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राजघाट बापू और मार्टिन लूथर किंग जूनियर / विवेक शुक्ल

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राजघाट बापू और  मार्टिन लूथर किंग जूनियर / विवेक शुक्ल 



 11 फरवरी, 1959। दिल्ली में उस दिन ठंडी हवाएं चल रही थी। आजकल की तरह सर्दी से ठिठुरन हो रही थी। पर राजघाट में कुछ हलचल अवश्य थी। महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर फूल चढ़ाने मार्टिन लूथर किंग जूनियर आ रहे थे। वे तब तक सारे संसार में अश्वेतों के सबसे आदरणीय नेता के रूप में अपने को स्थापित कर चुके थे। उनके साथ उनकी पत्नी कोरेटा किंग भी थीं। राजघाट पर बापू को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनकी  आंखों से  आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी। वे कुछ संभले तो वहां पर उपस्थित लोगों ने उनसे पूछा कि ‘आपकी आंखें नम क्यों हो रही हैं?’ मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने आसमान की ओर देखते हुए उत्तर दिया –  ‘गांधी से मुझे शक्ति मिलती है। वे मेरे मार्गदर्शक हैं। मैं गांधी के दिखाए सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर  ही अमेरिका में दबे-कुचले अश्वेतों के पक्ष में संघर्ष करने के लिए प्रेरित होते हैं। गांधी  के कारण भारत लिए तीर्थ स्थान की तरह है।’ वे जब यहां पधारे थे उससे करीब चार-पांच साल पहले राजघाट परिसर और समाधि बनाई गई थी। उनसे पहले और बाद में राजघाट में लाखों लोग आए हैं। आज बलिदान दिवस पर भी यहां पर राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री से लेकर तमाम लोग उपस्थित रहेंगे।


राजघाट  में समाधि का डिजाइन


गांधी जी की हत्या के कई सालों के बाद तक राजघाट उसी स्थिति में था जैसा वह गांधी जी की अंत्येष्टि के दिन यानी 31 जनवरी 1948 को था। हालांकि सरकार इसे विकसित करने की योजना तो बना ही रही थी। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राजघाट का डिजाइन कोई विदेशी डिजाइनर तैयार कर ले। इस लिहाज से अमेरिका के महान आर्किटेक्ट फ्रेंक लायड राइट से भी संपर्क किया गया था। पर इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि संसद में विपक्ष ने तगड़ा बवाल किया था। विपक्ष की मांग थी कि बापू की समाधि का डिजाइन कोई भारत का ही डिजाइनर तैयार करे। इसके बाद ये महत्वपूर्ण दायित्व वानू जी. भूपा को सौंपा गया। पर इससे पहले देश के चोटी के डिजाइनरों से संपर्क किया गया। उन्होंने भी राजघाट में समाधि स्थल का डिजाइन तैयार करने में अपनी दिचलस्पी दिखाई थी। लगभग दो दर्जन डिजाइनरों ने सरकार को अपने पहले किए गए काम और उनकी राजघाट के डिजाइन करने संबंधी योजना की रिपोर्ट सौंपी थीं। इन सबके कामों और राजघाट के संभावित डिजाइनों का गहराई से अध्ययन किया था केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग ( सीपीडब्लूडी) के चीफ आर्किटेक्ट हबीब रहमान  और इसी विभाग के चीफ इंजीनियर टीएस वेदागिरी ने। पंडित नेहरू ने इन दोनों को निर्देश दिए थे वे डिजाइनरों के राजघाट के डिजाइन के लिए प्रोजेक्ट कॉस्ट पर भी नजर रखें। नेहरू जी इस सारी प्रक्रिया  पर नजर बनाए हुए थे। हबीब साहब और वेदागिरी को मिले विभिन्न डिजाइनों में राजघाट का एक डिजाइन दक्षिण भारतीय मंदिर की वास्तुकला से मिलता-जुलता भी था।  एक-दो में बापू चरखे के साथ या चरखे के बगैर भी बैठे हैं। खैऱ, अंत में भूपा के डिजाइन  पर मुहर लगी। अमेरिका में शिक्षित थे भूपा जी। उन्होंने  बापू की सादगी के प्रति निष्ठा को ध्यान में रखते हुए सारे परिसर का डिजाइन को तड़-भड़क से दूर  'सीधा-सरल'रखा गया है।  यहां पर  ज्योति सदैव प्रज्जवलित रहती है। वह संदेश देती है कि बापू के संदेश और शिक्षाएं सदैव संसार के लिए प्रासंगिक और महत्वपूर्ण रहेंगे।


