाज़िर हो ।


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