आज मंगलेश जी का जन्मदिन हैं । उनका संग साथ हमेशा याद रहता है _
मेरे संगतराश मंगलेश डबराल / tillan richharia
ये सब सन 1980 से पहले की बात है ।इलाहाबाद से अमृत प्रभात के प्रकाशन के शुरुआती दिनों से मैं अपने शहर कर्वी, चित्रकूटधाम से खबरें भेजने लगा था । अचानक एक दिन समाचार संपादक के वी माथुर साहब ने हमें पकड़ा और मंगलेश जी के पास ले गए, बोले... मंगलेश ये टिल्लन जी हैं, खबर भेजते हैं देखो इनसे फीचर भी लिखवाओ । इसके बाद हमारे फीचर लेखन का सिलसिला चल निकला । मंगलेश जी के कुशल निर्देशन में पत्रकारिता की हमारी सोच समझ और नींव मजबूत होने लगी । खूब सारे लेख प्रकाशित हुए दो दो बार तो बांदा के प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल का साक्षात्कार भी प्रकाशित हुआ ।यह कहने में बिलकुल संकोच नहीं कि मंगलेश डबराल का संग साथ न मिलता तो शायद इस प्रोफेशन में ही न होते।
रामायण मेला, चित्रकूट, गणेश बाग और चित्रकूट के पठारी अंचल का सूखा । याद आता है कि एक बार तो मैं हाथ से लिखे फुलस्केप साइज़ के 30-32 ले कर अमृत प्रभात शाम को लगभग 5 बजे पहुंचा । सब जाने की तैयारी में थे, दिन शायद बुधवार का था, तब तक रविवासरीय का काम निबट जाता है । तब फोटो आदि के लिए ब्लाक बनते थे । मैंने कहा मंगलेश जी लेख इसी अंक में प्रकाशित होंना चाहिए अन्यथा सब गड़बड़ हो जाएगा ।... क्या गड़बड़ हो जाएगा ।... अरे बारिस हो गई तो सब गड़बड़ । जून महीना चल रहा था और लेख चित्रकूट अंचल के सूखा पर ही था । वे रुके दो एक सहयोगियों को भी रोका । दो घण्टे में सारा काम आगे बढ़ाया । और लेख जब प्रकाशित हो कर आया तो मैं हतप्रभ यह एक पूरे पेज से अधिक शेष अंदर के पेज तक फैला था ।... लेख का शीर्षक था 'विन्ध की तपती चट्टाने, तड़पती जिंदगी '... मेरी नज़र में यह मेरा मेरी पहचान बनाने वाला और अब तक का भी सबसे अच्छा लेख है ।
शुरुआती दिनों में मैं रामायण मेला और चित्रकूट का सूखा लिखने के लिए पहचाना जाता था ।... तो ऐसे परमप्रिय मंगलेश जी को जब मैंने यह सूचना दी कि माया के संपादकीय विभाग से जुड़ने का हेतु बन रहा है । माया के प्रभारी बाबूलाल शर्मा जी ने आलोक मित्र जी से मिलवा दिया है और दो चार दिन में ज्वाइन कर लेने का विधान बन गया। यह बम्बई के हिंदी एक्सप्रेस और श्रीवर्षा के बाद का समय था, इसी बीच इलाहाबाद जाना हुआ और बाबूलाल जी ने कहा खाली थोड़े घूमना है आओ आलोक जी के पास चलते हैं । बातों बातों में बात आगे बढ़ गई ।
अपने साथ अधिकांश ऐसा ही हुआ है ।... मैं जब भी इलाहाबाद जाता तो बस के मुट्ठीगंज आते उतर पड़ता था । मित्र प्रकाशन में अमरकांत जी से नमस्ते करते हुए बाबूलाल जी के पास कुछ समय जरूर गुजारता । स्वभावतः मैं कभी तीन तिकड़म और आज के जुगाड़ शब्द के फेर में कभी नहीं रहा मेरे लिए मेरी प्रगति के लिए सारी सड़कें और अवसर मेरे संगी साथी बनाते रहें हैं । मैं किसी शहर जाऊं तो अखबारों के दफ्तर को देव स्थान समझ का जरूर जाता रहा हूँ, मुझे किसी के वैभव से कोई लगाव नहीं उनकी मिलनसारिता से प्रेम रहा । आज आपसे मिल लूं कल आप काम आएंगे । ऐसा नहीं ।
