हजार वर्षों से लगातार संघर्षों में जी रहे देश में पिछले कुछ दशकों से शांति पसरी हुई थी। योद्धा निकलते भी तो किधर? शस्त्र लहराते भी तो किस ध्वज तले? राजस्थान को छोड़ दें तो बड़ी शक्ति के रूप में या तो अंग्रेज बचे थे या मुगलों से जुड़े घराने! लड़ाके लड़ते भी तो किसकी ओर से लड़ते?
फिर सन सत्तावन में एक चिंगारी फूटी! एक नई हवा बही, कि किसी राजा के लिए नहीं, देश के लिए लड़ा जाय। गोलबंदी होने लगी... पेशवाई जगी तो कानपुर जग गया। झाँसी उठ खड़ी हुई। उधर गोंडवाना में महारानी दुर्गावती की महान परम्परा से शंकर उठ खड़े हुए। जिन्होंने रोटी की तलाश में अंग्रेजों की नौकरी पकड़ ली थी, उनका स्वाभिमान जगा। मेरठ, कानपुर, नखलऊ... देश उठ खड़ा हुआ। बागी बलिया के पांडे जगे तो हर ओर मङ्गल-मङ्गल हो गया।
बिहार में क्यों शान्ति रहती भला? आरे के एक छोटी रियासत के बुजुर्ग जमींदार बाबू कुंवर सिंह की रगों में बहता राजपूती रक्त उबलने लगा। क्यों न उबलता? संसार मे शौर्य की सबसे महान क्षत्रिय परम्परा का व्यक्ति युद्ध की आहट सुनते ही मचलने लगे तो इसमें आश्चर्य कैसा? बूढ़े हाथों ने थामी तलवार और गूँज उठा हर हर महादेव का जयघोष...
दानापुर छावनी के विद्रोही सैनिकों का सहयोग मिला, और अस्सी वर्ष के कुँवर(युवक) का महाभियान आरम्भ हो गया। जगदीशपुर से शुरू हुई लड़ाई और चार दिन में पूरा आरा कब्जे में आ गया। आरा को वापस लेने कैप्टन डनवर की ब्रिटिश और सिक्ख सैनिकों की फौज आयी, तो अगले दिन कैप्टन समेत सबकी लाशें गयीं...
अंग्रेज दुगुनी तैयारी से वापस आये। मेजर विंसेंट आयर जैसे टूट पड़ा जगदीशपुर पर! भीषण कत्लेआम... लूटपाट, आगजनी... जगदीशपुर में सबकुछ खत्म हो गया।
पर कुँवर अपनी स्वतंत्रता यात्रा पर निकल गए थे। लोगों को जगाते, राष्ट्रवाद की जोत जलाते, खुरपी थामने वाले हाथों में तलवार थमाते... आरा, रोहतास,सासाराम, बक्सर, कैमूर... आंदोलन का प्रभाव पूरे बिहार-झारखंड पर पड़ा था। संथाल परगना, हजारीबाग, सिंहभूम... छपरा, बलिया...
आम जन का सहयोग मिल रहा था। आतताइयों से त्रस्त भारत अपने लड़ाकों का हर सम्भव सहयोगL कर रहा था। मिर्जापुर की ओर बढ़ते कुंवर सिंह ने पहले मिलमैन की विशाल सेना को पराजित किया, फिर कर्नल डेम्स को... आजमगढ़ पर अधिकार हो गया।
कुंवर सिंह जीत रहे थे, पर मन में मातृभूमि छूटने का दुख भरा हुआ था। सो विजयी सेना के साथ जगदीशपुर की ओर लौटे। अंग्रेजों को भनक मिली तो हिल गए। कुँवर सिंह की अब तूती बोल रही थी। उन्हें रोकने के लिए अंग्रेज सेना गङ्गा किनारे तैयार खड़ी हो गयी।
पर मातृभूमि की रक्षा के लिए निकला राजपूत किसके रोके रुकता है भाई! कुँवर सिंह के हाथ में गोली लगी, तो अस्सी वर्ष के उस उत्साहित युवक ने तलवार से हाथ काट कर माँ गङ्गा की लहरों में चढ़ा दिया।
कुँवर सिंह आरा में आये। अंग्रेज कैप्टन लीग्रैंड की सेना से भीषण युद्ध हुआ। लीग्रैंड मारा गया, कुंवर विजयी हुए। वह 23 अप्रैल 1858 था।
अस्सी साल की थकी हुई देह अब शांJति ढूंढ रही थी। दो दिन बाद योद्धा ने अपने पुरुखों के महल में अंतिम सांस ली।
वे हमें अब भी याद है। हम आज भी फगुआ में गाँव के सबसे यशश्वी व्यक्ति के दरवाजे पर गाते हैं- बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अबीर...
पूज्य लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा लिखती सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं,"बूढ़े भारत में आई वह फिर से नई जवानी थी"। वह बूढ़ा भारत कोई और नहीं, हमारे कुँवर सिंह थे...