दिलीप ने अभिनय को महज एक पेशा मानकर ख़ुद को रिहर्सल, रिटैक और ओके तक ही सीमित नहीं रखा था। वे पटकथा, संवाद, फोटोग्राफी, संपादन सहित फ़िल्म से जुड़े दूसरे तमाम पहलुओं पर भी बारिकी से नज़र रखा करते थे। यह एक दिलचस्प संयोग है कि दिलीप के कैरियर के उत्कर्ष का दौर वही था, जो हिंदी फ़िल्म संगीत के स्वर्णिम काल का था। हिंदी फ़िल्मों की सबसे मजबूत त्रयी दिलीप-देव और राज के अपने-अपने संगीतकार और अपने-अपने पार्श्व गायक थे। जहाँ राज कपूर के लिए यह दायित्व शंकर जयकिशन और मुकेश ने लिया, वहीं देव के लिए इन दोनों डिपार्टमेंटों का ज़िम्मा क्रमशः एस डी बर्मन और किशोर कुमार के पास था। दिलीप कुमार के लिए यह काम नौशाद और मोहम्मद रफी ने सम्हाला। अभिनय और संगीत पक्ष का यह आबंटन कोई थंब रुल नहीं था और बाज़ मौकों पर भूमिकाएं बदल भी जाती थीं (मसलन शंकर जयकिशन ने दिलीप की ‘यहूदी’ और ‘दाग’ में और देव आनंद की ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘असली नकली’, ‘लव मैरिज’ और ‘दुनिया’ में भी संगीत दिया था), लेकिन समग्रता में देखें तो तीनों की अपनी-अपनी टीमें थीं।
मोहम्मद रफी को दिलीप के लिए मुफीद गायक बनने में वक्त लगा था। इसके पहले उनके लिए तलत (ऐ मेरे दिल कहीं और चल/ ये हवा ये रात ये चाँदनी/ मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का/ शामे ग़म की कसम) और मुकेश (याद रखना चाँद तारों इस सुहानी रात को/ गाए जा गीत मिलन के/ झूम झूम के नाचो आज) जैसे गीत सफलतापूर्वक गा चुके थे। यहाँ तक कि रफी भी दिलीप के लिए ‘जुगनू’ में ‘यहाँ बदला वफा का’ गाकर दृश्य पटल से ओझल हो चुके थे। लेकिन जब ‘दीदार’ की घोषणा हुई और उसके गानों की रेकॉर्डिंग की तैयारियां शुरू हुई, तो नौशाद साहब सीधे दिलीप के पास पहुँचे। वे ‘अमर’ की शुटिंग कर रहे थे। नौशादसाहब ने शॉट ख़त्म होते ही दिलीप को पकड़ा और उनके कंठ को दबाते हुए कहा, ‘तुम्हारे लिए ऐसा गायक होना चाहिए, जो इस जगह को पकड़े। मेरी बात ध्यान रखना, तुम्हारे इस हलक के लिए सबसे मुफीद गायक मोहम्मद रफी ही है’। दिलीप नौशाद की बहुत इज्ज़त करते थे। उन्होंने उनका सुझाव तुरंत माना और ‘दीदार’ का पहला गीत ‘मेरी कहानी भूलने वाले तेरा ज़हां आबाद रहे’ बना।
इसके बाद तो किसी एक ने ही नहीं, तीनों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेला (ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे),आन (दिल में छुपा के प्यार का तूफान ले चले), उड़न खटौला (ओ दूर के मुसाफिर हमको भी साथ ले ले रे ;ना तूफां से खेलो ना साहिल से खेलो), गंगा जमुना (नैन लड़ जई है तो मनवा मा कसक हुई बे करी), कोहिनूर (कोई प्यार की देखे जादूगरी, गुलफाम को मिल गई सब्जपरी), लीडर (तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूँ), दिल दिया दर्द लिया (कोई सागर दिल को बहलाता नहीं), राम और श्याम (आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले), आदमी (आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज़ न दे), संघर्ष (मेरे पैरों में घूंघरू बंधा दे) तक उनके हर गीत पर लोग झूमते रहे।
दिलीप नौशाद की बात को कितना महत्व देते थे, इसका सबूत देने के लिए एक ही उदाहरण काफी होगा। जब ‘गंगा जमुना’ बननी शुरू हुई, तो खड़ी हिंदी में संवाद लिखने के लिए वजाहत मिर्ज़ा को साइन किया गया। तभी नौशाद ने सुझाव दिया कि हिंदी के बजाए उत्तर प्रदेश की आंचलिक बोली में जब डाकू बोलेगा, तो वह ज़्यादा विश्वसनीय लगेगा। दिलीप को पहले लगा कहीं यह हास्यास्पद न हो जाए। लेकिन नौशाद का आग्रह कैसे टालें? उन्होंने वज़ाहत के साथ बैठकर कुछ सीन पुरबिया भाषा में लिखवाए और जज के तौर पर शशधर मुखर्जी और हितेन चौधरी को सामने बिठाकर