निरंकुश सत्ता और पुलिस राज की याद दिलाता है 41 साल पहले हुआ माया त्यागी कांड
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सिंडिकेट के खिलाफ राजनीतिक जीत और बांग्लादेश की आजादी सुनिश्चित करने के बाद सर्वशक्तिमान हो चुकीं पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने देश को पहली बार राजनीतिक निरंकुशता से परिचित करवाया था। 19 महीनों की इमरजेंसी के भूचाल के बाद देश के राजनीतिक चाल, चरित्र, चिंतन में जबरदस्त गिरावट आ चुकी थी। अप्रैल 1977 में हुए आम चुनाव में भारी जीत हासिल कर आबाढाबा के साथ बनी जनता पार्टी की सरकार जनवरी 1980 में विदा हो गयी। इंदिरा गांधी फिर भारत की प्रधानमंत्री बनीं। उनका सबसे पहला निशाना था उत्तर प्रदेश और पूर्व गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह, जिनके इशारे पर यूपी की राजनीति चलती थी। इंदिरा गांधी ने 27 फरवरी को उत्तर प्रदेश की जनता सरकार को बर्खास्त कर दिया। तब बाबू बनारसी दास प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और नेताजी मुलायम सिंह यादव उपमुख्यमंत्री हुआ करते थे।
28 फरवरी को प्रदेश को नये राज्यपाल चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह मिलते हैं। राज्यपाल ने प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था को अपने हिसाब से दुरूस्त किया जो जनता पार्टी के समय कोलैप्स हो चुकी थी। 113 दिन बाद विधानसभा चुनाव हुआ और कांग्रेस ने विपक्ष का आबाढाबा खत्म करते हुए 425 सीटों में से 309 विधानसभा सीटें जीतीं। मुख्यमंत्री बनने की हवा तो संजय गांधी की थी लेकिन बन गये विश्वनाथ प्रताप सिंह। 9 जून 1980 को राजा मांडा ने प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हमेशा ब्राह्मण मुख्यमंत्री देने वाली कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश को पहला क्षत्रिय मुख्यमंत्री देकर सबको चौंका दिया। माया त्यागी बागपत कांड की पृष्ठभूमि में यही राजनीतिक चाल, चरित्र और चिंतन है जो हर घटना को अवसर की तरह देखता है।
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आज से ठीक 41 साल पहले 18 जून 1980 की तारीख। चोपला रेलवे क्रासिंग, बागपत, जो तब मेरठ जिला का हिस्सा था। रेलवे क्रॉसिंग से पहले सिंडिकेट बैंक की एक ब्रांच थी। दिन के करीब 12 बजे एक सफेद एंबेसडर कार यूपीजी 6005 क्रॉसिंग के पास पंचर बनाने वाले की दुकान पर आकर रुकी। ड्राइवर रोशनलाल पंचर ठीक कराने लगा, इस दौरान कार में बैठे ईश्वर त्यागी और उसके दो दोस्त राजेन्द्र दत्त औऱ सुरेन्द्र सिंह उतर कर चाय की दुकान की तरफ चल दिए। ईश्वर त्यागी की पत्नी माया त्यागी कार में ही बैठी रही। तभी वहां दो लोग आए और कार में बैठी माया से कुछ बदतमीजी भरे अंदाज में बातचीत की और बात बिगड़ गयी। ये देखकर ईश्वर और उसके दोस्त दौड़ कर कार के पास आते हैं। दोनों युवकों को धक्का देकर वहां से भगा देते हैं।
