यायावरी का पांचवां पड़ाव (मैक्लुस्कीगंज). / विनोद कुमार राज विद्रोही
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इस यायावरी में मेरे साथ हैं टंडवा के पत्रकार रविंद्र बख्शी जी। हम दोनों रास्ते की खूबसूरती को निहारते, जगह-जगह रुकते, पुरातात्विक धरोहरों और मेगालिथ स्थलों की खोज करते हुए मैक्लुस्कीगंज पहुंचे। बहुत ही खूबसूरत प्राकृतिक सुषमा से आच्छादित एक पहाड़ी कस्बा है मैक्लुस्कीगंज। जहां किसी जमाने में लगभग तीन सौ एंग्लो इंडियन परिवार रहा करते थे। आज की तारीख में यहां एक-डेढ़ दर्जन लोग ही रह गए हैं। कभी मैक्लुस्कीगंज को "झारखंड का लंदन"और "अंग्रेजों का गांव"भी कहा जाता था। मैक्लुस्कीगंज की स्थापना के बारे में यह कहा जाता है कि 1933 में सोसाइटी ऑफ इंडिया द्वारा इसकी स्थापना की गई थी। जिसमें एडवर्ड थॉमस मैक्लुस्की (कुछ लोगों के अनुसार अर्नेस्ट टिमोथी मैक्लुस्की) का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। उन्होंने इसकी स्थापना के एक वर्ष पहले पूरे भारत में रह रहे एंग्लो इंडियन को मैक्लुस्कीगंज में बसने के लिए लगभग बीस हजार लोगों को न्योता भेजा था। उनके आमंत्रण- आग्रह को लगभग तीन सौ परिवारों ने अपना समर्थन दिया और वे सभी यहां आकर बसे। बाद में अर्नेस्ट टिमोथी मैक्लुस्की को दस हजार एकड़ जमीन रातू महाराज के द्वारा पट्टे पर मिली। तत्पश्चात उन्होंने एक सोसाइटी का गठन कर रातू महाराज के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। उसके बाद बस्तियां आबाद होती चली गई। वह दौर भी कितना हसीन रहा होगा, जब तीन सौ एंग्लो इंडियन परिवार एक साथ इस छोटे से कस्बे में घने जंगलों के बीच रहते होंगे। बड़े-बड़े, सुंदर-सुंदर कॉटेज, कोठियां और हवेली होंगे। स्थानीय लोगों के पर्व-त्यौहार, मेले आदि में शिरकत करते होंगे। कितना गुलजार होता होगा यह कस्बा। लेकिन समय के थपेड़ों ने इस बरगद रूपी एंग्लो इंडियन परिवार के दरख़्तों को कमजोर करना शुरू किया और वे सूख कर टूटने लगे। बिखरने लगे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ये लोग यहां से पलायन करने लगे। बहुत सारे परिवार अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया सहित यूरोपीय देशों में चले गए। लेकिन कुछ ऐसे भी एंग्लो इंडियन परिवार हैं जो आज भी यहां रहते हैं। यहां के रीति-रिवाजों में रचे बसे। वे सिर्फ शरीर से अंग्रेज दिखते हैं। लेकिन रहन-सहन, बोली-भाषा, खान-पान, पहनावा में बिल्कुल खाटी झारखंडी। ये अंग्रेजी भी बोलते हैं, हिंदी भी बोलते हैं और स्थानीय बोली नागपुरी और खोरठा। प्रसिद्ध पत्रकार विकास कुमार झा जी ने यहां से संबंधित एक पुस्तक (उपन्यास) लिखा है- "मैक्लुस्कीगंज"। जो राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से 2010 में प्रकाशित हुआ है। जिसकी तसवीर मैं कमेंट बॉक्स में शेयर कर रहा हूं। आप लोग देख सकते