क्या आप जानते है ‘मुंशी’ और ‘प्रेमचंद’ दो अलग - अलग व्यक्ति थे ?
प्रेमचंद ने अपने नाम के आगे 'मुंशी'शब्द का इस्तेमाल खुद कभी नहीं किया। न किसी ख़त में इसका ज़िक्र मिलता है न किसी समकालीन लेखकों के संस्मरणों में प्रेमचंद के साथ मुंशी शब्द का जिक्र है। साल 1935 की ‘हंस पत्रिका’ में वो अपने उपनाम ‘नवाबराय’ पर मजाक करते जरूर पढ़े गए। दरअसल बाद में उन्होंने ‘नवाबराय’ नाम छोड़ दिया था।
उस संस्मरण में एक किस्सा था। जब लेखक और उनके दोस्त सुदर्शन जी ने उनसे पूछा कि - “आपने ‘नवाबराय’ नाम क्यों छोड़ दिया ?” तो प्रेमचंद ने कहा "नवाब वह होता है जिसके पास कोई मुल्क हो। हमारे पास मुल्क कहां?"सुदर्शन बोले "बे-मुल्क नवाब भी होते हैं"प्रेमचंद ने मुस्कुरा कर जवाब दिया "यह कहानी नाम हो जाय तो बुरा नहीं, मगर अपने लिए यह घमंडपूर्ण है। चार पैसे पास नहीं और नाम नवाबराय। इस नवाबी से प्रेम भला, जिसमें ठंडक भी है और संतोष भी।
पर सवाल ये है कि जब प्रेमचंद ने अपने नाम के आगे कभी 'मुंशी'नहीं लगाया तो उनका नाम 'मुंशी प्रेमचंद'कैसे पड़ा। दरअसल इसकी वजह भी 'हंस'पत्रिका है। हुआ यूं कि 'मुंशी'शब्द असल में 'हंस'के सह-संपादक कन्हैयालाल मुंशी के साथ लगता था। क्योंकि संपादक दोनों थे इसलिए संपादको के नाम की जगह पर 'मुंशी, प्रेमचंद'लिखा जाता था। ये सिलसिला लंबा चला। कई बार ऐसा भी हुआ कि छपाई के दौरान ‘अल्पविराम’ न छपने के वजह से नाम ‘मुंशी प्रेमचंद’ छप जाता था। लगातार ऐसा छपने के बाद लोगो ने इसे एक ही नाम समझ लिया और इस तरह प्रेमचंद जी “मुंशी प्रेमचंद” हो गए।
प्रेमचंद को पढ़ा जाना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अगर ये महान कथा शिल्पी न होते तो शायद हम अपनी आत्मा से इतना न जुड़ पाते।