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शनिवार, 22 मार्च, 2014 को 09:23 IST तक के समाचार

शाम का समय था. एक बल्व की रोशनी वाले कमरे के एक कोने में नीति (बदला हुआ नाम) चुपचाप बैठी थी और दूसरे कोने में उसकी बहन चाय बना रही थी.
नीति पूर्वी दिल्ली की एक झुग्गी कॉलोनी में एक कमरे के घर में अपने भाई, बहन, पिता और मां के साथ रहती हैं.पिछले साल 14 साल की उम्र में उसे यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा.
उसकी मां कहती हैं, "हम इंसाफ़ के लिए बहुत भटके. पर अभी भी हमें पूरा न्याय नहीं मिला है. जिसने यह किया उसे ज़रा भी डर नहीं. उलटे हमें ही डर के रहना पड़ता है."
नीति अब भी चुप बैठी थी. उसकी बहन ने मुझे चाय दी.
"किस मां को अच्छा लगेगा कि कोई बिना रज़ामंदी के उसकी बच्ची को छुए."
नीति की आँखें नम हो गईं. उसने बताया कि हादसे के बाद भी उनकी तक़लीफ़ें कम नहीं हुईं. कभी पुलिस स्टेशन, तो कभी कोर्ट और कभी डॉक्टर के चक्कर लगाने पड़ते हैं.
समाज से सहारा नहीं
नीति ने कहा, "आसपास के लोगों का बर्ताव भी बहुत पीड़ा पहुंचाता है. अगर मेरी मां मुझे सहारा नहीं देती तो मैं अब तक आत्महत्या कर चुकी होती."उसने बताया कि अभियुक्त उनके घर के पास ही रहता है. उसके मुताबिक़ वह कुछ महीने जेल में गुज़ारने के बाद बाहर आया और उसके परिवार वालों को पीटा.
हम ऐसे ही एक और नाबालिग़ से मिले जो 10 साल की उम्र में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई. मेरी मुलाक़ात पीड़ित और उसकी मां से कड़कड़डूमा मेट्रो स्टेशन में हुई.

दिल्ली गैंग रेप के बाद भारत में बलात्कार के विरोध में लोग खुलकर सामने आने लगे हैं.
पीड़ित के परिवार का आरोप है कि दो साल पहले उन्हीं की मकान मालकिन के बेटे ने उसका यौन शोषण किया. चूंकि आरोपी भी नाबालिग है इसलिए मामला जूविनाइल जस्टिस कोर्ट में चल रहा है.
पीड़ित की मां ने बताया, "यह हादसा होने के बाद जब भी मैं अपनी बेटी के साथ घर से निकलती तो वो रास्ते में हमें मिलता और हंसकर कहता कि हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते."
उन्होंने आगे बताया, "हमें पता ही नहीं कि केस का क्या हुआ. जांच अधिकारी से हमें कोई जानकारी ही नहीं मिल पा रही है. हमें बताया भी नहीं जाता कि अगली पेशी कब है. हादसा हमारे साथ हुआ है और चप्पलें भी हमारी ही घिस रही हैं. जिसने ग़लती की है वह तो बिना डर के जी रहा है."
पीड़ित की मां ने बताया कि वह बार-बार इस केस के सिलसिले में चक्कर नहीं लगा सकतीं क्योंकि वह किसी के घर में काम करके पैसे कमाती हैं और काम से ग़ैरहाज़िर होने पर पैसे कट जाते हैं.
ऐसी ही कई वजहों से कितनी बार पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता.
इन पीड़ितों का मानना है कि उन्हें पुलिस के साथ-साथ समाज से भी कोई सहारा नहीं मिलता.
आत्मविश्वास ख़त्म
प्रतिधि एक क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर है जो यौन उत्पीड़न के शिकार लोगों की मदद करता है. यह एक पहल है दिल्ली पुलिस और असोसिएशन ऑफ़ डेवेलपमेंट की, जो एक ग़ैर सरकारी संगठनों का संघ है.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़ बलात्कार के तक़रीबन 98 फ़ीसदी मामलों में आरोपी रिश्तेदार या जान पहचान के होते हैं.
यौन उत्पीड़न का पता लगाने के लिए भारत के कई राज्यों में योनि परीक्षण यानी "टू फ़िंगर टेस्ट"किया जाता है.
नीति के लिए वह एक और दर्दनाक याद है. उसने कहा, "मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे साथ दोबारा कोई वही काम कर रहा हो."
योगेश कुमार ने बताया, "केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के नए दिशा निर्देशों के मुताबिक़ बलात्कार पीड़ितों के फ़ॉरेंसिक चिकित्सा जांच के लिए इस परीक्षण की कोई बाध्यता या बात है ही नहीं. फिर भी यह टेस्ट किया जाता है. इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए. इसका कोई वैज्ञानिक आधार भी नहीं है."
अब हर जगह महिलाओं के अधिकार की बातें हो रहीं हैं. बड़े ज़ोर-शोर से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. लेकिन इस सबका क्या मतलब.
इन पीड़ित बच्चियों की हंसी में भी एक झिझक है. ऐसा लग रहा था जैसे इनके आत्मविश्वास को मानो किसी ने हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया हो.
समाज और क़ानून से भी इन्हें मदद नहीं मिल पाती. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक़ बलात्कार के तक़रीबन 98 फ़ीसदी मामलों में अभियुक्त रिश्तेदार या जान पहचान के होते हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़ साल 2012 में दिल्ली सहित एनसीआर इलाक़े में बलात्कार के 15211 मामले दर्ज किए गए.
मां ही संबल

जानकार कहते हैं कि बलात्कार पीड़ितों को राहत दिलाने के लिए प्रावधान तो बहुत हैं लेकिन उनको अमल में लाना मुश्किल होता है.
क़ानून के जानकार मानते हैं कि भारत में नियमों और क़ानून के प्रति लोगों की अज्ञानता भी एक बड़ी वजह है बलात्कार और यौन उत्पीड़न जैसे मामलों में इंसाफ़ न मिलने की.
अनंत कुमार अस्थाना जो ऐसे मामलों में ग़ैर सरकारी संगठनों को सलाह देते हैं.
वह कहते हैं, "हमारी क़ानूनी व्यवस्था ऐसी है कि पीड़ितों के लिए हादसे के बाद तक़लीफ़ और बढ़ जाती है. यौन अपराध से बच्चों की सुरक्षा, बाल दुर्व्यवहार रोकने और पीड़ितों को मुआवज़ा दिलाने के लिए कई अधिनियम और दिशा निर्देश हैं. लेकिन इनको अमल में लाना एक बहुत बड़ा मुद्दा है. नियम तो हैं लेकिन हम वास्तव में इन नियमों को लागू कैसे करते हैं ये भी ध्यान देने वाली बात है."
हालांकि दोनों ही पीड़ितों ने जब हमसे बात करनी शुरू की तो बाद में वह काफ़ी हद तक खुल गई थीं.
दोनो लड़कियों का सबसे बड़ा संबल उनकी माएं हैं. उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ चुकी थी. अब वह अगले दिन स्कूल जाने की तैयारी में थीं.
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