गरिमामय सादगी


बेशक, भूपा के डिजाइन में एक तरह की गरिमामय सादगी थी। उन्होंने राजघाट परिसर के बीचों-बीच एक वर्गाकार स्पेस में समाधि बनाई। उस पर बापू के बोले अंतिम शब्द ‘हे राम’ रखे। भूपा ने समाधि के चारों तरफ बड़ा सा स्पेस हरियाली के लिए छोड़ा।  अगर बात राजघाट से हटकर करें तो भूपा जी ने इसके अलावा शायद ही राजधानी में कोई अन्य प्रोजेक्ट पर काम किया। इस बीच,राजघाट परिसर की लैंड स्केपिंग की थी मेरठ में जन्में एंग्लो इंडियन एलिश पर्सी लैंकस्टेर ने।  वे  भारत सरकार के बागवानी विभाग से जुड़े रहे थे।


वहां के पेड़-पौधे


राजघाट में वर्ष 1950 से विशिष्ट विदेशी मेहमान  पौधा लगा रहे हैं। अब तक राजघाट पर  200 पौधे लगाए जा चुके हैं। अंतिम पौधा 11 फरवरी 2016 को अबू धाबी के युवराज व संयुक्त अरब अमीरात के सर्वोच्च उपसेनाध्यक्ष मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान द्वारा मोलश्री का पौधा लगाया था। दुर्भाग्यवश  देखभाल में लापरवाही के चलते विशिष्ट विदेशी अतिथियों द्वारा लगाए गए पेड़ सूखते भी रहे हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री कृष्णा प्रसाद भट्टाराई द्वारा 9 जून 1990 को लगाया गया कदंब का पेड़ सूख गया है। इसी तरह 21 जनवरी 1961 को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय द्वारा राजघाट पर लगाए गए पाइनस लोंजीफोलिया के पेड़ का अब अस्तित्व नहीं है।


कब-कब आए ओबामा


अमेरिकी के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा राजघाट पर बापू को श्रद्धांजलि देने दो बार आए। ओबामा अक्सर अपने जीवन पर महात्मा गांधी के प्रभाव का जिक्र करते रहे हैं। वे क्रमश: 2012 और 2015 में अपनी भारत यात्रा के समय राजघाट आए थे। उन्हें 20 फरवरी, 2015 को राजघाट यात्रा के समय


 गांधी के प्रसिद्ध ‘चरखा’ की प्रतिकृति भेंट की गई थी। ओबामा ने यहां पर पीपल का पौधा भी लगाया और विजिटर्स बुक पर लिखा था। उन्होंने लिखा था- ‘मुझे राजघाट पर आकर अपार आनंद की अनुभूति हो रही है। गांधी जी मेरे नायक रहेंगे।’ओबामा ने 2009 में नोबेल शांति पुरस्कार स्वीकार करने के दौरान भी गांधी जी को याद किया था। यह पूछे जाने पर कि ‘जीवित या मृत शख्सियतों में से कौन उनके पसंदीदा हैं,’ तब उन्होंने बापू का नाम लिया था। दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला यहां 1995 में आए। वे जब यहां पर आए तो उन्होंने प्रोटोकॉल को नजरअंदाज करते हुए राजघाट के तमाम कर्मियों से हाथ मिलाए थे।


 कब आए मुशर्रफ़ 


परवेज मुर्शरफ संभवत: पाकिस्तान की पहली बड़ी शख्सियत थे, जो राजघाट में पहुंचे थे। उस दिन राजधानी में कसकर बारिश हो रही थी। हालांकि वे जब राजघाट पहुंचे तो बूंदा-बांदी ही हो रही थी। वे 17 जुलाई,2001 को राजघाट गए थे। खबरिय़ा चैनलों से दिखाई जाने वाली तस्वीरों से साफ लग रहा था कि वे राजघाट पर पहुंचने के बाद से ही बेहद तनाव में थे। उन्होंने वहां पर विजिटर्स बुक में बापू की शख्सियत के बारे में कुछ लिखा भी था। तब कुछ ग्राफोलोजिस्ट ( हैंड राइटिंग के विशेषज्ञ) ने उनकी हैंड राइटिंग का अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मुशर्रफ राजघाट पर विजिटर्स बुक पर लिखते वक्त भी तनाव में थे। मुशर्रफ राजघाट से फारिग होने के बाद अपने ननिहाल दरियागंज गए थे। राजघाट और दरियागंज को आप पैदल ही नाप सकते हो। 


