दुनिया में इंसानी आबादी के आठ सौ करोड़ तक पहुंचने की खबर आपकी निगाह से भी गुजरी होगी। इसी ख़बर के साथ नत्थी यह जानकारी भी आप तक अवश्य पहुंची होगी कि अगले कुछ महीनों में आबादी के लिहाज़ से हम चीन को भी पीछे छोड़ दे देंगे। जाहिर है कि इतनी बड़ी ख़बर होगी तो उस पर राजनीति भी होगी। शायद यही वजह है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण कानून जैसे मुद्दे फिर हवाओं में हैं। यकीनन देश भक्त और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला हरेक नागरिक इन कानूनों का स्वागत ही करेगा । इसमें कोई दो राय भी नहीं कि देश की बढ़ती आबादी पर नियंत्रण और जाति धर्म से ऊपर उठ कर सबके समान लोकतांत्रिक अधिकार समय की जरूरत हैं मगर इनकी आड़ लेकर किसी खास धर्म को मानने वालों को निशाना बनाना कहां तक उचित है ? बेशक आजादी के बाद से देश में मुस्लिमों की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है मगर क्या इसका कारण केवल उनका धर्म ही था ? अशिक्षा और बदहाल आर्थिक स्थिति का क्या इससे कोई लेना देना नहीं ? देश के हित में जो भी आवश्यक हो, वह हर कानून बनना ही चाहिए मगर क्या उसके लिए सही कारणों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए ?
मोदी सरकार ने 2021 में प्रस्तावित जनगणना अभी तक नहीं कराई है। इसे अब कब कराया जायेगा , यह किसी को नहीं मालूम। सरकार ने इसे न कराने का कारण कोरोना संकट को बताया था जबकि कोरोना काल में हुई जन हानि का सही सही आकलन करने के लिए यह बेहद जरूरी थी । यह जनगणना यदि हुई होती तो यह भी स्पष्ट हो जाता कि मुल्क में आबादी बढ़ने का असली कारण अशिक्षा और गरीबी ही है। धर्म के पैमाने से इतर जो राज्य गरीब हैं वहां आबादी तेजी से बढ़ी और जो संपन्न हैं वहां कमोवेश कम बढी। यकीनन आजादी के बाद 1951 में हुई पहली जनगणना के मुकाबिल मुसलमानों के प्रतिशत में अब तक चार फीसदी का इजाफा हुआ है मगर देश में शिक्षा तक सभी वर्गों की पहुंच के चलते अब यह इजाफा लगभग थम सा गया है और हिंदुओं के 1. 94 फीसदी के मुक़ाबिल उनका प्रतिशत 2. 36 तक सिमट गया है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार गरीब और अशिक्षित राज्यों के हिंदुओं का प्रतिशत शिक्षित और तुलनात्मक रूप से संपन्न राज्यों के मुस्लिमों से ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में हिन्दुओं की जन्मदर 2.29 प्रतिशत है जबकि तमिलनाडू के मुस्लिमों में यह मात्र 1. 93 ही है। साफ नज़र आ रहा है कि आबादी का धर्म से नहीं अशिक्षा और आर्थिक स्थिति से लेना देना है । आंकड़े गवाह हैं कि देश में 25 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अभी भी अनपढ़ हैं और मात्र बीस फीसदी ने ही बारहवीं तक पढ़ाई की है। समाज की 47 फीसदी महिलाओं की गर्भनिरोधक तक पहुंच भी नहीं है। मुस्लिम महिलाओं में रोजगार का आंकड़ा तो और भी बदनुमा है मगर आबादी बढ़ने के इन असली कारणों पर देश में चर्चा ही नहीं होती। बेशक धार्मिक मान्यताओं को एक दम बरी नहीं किया जा सकता मगर असली कारण धर्म ही होता तो साल 1951 में जिस कौम की महिलाएं 5. 9 तथा वर्ष 1992 में 4. 4 और 2015 में 2.6 की दर से बच्चे पैदा कर रही थीं, वे घटते घटते अब 2. 36 की दर तक न पहुंचती।
पिछले सत्तर सालों में हिन्दुओं ने भी लगभग इसी अनुपात में अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण का प्रयास किया है। अब हो सकता है कि ये सभी आंकड़े आपकी आंखों के आगे कोई सुनहरी तस्वीर पेश करते हों मगर हमें सोचना होगा कि केवल शिक्षा देने भर से पूरी तरह बढ़ती आबादी पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता । आर्थिक हालात सुधरने भी बेहद जरूरी हैं मगर जब देश के अस्सी करोड़ नागरिकों को मुफ्त के अनाज पर जिंदा रखा जा रहा हो तो पता नहीं ऐच्छिक लक्ष्य कैसे हासिल होगा ? अनुमान है कि साल 2047 में अपने चरम यानि एक अरब 61 करोड़ की ऊंचाई से पहले हमारी आबादी नीचे नहीं आयेगी। मगर आज के आर्थिक हालातों को देख कर तो यह आशंका होती है कि तब भी ऐसा हो पायेगा अथवा नहीं।