बारिश के अनुमान कैसे कैसे ?
बारिश, एक जरूरत, एक अहम आवश्यकता। जल ही जीवन है, हमारे शास्त्रों में जल के 100 पर्यायवाची मिल जाते हैंं, मगर इसका विकल्प एक भी नहीं, सच है न।
इस बारिश का पूर्वाभास करने के लिए हमारे पुरखों ने कई कयास लगाए हैं। उस दौर में जबकि न मौसम विज्ञान जैसे यंत्र होते थे न ही कोई आज जैसा अध्ययन था। मगर, जो अनुमान तय किए, वे आज भी लोक विज्ञान के अंग के रूप में सामने हैं और अनपढ़ जैसे देहाती भी बारिश के लिए पूर्वानुमान लगाते देखे जा सकते हैं।
इन अनुमानों के आधार पर हमारे यहां समय-पठन की परंपरा रही। देवस्थानों से लेकर सूर्य मन्दिरों तक भी वर्षफल, आषाढ़ी तौल, ध्वज परीक्षण परिणाम आदि का फलाफल सुनाया जाता था। हमारे कृषि पराशर, मयूरचित्रम्, गार्गीसंहिता, गुरुसंहिता, संवत्सर फलम्, कादम्बिनी जैसे कई ग्रंथों में इस पर विस्तार से विवरण मिल जाता है। वराहमिहिर कृत बृहत्संहिता में तो इस पर विस्तार से विमर्श हैं।
अब टीटोडी या टीडभांड नामक पक्षी को ही देख लीजिए, जो जितने अंडे देता है, उनको किसी ऊपरी स्थान पर दिया है अथवा नीचे इस आधार पर अतिवृष्टि और अत्यल्प वृष्टि के रूप में परिणाम बताने वाला समझा जाता है। बेचारी टींटोडी क्या जानती है कि अंडों के आधार पर लोग बारिश का परिणाम देखेंगे, मगर क्या वह यह जानती हैं कि यदि उसके अंडों वाली जगह पर जलभरण हुआ तो उसके अंडों से बाहर आने वाले चूजों का क्या होगा ?
परिन्दों की गतिविधियां आज भी वैज्ञानिकों के लिए कुतूहल का विषय बनी हुई हैं।
यही नहीं, उन अंडों के मुख ऊपर हैं या नींचे, इस आधार पर बारिश के महीनों को बताया जाता है। यदि चार अंडों में से दो के मुख ऊपर की ओर है तो दो माह बारिश होगी, तीन के मुख ऊपर है तो तीन माह और चारों के ही मुख ऊपर हैं तो चौमासा पूरा ही बरसेगा, मगर नीचे होने पर.... मालूम नहीं ये सच है या नहीं मगर लोकविज्ञान आज भी अपनी जगह है...।
देशी आर. ओ.
#वेवरी (बेवरी ,विवर)
जहाँ नदी का बहाव होता है, वहीं के लोग यह जानते हैं कि वेवरी क्या होती है ! प्रकृत पानी को प्रवाह क्षेत्र में ही गड्ढा बनाकर पाना और पीना। यह गड्ढा वेवरी है।
लम्बे काल तक जिस नदी में पानी बना रहे और जिसमें बालू का बिछाव हो, वहाँ वेवरी सुगमता से बन जाती है। हथेलियों से रेत हटाई और विवर या छेद तैयार, कुछ ही देर में धूल नीचे जम जाती है और पानी साफ़ हो जाता है। यह कपड़छन की तरह वालुकाछन पानी होता है। इसके अपने गुणधर्म है। नदी में कपड़े आदि धोते और दूसरे काम करते समय प्यास लगने पर पानी वेवरी से ही सुलभ होता और मुंह लगाकर खींचा जाता या फिर करपुट विधि (हाथों को मिलाकर) पिया जाता। एक वेवरी के गन्दी होने, अधिक पानी से बालुका के भर जाने पर दूसरी वेवरी बनाई जाती।
शायद कूप खोदने की विधि को मानव ने इसी से सीखा होगा। छोटे छेद में पानी कम होने पर मिट्टी निकलने और गड्ढे के बड़े होने ने कूप खनन करवाया एवं इसको पक्का, मजबूती देने पर विचार किया गया। ऐसे कूप से ही घरगर्त बने जो सिंधु आदि नदीवर्ती घरों में बने मिलते हैं। भविष्य पुराण में इस परम्परा की स्मृति है। वहाँ कहा गया है कि यदि कोई गोपद, विवर जैसा भी कूप बनवाता है तो उसे पुण्य मिलता है। बाद में तुलसी बाबा ने भी इस परम्परा को उदाहरण के रूप में लिया : गोपद सिंधु अनल सीतलाई।
खैर, बात जल स्रोत की है और यह भी एक पुराना प्रकार है। हम बोतल, मिनरल और सफाई सीखे लोग क्या जानते होंगे कि माँ और दादी ने नदी पर कपड़े धोते, सुखाते कितने बरस वेवरी का पानी पिया था ! मेरी बेड़च और बनास नदियां मेरी ही बनाई वेवरियां कितनी बार बहाकर ले गईं।
जेठ मास है और जल, जलस्रोत के संरक्षण का आजीवन संकल्प कर लेना चाहिए।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू
पुराने ज़माने की बात है | कुडन, बुडन, सरमन और कौराई चार भाई थे | जैसा कि आम तौर पर उस ज़माने में होता था ये चारों भाई भी खेती करते थे | किसी तरह एक दिन इनकी मुलाकात राजा से हो गई थी | राजा ने इनसे कह दिया था ‘अच्छे अच्छे काम करते जाना’ | गरीब किसान के लिए राजा का कहा बिलकुल पत्थर की लकीर जैसा होता है | सम्मान ही इतना होता है कि ऐसा ना हो तो कैसा हो, जैसी बातें सोची नहीं जा सकती | चारों भाई भी खेती करते और हर छोटे मोटे काम में कुछ ना कुछ अच्छा करने की कोशिश करते |
सुबह जब चारो भाई खेतों पर जाते तो दोपहर में कूड़न की बेटी खाने की पोटली लेकर आती | एक रोज़ जब लड़की खाना देकर लौट रही थी तो रास्ते में उसके पांव से एक नुकीला पत्थर टकरा गया | लड़की को गुस्सा आया और उसने कमर में ही टंगी दरांती खींच के पत्थर पर दे मारी | अब दरांती से पत्थर का तो क्या बिगड़ना था ? मगर जो लड़की ने अपनी दरांती की तरफ देखा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गई ! लोहे की काली दरांती सुनहले रंग की हो गई थी ! पत्थर से छूते ही लोहा दमक उठा था !
लड़की समझ गई ये कोई चमत्कारी पत्थर है उसने सहेज के पत्थर को मिट्टी से निकाला और दुपट्टे में लपेट कर घर ले गई | शाम में जब चारो भाई लौटे और परिवार पूरा इकठ्ठा था तो लड़की ने सबको दरांती और पत्थर दिखाया | सब आश्चर्यचकित हुए ! थोड़ी ही जांच में सबको समझ आ गया कि उनके हाथ पारस पत्थर लग गया है | पूरे परिवार को पता था कि गांव में पारस पत्थर की खबर ज्यादा दिन तो छुपी नहीं रहेगी | राजा को पारस ना देना चोरी भी होती | तो चारों भाइयों ने तय किया की वो अगली सुबह ही राजा को देने जायेंगे |
जब वो राजा के पास गए तो राजा ने ना पारस लिया ना सोना | फिर से कह दिया जाओ और इस से अच्छे अच्छे काम करते जाना | पाटन इलाके की ये प्रसिद्ध कहानी सच्ची है कि नहीं ये तो मालूम नहीं | लेकिन ये किवदंती इतिहास को अंगूठा दिखाती आज भी जिन्दा है | पाटन में उन भाइयों ने पारस से निकले सोने से तालाब बनवाने शुरू कर दिए | वहां कई तालाब हैं | पारस आज लोहे को सोना नहीं बनाता लेकिन इन तालाबों का पानी, मिट्टी से सोना जरूर उपजाता है |
बुढागर में बुढा सागर है, मांझगांव में सरमन सागर, कुआंग्राम में कौराई सागर है और कुंडम गांव में कुंडम सागर | चारों भाइयों के नाम पर बने इन बड़े बड़े तालाबों-झीलों के किनारे कई गाँव आज भी हैं |
अनुपम मिश्र की किताब “आज भी खरे हैं तालाब” इसी कहानी से शुरू होती है | परंपरागत तरीकों से पानी के संरक्षण को सीखने के लिए फ़िलहाल भारत में इस से रोचक कोई किताब नहीं है | अगर आप अपने इलाके में घटते जल स्तर के बारे में जानते हैं तो इस किताब से सीखिए कि पानी का संरक्षण कैसे होता है | अपने इलाके के गाँव के लोगों को ये किताब पढ़ाइये | पानी की कमी सिर्फ एक लातूर की समस्या नहीं है | अगले दो तीन दशकों में ये भारत के कई इलाकों की दिक्कत होगी | अभी से शुरू कीजिये अगले कुछ सालों बाद ताकि दिक्कत ना आये |
बाकी फावड़ा खुद उठा के अपने लिए तालाब खोदना बेहतर है, या कि किसी पांच सितारा आन्दोलनकारी के आने और भूख हड़ताल करने का इंतज़ार करना है ये खुद तय कर लीजिये |
छोटी-मोटी सी चीजों को बदलकर किस्म-किस्म के नुकसान किये गए हैं।
फिरंगियों के दौर में तालाबों-जलाशयों पर राजा-महाराजाओं के खर्च का उपनिवेशवादियों को कोई फायदा नहीं दिखा।
स्थानीय जल-वायु या पर्यावरण पर इनका क्या असर होता है, इससे फिरंगी उपनिवेशवादियों को कोई लेना-देना भी नहीं था।
नतीजा ये हुआ कि पहले तो तालाब-जलाशयों को मिलने वाला राज्य का समर्थन कम हो गया।
फिंरंगियों के बाद जो भूरे साहब आये, उन्हें लगा सब कुछ तो हमारे कब्जे में होना चाहिए!
