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अदालत की भाषा बनाम लैंगिक न्याय / ऋषभ देव शर्मा

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#डेलीहिंदीमिलाप


लैंगिक रूढ़िवादिता से निपटने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में लॉन्च की गई पुस्तिका (हैंडबुक) देश में लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है। हैंडबुक सामान्य लैंगिक रूढ़िवादिता की पहचान करती है जो अक्सर कानूनी दस्तावेजों, बहसों और फैसलों की भाषा में दिखाई देती है, और वैकल्पिक भाषा प्रदान करती है जो अधिक सटीक और समावेशी है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भाषा हमारी सोच पर गहरा असर डाल सकती है, और लैंगिक रूढ़िवादिता का उपयोग स्त्री-पुरुषों के बारे में हानिकारक धारणाओं को कायम रख सकता है।


पुस्तिका दो भागों में विभाजित है। पहला भाग लैंगिक रूढ़िवादिता को समझाते हुए यह बताता है कि वह कैसे हानिकारक हो सकती हैं। दूसरे भाग में लैंगिक अन्यायपूर्ण शब्दों की सूची शामिल है। साथ ही ऐसे शब्दों के स्थान पर  बरतने लायक बेहतर विकल्प भी सुझाए गए हैं। इस सूची में शब्दों की एक विस्तृत शृंखला शामिल है, जिसमें "वेश्या"और "कुँवारी माँ"जैसे सामान्य शब्दों से लेकर "वैवाहिक बलात्कार"और "यौन उत्पीड़न"जैसे अधिक तकनीकी शब्द तक शामिल हैं जिनका इस्तेमाल आम तौर पर समाज स्त्रियों की गौण दशा का द्योतक है। इन शब्दों में कहीं न कहीं तिरस्कार का भाव भी शामिल होता है। यही वजह है कि इन शब्दों के न्यायपालिका में व्यवहार को अवांछनीय करार दिया गया है। इसे लैंगिक भेदभाव को दूर करने की एक सार्थक कोशिश कहा जा सकता है। 


यह पुस्तिका न्यायाधीशों, वकीलों और कानूनी क्षेत्र में काम करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक मूल्यवान संसाधन है। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि देश में कानूनी चर्चा अधिक लिंग-संवेदनशील है, और महिलाओं के अधिकार सुरक्षित हैं। यह हैंडबुक उन लोगों के लिए भी एक अच्छी शुरूआत हो सकती है, जो लैंगिक रूढ़िवादिता और उसे चुनौती देने के बारे में अधिक जानना चाहते हैं।


सयाने बता रहे हैं कि इस पुस्तिका में यह दर्शाया गया है कि लैंगिक रूढ़ियाँ हानिकारक हैं क्योंकि वे लोगों की क्षमता को सीमित करती हैं, महिलाओं को उनकी पूरी क्षमता हासिल करने से रोकती हैं, और वे पुरुषों के खिलाफ भेदभाव को भी जन्म दे सकती हैं। याद रहे कि कानूनी संवाद में अक्सर लैंगिक रूढ़िवादिता का उपयोग किया जाता है, भले ही वह गलत और भ्रामक हो। इसका मामलों के नतीजे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, और इससे कानूनी प्रणाली में लिंगवाद की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि अधिक सटीक और समावेशी भाषा का उपयोग करके लैंगिक रूढ़िवादिता के प्रयोग से बचा जाए। इस लिहाज से इस पुस्तिका में दी गई लैंगिक अन्यायपूर्ण शब्दों की सूची और सुझाए गए विकल्प न्याय जगत में भाषा के स्तर पर लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने में तो सहायक होंगे ही, वकीलों और जजों की बिरादरी में नए भाषिक संस्कार का आधार भी बन सकेंगे।


बेशक, सुप्रीम कोर्ट की यह कार्रवाई प्रगति का संकेत है। लेकिन अभी भी बहुत काम किया जाना बाकी है। क्योंकि भारतीय समाज में लैंगिक रूढ़ियाँ गहराई से व्याप्त हैं और इन्हें बदलना आसान नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायाधीश, वकील और कानूनी क्षेत्र में काम करने वाले लोग भर ही नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर  देश भर में शिक्षक, छात्र, मीडिया और राजनेता भी इस पुस्तिका के निर्देशों को अपने दैनिक भाषा-व्यवहार में अपनाएँगे। ऐसा करके ही हम एक अधिक लिंग-समान भारत का निर्माण कर सकते हैं। वरना तो हम ऐसा रूढ़िग्रस्त समाज हैं जिसमें सारे आशीर्वाद पुरुषों के लिए आरक्षित हैं और सारी गालियों का लक्ष्य स्त्रियाँ हैं! 000




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