माया में मेरा कभी कुछ नहीं प्रकाशित हुआ । हां एक लेख दिया था रामायण मेला पर, चाय पीते पीते 250 रुपये का चेक बन कर आगया । वह लेख भी नहीं प्रकाशित हो पाया । हुआ यह कि जिस अंक में यह लेख जान था उसी मौके पर पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो साहब को फांसी हो गई थी । फिर बाद में मैंने बाबूलाल जी से उस लेख का ज्रिक किया तो बोले वह ले लो थोड़ा बडाल कर और कहीं भेज देना । बाद में उस लेख ने और भी पत्रम पुष्पम दिलवाये ।... उन दिनों इलाबाद की यात्राओं के लिए खासी तैयारी करनी पड़ती थी । जमाना सस्ते का था फिर 10-12 रुपये की जरूरत तो पड़ती थी । जो मास्टरी थी वो 150 रुपये देती थी ,अमृत प्रभात से 95 रुपये और कहीं कभी कभार लेख आदि प्रकाशित होगये तो 100-150 और । तो यात्रा से पहले घर आये अखबार बेचे जाते फिर 15-20 खर्च करने की हैसियत वाले किसी संगी साथी की तलाश की जाती फिर बेधड़क यात्रा होती । आप इसे कष्टकारी संघर्ष का नाम मत दे दीजियेगा । संघर्ष और स्ट्रगल अपने जीवन का अंग कभी नहीं रहा, ये आंनद के पड़ाव रहे ।
एक बार तो इलाहाबाद गए तो हमारे मित्र आलोक भी साथ थे । हम दोनों पहुंच गए शयमाचारण गुप्ता जी के यहां । एक दो दिन मजे से रहे जब उन्होंने पूछा कि क्या कार्यक्रम है तो हम लोगों ने कहा कि भाई साहब कार्यक्रम का हमारा क्या जब आप बनवा देंगे तो चले जायेंगे । एक नहीं दर्जनों दृष्टांत और वृत्तांत हैं ।
आज ही सत्य है कल का सत्य कल जानेंगे ।... निकल पड़े हैं खुली सड़क पर सीना अपना ताने, मंजिल कहाँ रुकना है ऊपर वाला जाने ।
अमृत प्रभात के उदय के साथ इलाहाबाद से प्रगढ़ता बढ़ती गई । यहां का रास्ता दिखाया था हमारे यहां के हॉकर गणेश अग्रवाल ने । कहा ये लो पता और सीधे चले जाओ । तब प्रादेशिक मंडल जी देखते थे । इसके पूर्व इलाहाबाद से वास्ता पडा आपात्काल के दौरान, सन1975 में ए डी सी कालेज मे एल एल बी ज्वाइन किया था । बस एक साल में जोश उत्तर गया । तब कुछ महीने कोठापरचा में रहा था।
अपने जीवनक्रम मे इलाहाबाद कई बार पड़ाव बना, यहां की आबोहवा और संस्कारों ने बार बार नए नए दिशा निर्देश दिए ।
जब मंगलेश जी को बताया कि माया पत्रिका में काम के लिए बात हो गई है तो बोले... अरे आप माया के फेर में काहे पड़ रहें हैं आप माया मोह से आपको क्या लेना। आप तो आनंद के मार्ग पर आगे बढिए । जबलपुर जाइये । आपके दोस्त लोग वहां आपका इंतजार कर रहे हैं । महर्षि महेश योगी के संस्थान से अखबार निकल रहा है । और हम पहुंच गए जबलपुर ।
मेरे आसपास के लोग , किताब से..