रिहर्सल शुरू की। इन दोनों लोगों को जज इसलिए बनाया गया, क्योंकि इनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी और ये ही सही निर्णय ले सकते थे। जैसे ही दिलीप ने संवाद दागा, दोनों जजों ने खड़े होकर अभिवादन किया। इसी के साथ फैसला हो गया कि अब गंगा जमुना भोजपुरी में ही बनेगी। लेकिन एक दुविधा भी थी। फ़िल्म की नायिका वैजयंती माला की मातृभाषा तमिल थी और उनके बारे में यह कहा जाता था कि वे (आजकल के तमाम हीरो-हीरोइनों की तरह) अपने संवाद रोमन लिपि में लिख कर याद करती हैं, वे भोजपुरी कैसे बोलेंगी? लिहाज़ा उन्हें भोजपुरी सिखाने के लिए राममूर्ति चतुर्वेदी की सेवाएं ली गईं। वैजयंती ने दम लगा दिया और जब एक महीने बाद धन्नो ने अपने संवाद गटागट बोलने शुरू किए तो नौशाद, दिलीप समेत पूरी युनिट स्तब्ध थी।
दिलीप कुमार और नौशाद का यह साझा सफर और भी आगे चलता, लेकिन तत्कालीन सिने संगीत के बदलते मुहावरों में नौशाद साहब का संगीत फिट नहीं बैठ रहा था। ‘राम और श्याम’ भले सुपर हिट हो गई थी, लेकिन उसका संगीत अपने दौर के गतिशील संगीत के मुकाबले उतना लोकप्रिय नहीं हो पाया था। सत्तर के दशक की शुरुआत में दिलीप के साथ उस दौर के लोकप्रिय संगीतकार कल्याणजी आनंदजी (‘गोपी’ और ‘बैराग’) और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल (दास्तान) जुड़े। ‘गोपी’ में तो रफी (दुःख के सब साथी, सुख में ना कोय) के अलावा महेंद्र कपूर (एक पड़ोसन पीछे पड़ गई, जंगली जिसका नाम) ने भी पार्श्व गायन किया। अलबत्ता ‘बैराग’ (पीते पीते कभी कभी यूं जाम बदल जाते हैं) और ‘दास्तान’ (न तू जमी के लिए है ना आसमां के लिए) में रफी साहब पूरी ठसक के साथ मौजूद थे। दिलीप ने किशोर को भी आजमाया। एस डी बर्मन ने अपने प्रिय गायक किशोर कुमार से ‘सगीना’ में ‘साला मैं तो साब बन गया’ जैसा सुपर हिट गीत गवाया। दिलीप के नायक के रूप में ढलते करियर के ये गीत लोकप्रिय तो हुए, लेकिन न तो ये फिल्में चलीं और न लोग दिलीप के इस अवतार को पचा पाए।
बाद में अस्सी के दशक में दिलीप ने चरित्र अभिनेता के रूप में एक नया अवतार लिया, जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया। इस दौरान उनके द्वारा अभिनीत फिल्मों में जहां महेंद्र कपूर ने ‘क्रांति’ (शीर्षक गीत, संगीत: लक्ष्मीकांत प्यारेलाल), ‘शक्ति’ (‘मांगी थी इक दुवा वो कुबूल हो गई’, संगीत: आर डी बर्मन) और ‘मजदूर’ (‘ना ना हो गया दीवाना’, संगीत: आर डी बर्मन) में दिलीप को आवाज दी, तो ‘कर्मा’ में ‘पूछे मेरी बीवी डू यू लव मी’ (संगीत: लक्ष्मीकांत प्यारेलाल) गीत में खुद ही गायन किया। ‘विधाता’ में कल्याणजी आनंदजी ने रफी की ही परछाई अनवर से ‘हाथों की चंद लकीरों का’ गीत गवाया, तो ‘सौदागर’ में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने रफी के ही अनुयायी मोहम्मद अजीज से ‘इमली का बूटा, बेरी का पेड़’ गवाया। यह दिलचस्प संयोग है कि इनमें से अधिकांश फिल्में भी सफल हुईं और उनका गीत संगीत भी चला। लेकिन दिलीप-रफी-नौशाद की उस मधुर, गरिमामय और गहन तिकड़ी की सुधि सिने संगीत प्रेमियों ने शिद्दत से कमी महसूस की। आज भी जब दिलीप की बात चलती है तो सहज ही पचास और साठ के दशक के वे तराने याद आ जाते हैं, जिनमें नौशाद साहब की रसीली धुन, रफी की सुकोमल आवाज का स्पर्श पा खिल उठती थीं और लोग उन नगमों पर कभी झूम उठते थे, तो कभी अफ़सुरर्दगी के आलम में कहीं खो जाते थे।
शशांक दुबे
236, महाश्वेता नगर, बिड़ला अस्पताल के पास, नानाखेड़ा, उज्जैन 456010
(इंद्रधनुषी फिल्म पत्रिका पिक्चर प्लस के जनवरी 2023 अंक में प्रकाशित लेख की वर्ड प्रति। कृपया उक्त आलेख को कॉपी पेस्ट या साझा करते समय मूल लेखक का नामोल्लेख अवश्य करें)
शशांक दुबे