वे दोनों वहां से भाग तो जाते हैं, लेकिन ईश्वर और उसके दोस्तों के लिए उससे बड़ा खतरा आने वाला था। पंचर वाले ने उन्हें बताया कि वो दोनों आदमी बागपत थाने के स्टाफ हैं। किसी ने बताया कि जिससे झगड़ा हुआ है वो सब इंसपेक्टर नरेन्द्र सिंह चौहान है इसलिए वे जल्दी यहां से निकल लें क्योंकि वह बहुत खतरनाक है। ईश्वर और कार ड्राइवर वहां से फौरन निकलने लगे कि दुर्भाग्य से कार स्टार्ट नहीं हुई। सब कार को धक्का देने लगे, लेकिन अनहोनी तो लिखी थी। चंद कदम दूर स्थित थाने से 10-11 पुलिसवाले बंदूक और डंडे के साथ उनको घेर लिए और बिना कुछ बात किये ईश्वर त्यागी, राजेन्द्र दत्त, सुरेन्द्र सिंह को गोली मार दिये। ईश्वर और राजेन्द्र कार को पीछे से धक्का दे रहे थे और सुरेन्द्र गोली चलता देख भागा ही था कि दो कदम पर उसे भी गोली मार दी गयी। तीन दोस्त, जो हंसते-बतियाते गाजियाबाद से बागपत एक विवाह समारोह में जा रहें थे, एक घंटे के अंदर पुलिस की गोलियों से छलनी किये जा चुके थे।
घटना का दुखद अंत यही नहीं था। ताकत के नशे में चूर नरेन्द्र सिंह ने माया त्यागी को कार से बाहर घसीट लिया। बताते हैं कि उसने माया के साथ सरेबाजार जोर जबरदस्ती की, उसे निर्वस्त्र कर दिया और नग्न अवस्था में ही से थाने तक पैदल ले गया। अदालत में अपने बयान में एक चश्मदीद ने गवाही दी कि थाने के अंदर भी पुलिस वालों ने माया के साथ बेरहमी के साथ बर्ताव किया। अदालत में प्रस्तुत माया की मेडिकल रिपोर्ट में 25 जगह चोट के निशान बताये गये। एक महिला के साथ दरिंदगी का हर वो काम किया गया जिसे लिखना संभव नहीं है। एसआइ नरेन्द्र सिंह ने दो बजे थाने में जीडी इंट्री करते हुए घटना को पुलिस एनकाउंटर बताया। सिंडिकेट बैंक को लूटने आये डकैतों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया।
इस कथित एनकाउंटर की ख़बर पूरे इलाके में फैल गयी और उससे ज्यादा पुलिस की ज्यादती से नाराजगी। एसओ डीपी गौर का इलाके में बहुत आतंक था इसलिए जनता कुछ कर नहीं पायी। देखते देखते सैकड़ों लोगों ने थाने को घेर लिया और माया की जान बच गयी। थाने से लोगों के न हटने के चलते पुलिस इस जघन्य बलात्कार और फर्जी एनकाउंटर की कहानी के दो चश्मदीदों को ठिकाने नहीं लगा सकी। शाम चार बजे डिप्टी एसपी बीएस नेगी थाने बागपत पहुंचते हैं। तब इलाके के कुछ मानिंद लोग थाने में घुसने की हिम्मत जुटा पाते हैं। इसी में थे जगबीर सिंह एडवोकेट जिन्होंने माया को तन ढंकने के लिए कपड़े दिये थे। अपने मुवक्किल मलखान सिंह के साथ वे थाने पर तब तक डटे रहे जब तक माया के गांव से उसके भाई और पिता नहीं आ गये। मलखान सिंह माया के गांव साकलपट्टी के रहने वाले थे और उन्होंने ही जगबीर सिंह से गांव में सूचना भिजवायी थी जिसके बाद पांच बजे माया त्यागी के पिता थाने पर पहुंचे थे।
इस घटना ने तब पूरे देश को हिला दिया था। बागपत चौधरी चरण सिंह की जमीन है, पूर्व उपप्रधानमंत्री, पूर्व गृहमंत्री और उस ताकतवर जाट नेता की जो देश का पहला पिछडों का नेता माना जाता था। वो चौधरी चरण सिंह, जिसने सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी को जेल भिजवा दिया था। इसलिए दस दिन पहले ही मुख्यमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उधर दिल्ली की संसद में हंगामा मच गया और मेरठ में चरण सिंह धरने पर बैठ गये, लेकिन इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट की महिला वकीलों ने मोर्चा खोला तो चार जुलाई को बागपत थाने के एसओ छुट्टी पर चले गये। प्रदेश की वीपी सिंह सरकार एक थानेदार पर कार्रवाई क्यों नहीं कर सकी इसका जवाब उसी राजनीतिक निरंकुशता में छिपा है, जिसमें सत्ता ताकत का पर्याय होती है, सेवा का नहीं।