कौन देर तक रहा राजघाट


राजधानी दिल्ली की मुख्य सड़कों पर उस दिन की सुबह ट्रैफिक बढ़ना शुरू ही हुआ था कि उसे पुलिस ने रोक दिया। पूछने पर पता चला कि ब्राजील के राष्ट्रपति लुइस इनासियो लूला डिसिल्वा राजघाट पहुंच रहे हैं महात्मा गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाने के लिए। उम्मीद थी कि  लूला राजघाट से 15-20 मिनट में वापस चले जायेंगे, पर यह नहीं हुआ। वे राजघाट में करीब 35 मिनट तक रहे। समाधि पर फूल चढ़ाने के बाद वे राजघाट में उनके स्वागत के लिए खड़ी गांधीवादी निर्मला देशपांडे जी से गांधी जी के जीवन संघर्षों के बारे में सवाल पर सवाल करने लगे। राजघाट से विदा होने से पहले उन्होंने विजिटर्स बुक में लिखा कि ‘मैं शांति के दूत महात्मा गांधी की समाधि पर आकर अपने को बहुत बेहतर महसूस कर रहा हूं। गांधी के जीवन का मेरे ऊपर गहरा प्रभाव रहा।’  लुला राजघाट में 4 जून, 2007 को आये थे। ये जानकारियां राजघाट के तत्कालीन प्रभारी रजनीश कुमार देते हैं। वे भी उस समय राजघाट में थे जब लुला उधर आये थे।


30 जनवरी, 1948 की रात


अगर हम गुजरे दौर के पन्नों को खंगाले तो 30 जनवरी,1948 को रात के करीब 9 बजे प्रधानमंत्री जवाहर नेहरू, गृह मंत्री सरदार पटेल  और भारत सरकार के कई आला अफसर राजघाट पहुंचे। उस वक्त ओस और घने कोहरे ने दिल्ली को अपने आगोश में ले लिया था। दिल्ली और देश बापू की मौत से स्तब्ध थी। सारा देश शोकाकुल था। नेहरू जी जब राजघाट पहुंचे तब तक वहां


केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के अफसर  मजदूरों के साथ उस चबूतरे के निर्माण के कार्य में जुटे  हुए थे, जहां पर बापू की अगले दिन अंत्येष्टि होनी थी। अंत्येष्टि की तैयारी नेहरू जी खुद देख रहे थे। 30 जनवरी 1948 के उस मनहूस दिन नेहरू कैबिनेट की बैठक में बापू की अंत्येष्टि स्थल पर चर्चा हुई। उसमें तय हुआ कि राजघाट सबसे बेहतर जगह रहेगी अंत्येष्टि के लिए। एक तो ये यमुना नदी के किनारे है और फिर ये राजधानी के मध्य में भी है। उसके बाद संबंधित सरकारी अफसरों और विभागों को  अंत्येष्टि स्थल की सारी व्यवस्था करने के निर्देश दिए गए थे। दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल पुलिस डब्ल्यू.वी. संजीवी को अंत्येष्टि वाले दिन कानून-व्यवस्था बनाए रखने के निर्देश मिल चुके थे। वे बीते कई दिनों से बीमार थे। 


 तीस जनवरी मार्ग से राजघाट


31 जनवरी,1948। महात्मा गांधी की शवयात्रा अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) स्थित बिड़ला हाऊस से दोपहर में निकलनी चालू हुई। उससे पहले ही वहां पर दिल्ली और आसपास के शहरों से हजारों शोकाकुल लोग पहुंच चुके थे। शवयात्रा जनपथ,इंडिया गेट,आईटीओ वगैरह से होते हुए राजघाट पहुंची। जिस वाहन में बापू का पार्थिव शरीर रखा हुआ था, उसमें नेहरू जी, सरदार पटेल और बापू के दो पुत्र रामदास और देवदास बैठे थे। बापू के दूसरे पुत्र मणिलाल गांधी अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे। वे दक्षिण अफ्रीका में रहते थे। शव यात्रा के सारे रास्ते में अपार जनसमूह बापू के अंतिम दर्शन कर रहा था। सैकड़ों लोग अपने घरों से देसी घी के डिब्बे लेकर आए थे अंत्येष्टि के लिए। राजघाट पर पहले से ही लार्ड माउंटबेटन, उनकी पत्नी पामेला माउंटबेटन, भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर इन –चीफ राय बाउचर वगैरह मौजूद थे। राजघाट पर  बापू के दोनों पुत्रों ने पिता को मुखाग्नि दी थी। क्या बापू के ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल उस दिन वहां हाजिर थे? कुछ जानकार दावा करते हैं कि वे वहां पर नशे की हालत में प्रकट हो गए थे। उधर, मणिलाल गांधी की पौत्री उमा धूपेलिया मेस्ट्री अपनी किताब गांधीज प्रीस्नर में  दावा करती हैं कि हरिलाल गांधी बापू की अंत्येष्टि के चार दिनों के बाद अपने छोटे भाई देवदास के घर (कनॉट प्लेस ) में आए थे।


