Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

नए प्रेस कानून की तैयारी / -लाजपत आहूजा


Thursday, January 28, 2010

            
प्रेस कानून बदलने का वक्त करीब आ रहा है। भोपाल में पिछले दिनों हुई एक संगोष्ठी में यह बिंदु पूरी गंभीरता से उठा था कि आजादी के छह दशक के बाद स्वतंत्र भारत में समाचार पत्र-पत्रिकाओं का नियमन अब भी जिस अधिनियम से हो रहा है, वह प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम वर्ष 1867 का है। अंग्रेजकाल के अधिनियम की धाराओं में भी सामान्य परिवर्तन के अलावा कुछ खास नहीं बदला गया है। पिछले 27 वर्षों में तो इसमें नाममात्र का भी परिवर्तन नहीं हुआ है। अब यह सुयोग बना है कि राज्येां के सूचना मंत्रियों के पिछले माह दिल्ली में हुए सम्मेलन में नए प्रेस अधिनियम के प्रारूप पर विचार हुआ है। इसे नए नाम से और नए सिरे से प्रारूप तैयार करने की वर्षों पुरानी, अपेक्षा पूरी होने की दशा में देरी से ही सही, ठोस कदम उठा है। प्रस्तावित अधिनियम के प्रारूप की कमियां विचार-मंथन से दूर की जा सकती है। हमारे देश में किसी भी समाचार-पत्र या अन्य नियतकालिक पत्र-पत्रिका के प्रकाशन के पूर्व की औपचारिकताएं इस अखिल भारतीय अधिनियम के अंतर्गत ही आती है। शीर्षक आवंटन से लेकर उसके रजिस्ट्रेशन और नियमितता संबंधी प्रक्रिया का ब्योरा इसमें है। पूरे देश के लिए समाचार-पत्रों का एक ही पंजीयक होता है। मूल रूप से अंग्रेजों के बनाए हुए इस कानून के अंतर्गत पंजीयक का प्रचलित नाम 'आरएनआईÓ है। 1867 में प्रेस की जानकारी रखने के लिए सर्वप्रथम यह कानून बनाया गया था। बाद में प्रेस को दबाने के लिए वायसराय लायटन के समय 1878 का बदनाम वर्नाकुलरप्रेस प्रेस एक्ट बना। भाषाई समाचार-पत्रों को दबाने के लिए लाया गया यह कानून इंग्लैंड में सत्ता परिवर्तन के बाद 1881 में रद्द किया गया और 1867 वाले कानून को ही जारी रखा गया। स्वतंत्र भारत में समाचार पत्रों के नियमन में भी यह कानून सफल रहा, इसमें संदेह के कई कारण है। समाचार-पत्रों के प्रकाशन की अगंभीर बढ़त, अपात्रों का प्रकाशन कर्म और ऊटपटांग शीर्षकों के लिए बहुत हद तक मौजूदा कानून को ही जिम्मेदार माना जाता है। इसलिए इस अधिनियम का फिर से प्रारूप तैयार करने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। वर्ष 1952 में बने प्रथम प्रेस आयोग ने इस अधिनियम के बारे में विचार किया था। आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू भी किया गया। समाचार पत्रों के लिए रजिस्ट्रार की नियुक्ति इन सिफारिशों में से एक थी। 1978 में बने द्वितीय प्रेस आयोग ने भी कई सुझाव दिए। इन्हें अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। इनमें से कुछ परिभाषाएं आदि अब नए प्रारूपमें ली गई है। हालांकि उनमें नई व्याख्याएं भी है। नए कानून को द प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ पब्लिकेशंस एक्ट का नाम दिया जाएगा। बुक्स (किताओं) को इस अधिनियम की परिधि से बाहर करना प्रस्तावित किया गया है। सभी नियतकालिकों को प्रकाशनों (पब्लिकेंशन) में समाहित करते हुए समाचार पत्र, पत्रिका, जर्नल, न्यूज लेटर को अलग-अलग परिभाषित किया गया है। शीर्षक सत्यापन का नया प्रावधान इसमें शामिल किया गया है। इसके तहत अवयस्क, संज्ञेय अपराधों में सजायाफ्ता और जो भारत का नागरिक नहीं हैं, वे कोई प्रकाशन नहीं कर पाएंगे। प्रसार संख्या के सत्यापन के लिए भी वैधानिक प्रावधान किए गए हैं। प्रस्तावित नए प्रेस कानून में संपादक की परिभाषा में शैक्षणिक योग्यता को जोड़ा गया है। वर्तमान अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। यह एक अच्छा प्रावधान है, लेकिन इसे प्रस्तावित संशोधनों में स्पष्ट नहीं किया गया है। शीर्षकों के सत्यापन नाम से नया प्रावधान किया गया है। इस धारा में शीर्षकों का सोद्देश्य और अर्थपूर्ण होना भी जोड़ा जाना चाहिए। प्रस्तावित अधिनियम के उल्लंघन पर आर्थिक दंड बढ़ाया गया है। आशा की जा सकती है कि नए प्रेस कानून की सूरत और सीरत प्रेस और देश के लिए शुभ होगी। प्रेस संबंधी मौजूदा परिदृश्य के दृष्टिगत तीसरे प्रेस आयोग की स्थापना के लिए भी यह उपयुक्त समय है
-लाजपत आहूजा
(लेखक मध्यप्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में अतिरिक्त संचालक)

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>