हैं। इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या-5 में अपनी बात (बस यही!) के तहत विकास कुमार झा जी लिखते हैं- "मैकलुस्कीगंज'आज भी अपनी पीड़ा में पहले की तरह ही उलझा है। इस उलझन में ही दुनिया का यह एकमात्र एंग्लो इंडियन ग्राम मुसकता भी है और आंसू भी बहाता है। पर जिंदगी कुछ चीज ही ऐसी है जो, हर हाल में चलती रहती है। अनगिनत उतार-चढ़ाव के बावजूद 'मैकलुस्कीगंज'भी अपने स्वभाव के अनुरूप जीवन की पटरी पर चल रहा है और चलता रहेगा। इस उपन्यास में वर्णित हांगकांग की भी वही स्थिति है। 99 वर्षों का पट्टा खत्म होने के बाद वर्ष 1997 से हांगकांग ब्रिटिशों के शासन से निकलकर चीन के हाथों में है। 99 वर्षों के अतीत का गहरा निशान हांगकांग के जीवन में आज भी है। फिर भी 'गंज'की तरह वहां भी जिंदगी को चलनी है, सो चल रही है।"
बाहरहाल, हम दोनों मैक्लुस्कीगंज पहुंचे। रविंद्र जी ने स्थानीय पत्रकारों को फोन किया। कुछ से बातें हुई। जिनमें कई बाहर निकले हुए थे, तो एक-दो रिपोर्टिंग के सिलसिले में यहां से दूर थे। एक ने पत्रकार जितेंद्र गिरी का नंबर दिया। जिनका घर मैक्लुस्कीगंज में ही था। उनसे बातें हुई और हम दोनों कुछ ही देर में उनके घर पहुंच गए। चाय नाश्ते के दरमियां जितेंद्र जी से मैक्लुस्कीगंज के बारे में बहुत सी बातें हुई। कई अहम जानकारियां प्राप्त हुई। इसके पूर्व 22 साल पहले, जब मैं पत्रकारिता करता था, मैक्लुस्कीगंज आया था। उस समय मेरे साथ दैनिक भास्कर के पत्रकार मित्र गणेश कुमार जी थे। उस समय के मैक्लुस्कीगंज और आज के मैक्लुस्कीगंज में बहुत कुछ अंतर नहीं नजर आया। लेकिन कुछ और ही बिखरा नजर आया। जितेंद्र जी से जब मैं सबसे पुराने परिचित हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार उग्रसेन गिरी, जो पिछले 30 सालों से वहां पत्रकारिता कर रहे हैं, के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उनकी तबीयत खराब है। यह जानकर उनसे मिलने की प्रबल इच्छा हुई। शाम को लौटने के दरमियां उनके घर जाने का निर्णय हुआ। लेकिन अफसोस, घर से कुछ जरूरी फोन आया तो शाम को दूसरे रास्ते से लौटना पड़ा। लौटते-लौटते रात हो गई
खैर जितेंद्र जी को साथ लेकर वहां से हम लोग एंग्लो इंडियन परिवार की वरिष्ठ सदस्य किटी मेमसाब के यहां गए। इनका मूल नाम केटी टैक्सरा है। लेकिन स्थानीय लोग इन्हें ससम्मान शुरू से ही किटी मेमसाब से संबोधित करते हैं। ये अंग्रेजी, हिंदी, नागपुरी मिश्रित खोरठा में भी बातें करती है। जब हम लोग उनके घर पहुंचे तो वे भोजन कर रही थीं। भोजनोपरांत जब वे आई तो उन्होंने बताया कि कई दिनों से उनकी तबीयत खराब है। बुखार आ जा रहा है। कुछ देर तक उनसे बातें हुई। उनके जीवन से संबंधित कई अनछुए पहलुओं से वाकिफ हुआ। कई मिनट का पांच-छः वीडियो भी बनाया और वहां की सभ्यता-संस्कृति, बीते हुए लम्हों की कसक और पड़ाव दर पड़ाव विकास की कहानी को जाना। (बाकी कथा फिर कभी कहूंगा। क्रमशः)