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रवि अरोड़ा की नजर से........

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धार्मिक जुलूस की पात्रता ही कहां बची / रवि अरोड़ा



सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि नूंह में हुए फसाद के बाद हो रहे प्रदर्शनों को लेकर उसने बेहद सतर्कता बरतने के बिंदुवार निर्देश जारी कर दिए हैं। हो सकता है कि कुछ लोगों को हैरानी हो कि अदालत ने ऐसे प्रदर्शनों पर रोक ही क्यों नहीं लगा दी ? इसका सीधा सा जवाब है संविधान के अनुच्छेद 19 और 25 की रौशनी में अदालत को ऐसा करना ही पड़ता । पिछ्ले साल भी धार्मिक जुलूसों पर रोक लगाने संबंधी एक जनहित याचिका के निस्तारण पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि देश में ऐसी रोक नहीं लगाई जा सकती। सर्वोच्य न्यायालय की राय सिर माथे पर मगर मेरी राय में वह दिन दूर नहीं कि जब हालात के मद्देनजर अदालत को अपने इस फैसले और संविधान की पुनर्समीक्षा करनी ही पड़ेगी। किससे छुपा है कि दंगों की असली जड़ अब धार्मिक जुलूस ही हो चले हैं। जुलूसों में हथियारों का खुला प्रदर्शन, उन्मादी नारे, दूसरे धर्म के अनुयायियों के इलाके से जबरन गुजरने की चेष्टा, राह में पड़ने वाले दूसरे धर्म के पूजनीय स्थल के समक्ष नारेबाजी और वहां अपने धर्म के चिन्ह लगाने का अधिकार तो आखिर संविधान ने भी नहीं दिया था ? कहा जा सकता है कि धार्मिक जुलूस संवैधानिक तरीके से निकलें, यह सुनिश्चित करना स्थानीय प्रशासन का काम है और इसमें अदालत क्या कर सकती है ? मगर जब प्रशासन के हाथ बांध दिए जाते हों अथवा आकाओं को खुश करने को स्वेच्छा से वह अपनी आंख पर पट्टी बांध लेता हो, तब कैसे सुनिश्चित होगा कि धार्मिक जुलूसों से शांति भंग नहीं होगी ?


31 जुलाई को हरियाणा के नूंह में विश्व हिन्दू परिषद के जुलूस पर हुए हमले में छह लोग मारे गए और अनेक घायल हो गए । अब तक 116 लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं और यह क्रम अभी जारी है। दंगाई किसी भी धर्म का हो , उसके खिलाफ सख्त से सख़्त कार्रवाई होनी ही चाहिए मगर क्या पुलिस और प्रशासन के उन अधिकारियों को भी नहीं पकड़ा जाना चाहिए, जिन्होंने फसाद की हर सूचना को अनदेखा किया ? जूलूस का नेतृत्व कर रहा मोनू मानेसर दो अल्पसंख्यकों को गौ हत्या के आरोप में जिंदा जला चुका है और राजस्थान का मोस्ट वांटेड है । यह बचकाना विचार किस अफसर का था कि यही कुख्यात अपराधी जब हथियारों को लहराता और दूसरे धर्म के लोगों को चुनौती देता हुआ मुस्लिम बहुल इलाके से निकलेगा और पत्ता भी नहीं खड़केगा ? क्या इन अधिकारियों को पता नहीं था कि मेवात का यह इलाका गरीबी, अशिक्षा ही नहीं तमाम तरह के अपराधों का भी केंद्र है, फिर क्यों इस इलाके से हथियारों और उन्मादी नारों के साथ इस जुलूस को निकलने दिया गया ? जनपद का खुफिया विभाग सो रहा था और उसे पता ही चला कि खुराफाती छतों पर पत्थर जमा करके बैठे हैं और यात्रा वहां से गुजरी तो फसाद होगा ही । मोनू की ही तरह एक और कुख्यात बिट्टू बजरंगी जुलूस से पहले सोशल मीडिया पर हथियारों को लहरा कर चुनौती दे रहा था कि तुम्हारा जीजा आ रहा है, स्वागत की तैयारी कर लो। इसके बावजूद जुलूस शांति पूर्ण होने का अनुमान लगा लिया गया ? चलिए एक बार को स्वीकार कर भी किया जाए कि अफसरों ने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया मगर इसका क्या कारण है कि दंगे की असली वजह बने मोनू और बिट्टू जैसे उन्मादियों के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई  ?


असली मुद्दे पर आता हूं। यह किसी से छुपा नहीं है कि धार्मिक जुलूसों में तमाम राजनीतिक दल अपने मतदाता तलाशते हैं। जिसकी सरकार होती है वह अपने समर्थक धर्म के लोगों को जुलूस निकालने में तमाम तरह की रियायतें देता है और दूसरे धर्म वालों पर नियमों का चाबुक चलाता है। पिछले एक दशक से तो यह अब आम हो चला है। उत्तरी भारत का कोई ऐसा शहर नहीं जहां किसी एक धर्म का जुलूस निकले और दूसरे धर्म वालों का कलेजा न कांपे। क्या यही है धर्म और उसका अनुपालन ? यह बार बार यह साबित हो रहा है कि बेशक भारतीय संविधान ने अपने धर्म का प्रचार करने की आजादी हमें दी है मगर हम उसके योग्य नहीं हैं। अथवा हम अपने इस अधिकार का दुरोपयोग करने से बाज ही नहीं आते । संविधान निर्माताओं ने हम से कुछ अधिक ही अपेक्षा कर ली थी शायद । सीधी सी बात है कि जब पात्रता ही नहीं है तो फिर अधिकार भी क्यों मिले ? बंद हों सभी धर्मों के ये सांप्रदायिक जुलूस ।


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