‘दूसरा’ गांधी राजघाट पर


साल था 1951। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू योजना आयोग की बैठकों में शामिल हो रहे थे। देश की पंचवर्षीय योजना का खाका तैयार हो रहा था। उस दौरान आचार्य विनोबा भावे तेलंगाना में थे। ये जुलाई का महीना था।  भूदान आंदोलन चल रहा था। उसे अभूतपूर्व सफलता मिल रही थी। ये बात नेहरू जी को पता चलीं तो उन्होंने विनोबा भावे से तुरंत दिल्ली आने का आग्रह किया ताकि गांवों के विकास और उन्हें स्वावलंबी बनाने पर विस्तार से चर्चा हो सके। उनके लिए विशेष विमान की व्यवस्था हुई। पर विनोबा भावे ने विनम्रता से कह दिया कि वे पदयात्रा करके दिल्ली पहुंच रहे हैं।


अब विनोबा भावे सड़क मार्ग से दिल्ली के लिए निकल पड़े अपने करीब 75 साथियों के साथ। वे जिधर भी पहुंचते तो उनका स्वागत होता। वे ठहरते किसी झोपड़ी में ही। वे वहां पर प्रार्थना के बाद भूदान आंदोलन के बारे में स्थानीय लोगों को बताते-समझाते। विनोबा भावे नवंबर के महीने में दिल्ली में आ गए। वे राजघाट परिसर में ठहरे। सरकार की चाहत थी कि वे किसी सरकारी गेस्ट हाउस में ठहरें।  लेकिन वे नहीं माने। उनके राजघाट आने से पहले ही वहां पर लकड़ी से झोपड़ियां बना दी गईं। वे अपने साथियों के साथ लगभग 793 किलोमीटर की पदयात्रा करके दिल्ली आए थे। तब तक राजघाट आजकल की तरह नहीं बना था। वह एक बंजर स्थान से अधिक कुछ नहीं था। विनोबा भावे गांधी जी के अंत्येष्टि स्थल के ठीक सामने बनी झोपड़ी में रूके।


राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उनसे खुद राजघाट में मिलने आए। उनके साथ उनकी पत्नी राजवंशी देवी जी भी थीं। कहते हैं कि राजवंशी जी राजेन्द्र बाबू के साथ पहली बार दिल्ली में किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में देखी गईं थीं। राजेन्द्र बाबू ने विनोबा भावे से कहा कि वे बिहार में उनकी जितनी चाहें भूमि ले लें। वे विनोबा भावे और उनके साथियों के लिए फल आदि लेकर आए थे। नेहरू जी दो बार आए राजघाट। दोनों ने लंबी बातचीत की गांवों और किसानों से जुड़े मसलों पर। गांधी जी ने जब 1940 में अहिंसक असहयोग आंदोलन की नींव सत्याग्रह को बनाया था, तो विनोबा भावे पहले सत्याग्रही बने थे। नेहरू जी को ये सम्मान नहीं मिला था। दरअसल बापू के जीवन का एक अंग राजनीति थाऔर दूसरा  आध्यात्म ।जिससे सत्याग्रह का विचार संसार को मिला । निश्चित रूप से बापू की इस विरासत के वारिस विनोबा भावे ही माने जाएंगे। विनोबा भावे के राजघाट पर होने से वहां पर सैकड़ों दिल्ली वाले रोज उनसे मिलने आ रहे थे। वे उन्हें गांधी की प्रतिमूर्ति के रूप में देख रहे थे। इसके साथ ही योजना आयोग के सदस्य बार-बार विनोबा भावे से मुलाकातें कर रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अजय बोस भी विनोबा भावे से शिष्टाचार मुलाकात करने के लिए आए। विनोबा भावे राजघाट में 12-23 नवंबर 1951तक रूके। इस दौरान राजघाट में दिल्ली के गांवों के भी सैकड़ों लोग उनसे मिलने के लिए आते रहे। राजघाट में सारी व्यवस्था को देख रहे थे चौधरी ब्रहम प्रकाश, सुशीला नैयर और दिल्ली के गांवों के गांधी कहे जाने वाले मलयाली सज्जन सी.के. नायर। चौधरी ब्रहम प्रकाश दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने। डॉ. सुशीला नैयर तो गांधी जी की निजी चिकित्सक रही थीं।


Vivekshukladelhi@gmail.com Navbharattimes 29 January 2023




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