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आरोप है कि एसओ डीपी गौर कांग्रेस नेता राजेश पायलट का खास आदमी था इसलिए मुख्यमंत्री उस पर कार्रवाई नही कर सके। संजय गांधी के खास दोस्त राजेश पायलट उस वक्त संजय ब्रिगेड के गुर्जर सिपहसालार होते थे। गाजियाबाद के रहने वाले पायलट उत्तर प्रदेश में ज्यादा रुचि रखते थे और बागपत उनकी पसंदीदा लोकसभा सीट थी। दिल्ली के आसपास के इलाके में चौधरी चरण सिंह की घेरेबंदी के लिए संजय ने पायलट को चढ़ा रखा था। संजय ब्रिगेड ने पूरे यूपी में चुनाव की तैयारी कर ली थी और पश्चिमी यूपी की कमान राजेश पायलट की थी। जनवरी 1980 के मध्यावधि चुनाव में बड़े नेता चौधरी साहब के खिलाफ पायलट बागपत से खुद चुनाव लडकर बड़ा नेता बनाना चाहते थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने उन्हें राजस्थान के दौसा भेज दिया।
इस घटना से जुडी एक और जानकारी यह है कि ईश्वर त्यागी का भाई विनोद त्यागी यूपी पुलिस में कांस्टेबल था। मुजफ्फरनगर में उसकी पोस्टिंग थी। भाई के दाह संस्कार के लिए वो तीन दिन की छुट्टी पर गाजियाबाद आया था। तब उसके विभाग ने उस पर केस वापस लेने का दबाव बनाया। भाई की हत्या और भाभी से हुई बर्बरता को जानने के बाद उसने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया और छुट्टी बढ़ाने का आवेदन दिया जो स्वीकार नहीं हुआ। आखिरकार उसे बर्खास्त करने को कहा गया, लेकिन तत्कालीन एसपी मुजफ्फरनगर गणेश्वर झा ने विनोद को बर्खास्त करने से इंकार कर दिया। झा को इस नाफरमानी की सजा मिली और उनका तबादला कर दिया गया। उसके बाद मनोज कुमार नये पुलिस अधीक्षक बने लेकिन उन्होंने भी विनोद को बर्खास्त करने से इंकार कर दिया, जिसके बाद वीपी सिंह की सरकार ने यूके बंसल को एसपी मुजफ्फरनगर नियुक्त किया।
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17 सितंबर 1980 को बंसल ने विनोद त्यागी की अस्थायी सेवा दिखाते हुए उसे बर्खास्त कर दिया। भारी विरोध प्रदर्शन के बाद राज्य सरकार ने मामले की जांच सीबीसीआइडी को सौंप दी थी औऱ घटना की जांच के लिए कमेटी भी बनायी। 1988 में जिला अदालत ने छह पुलिसकर्मियों को दोषी मानते हुए दो को फांसी की सजा और चार को आजीवन कारावास की सजा सुनायी।
इससे पहले माया त्यागी काण्ड के मुख्य आरोपित सब-इंसपेक्टर नरेन्द्र सिंह की हत्या हो चुकी थी। विनोद त्यागी को नरेन्द्र सिंह की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। 2009 में उस पर लगे सभी आरोप खारिज हो जाते हैं और 2014 में 34 साल बाद हाइकोर्ट उसकी बहाली का आदेश सुनाता है।
क्या ये सब निरंकुश सत्ता की ओर से बनाये गये राजनीतिक दबाव के बगैर मुमकिन था? अपने फैसले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वी. डी. दुबे ने लिखा है- ‘’यह मुझे ‘पुलिस राज’ के आदिम दिनों की याद दिलाता है जहां लोग निरंकुश की दया पर थे। समाज के अस्तित्व के लिए ऐसी बुराइयों को खत्म करना जरूरी है।”
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