लिहाजा अपनी आयातित विचारधारा के मुताबिक उन्होंने सारे अधिकार हथियाए और कर्त्तव्य भूल गए।
आयातित विचारधारा के नारों में आज भी आपको “अधिकार” और “हकों” का जिक्र मिलेगा, कर्तव्यों की या जिम्मेदारी की बात वो किसी और पर थोपते हैं, खुद के लिए कभी नहीं करते।
तालाब-जलाशय इस तरह पीडब्ल्यूडी नाम के विभाग को दे दिए गए और अधिकार जाते ही जिम्मेदारियां भी ग्राम पंचायतों और ग्रामीणों ने छोड़ दीं।
जिम्मेदारियां छोड़ना, मतलब कम काम करना उस वक्त तो मजेदार लगा होगा, लेकिन ये भी कुछ पान खाने जैसा ही मज़ा था, जो थोड़े ही वर्षों में सजा देने वाला था।
इसपर एक तरफ से हमला हुआ हो ऐसा सोचना भी मूर्खता होगी।
जो तालाब ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा थे उनसे लोगों को अलग करने के लिए बरसों प्रपंच रचे गए। भारत विविधताओं का देश है ये आयातित विचारधारा अच्छी तरह जानती थी।
इसलिए इस “विविधता” पर “समानता का अधिकार” नाम के जुमले से लगातार प्रहार किया गया। पोखर-तालाब अक्सर मंदिर की देखरेख में होते थे तो मंदिरों की देख-रेख करने वाले महंतों-पुजारियों को मनगढ़ंत कहानियों-फिल्मों के जरिये धूर्त सिद्ध किया गया।
कोई तालाब मवेशियों का होता, कोई सिंचाई और नहाने इत्यादि के लिए, पीने के पानी का तालाब अलग होता था।
“समानता” होनी चाहिए कहकर ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि “ठाकुर के कुँए” पर छोटी ज़ात वालों को जाने नहीं दिया जाता।
अब जब जलाशय सबके हो गए, तो वो किसी के नहीं रहे।
जब नियंत्रित करने का अधिकार ही न हो, तो भला उसकी साफ़-सफाई और रख-रखाव का खर्च और जिम्मेदारी कोई क्यों झेलेगा?
जो अल्पसंख्यक बिरादरी इन तालाबों-जलाशयों की देखभाल करती थी वो इन्हें छोड़कर जीविका की तलाश में कहीं और निकल गयी।
जल संरक्षण के लिए परंपरागत उपायों के अलावा कोई और तरीका नहीं है।
ऐसा इसलिए क्योंकि आयातित विचारधारा जिस तथाकथित वैज्ञानिक पद्धति को परंपरागत से श्रेष्ठ बताते हुए साहित्य, फिल्म, नाटक, भाषण इत्यादि की रचना करती है, उस “वैज्ञानिक पद्दति” से जल का निर्माण नहीं किया जा सकता।
पानी पहले बड़े शहरों से ख़त्म हुआ, और अब ये कमी आगे बढ़कर गाँव तक पहुँचने लगी है।
दो चार दिन पहले एईएस से मर रहे जिन बच्चों के गांववालों ने प्रदर्शन किया था, और फिर शू-शासन ने पूरे गाँव पर मुकदमा किया, मुजफ्फरपुर के उस गाँव में भी टैंकर से पानी पहुँचता है।
तालाब-पोखरों के लिए जाने जाने वाले दरभंगा से तालाब करीब-करीब विलुप्त हो चुके हैं।
स्मार्ट सिटी बन रहे पटना में जो तालाब थे उनमें से अधिकांश भरे जा चुके हैं।
यहाँ का तारामंडल और “ईको-पार्क” भी किसी न किसी भरे हुए तालाब पर बना है।
कोई एक विभाग भी ऐसा नहीं जिसके पास ये डाटा हो कि शहर में तालाब आखिर थे कितने और वो कहाँ-कहाँ मौजूद थे।
स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद में बिहार के जो पांच शहर शामिल हैं, उनमें पहले से मौजूद तालाबों के अलावा नए तालाब कितने बनेंगे, इसकी कोई ख़ास योजना भी नहीं है।
हाँ कुछ पुराने तालाबों का “जीर्णोद्धार” जैसा कुछ करने की सरकार बहादुर की कोशिशें दिखती हैं।
बाकी अगर आप शहरों में रहते हैं तो पानी की किल्लत और टैंकरों से होती जलापूर्ति तो देख ही चुके हैं। एक मामूली सा बदलाव क्या क्या बदल सकता है ये आपको पता है और पानी की समस्या पर सोचना होगा ये भी समझते होंगे।
सोचियेगा, फ़िलहाल सोचने पर जीएसटी नहीं लगता!
✍🏻आनन्द कुमार