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दलाल मीडिया की बेशर्मी का हाल

 श्रीनिवास-

पतन की कोई तो सीमा होगी, पत्रकारिता के पतन का यह शर्मनाक दौर… कथित प्रमुख न्यूज चैनलों पर ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का एक तरह से बहिष्कार कुछ अजीब नहीं लगता? आप कांग्रेस को नापसंद कर सकते हैं. आप उसकी नीतियों से असहमत हो सकते है. राहुल गांधी आपको नकारा लग सकता है. लेकिन एक पत्रकार होने के नाते किसी जरूरी खबर को गायब कैसे कर देंगे? क्या ‘भारत जोड़ो यात्रा’ सचमुच इतना ही महत्वहीन कार्यक्रम है, कि आपने जान लिया कि उसके प्रति आपके शोताओं- दर्शकों की कोई रुचि नहीं है?

या तो कुछ नहीं दिखाएँगे; या उसमें कुछ नकारात्मक खोज निकालेंगे! कुछ चैनल तो भाजपा आईटी सेल का भोंपू ही बन गए हैं. जब कभी यह निजाम बदलेगा, मीडिया की अच्छे-बुरे काम, उनकी  कारगुजारिर्यों का लेखा-जोखा तो दर्ज होगा ही. जब भी इस दौर की मीडिया का इतिहास लिखा जायेगा, कहाँ पाए जायेंगे ये चैनल और इनके भाजपाई कर्यकर्तानुमा पत्रकार?

इमरजेंसी के दौरान भी अनेक ‘बड़े’ पत्रकार और संपादक इंदिरा गांधी के सामने नतमस्तक हो गये थे. उस स्थिति का कलां करते हुए आडवाणी जी ने कहा था- सरकार ने झुकने कहा था और पत्रकार दंडवत करने लगे.

फिर भी माना जा सकता है कि तब एक स्पष्ट खौफ था. गिरफ्तारी का डर भी था शायद. कितने रीढ़विहीन थे वे ‘यशश्वी’ सम्पादक कि इमरजेंसी में हो रहे विकास का समर्थन करने के बाद सरकार बदलते ही प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से मिल कर अपनी भूल  (इमरजेंसी का समर्थन करने की) के लिए क्षमा मांग ली.

संभवतः माध्यम वर्ग के बहुतेरे जुबानी क्रांतिकारियों का मूल चरित्र ही यही है. 

लेकिन आज तो अधिकतर पत्रकार बिना पार्टी (भाजपा) में शामिल हुए उसके कार्यकर्त्ता की तरह व्यवहार करने लगे हैं! लेकिन मेरे ख्याल से ऐसा  सिर्फ भय या किसी प्रलोभन के कारण नहीं हो रहा है, ये सभी ‘हिंदू राष्ट्र निर्माण’ के लिए जारी महायज्ञ में शामिल हो  हैं. और शायद इनको विश्वास हो कि ऐसा होगा ही, कि फिर कभी ऐसा दिन नहीं आएगा, जब कोई उनसे इस दौर में उनके छिछोरेपन, उनकी निर्लज्जता पर कोई सवाल करेगा. 

पत्रकारों का दलाली करना, कमीशन खाना, खबर छापने या दबाने के लिए पैसे लेना – यह सब तो कमोबेश हमेशा चलता रहा है. लेकिन यह एक अलग किस्म का पतन है.

क्या सचमुच यह दौर यूं ही चलता रहेगा? मीडिया यूं ही बेशर्म और  सत्ता की चाकर बनी रहेगी. और नीचे और नीचे गिरती जायेगी? इस पतन की कोई सीमा तो होगी. इस घुटन का कभी तो अंत होगा? कभी ‘पत्रकार’ कहलाने में थोड़े गर्व का अनुभव होता था. हालाँकि तब भी पत्रकारों का  गैजरूरी महिमामंडन होता था, जो अच्छा नहीं लगता था. लेकिन अब तो पटकार पत्रकार कहलाना अपमानजनक लगने लगा है!  

श्रीनिवास

रांची



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