(मुजफ्फरनगर दंगे की रिपोर्टिंग के लिए जैसे ही संपादक ने अपने चेले को जाने को कहा, उसे पोट्टी लग गयी)
बात 2013 की है। मुजफ्फरनगर में दंगा फैला हुआ था। जिले के कवाल नामक गाँव के दो मासूम भाइयों की नृशंस हत्या के बाद समूचा जिला हिन्दू-मुस्लिम दंगे की चपेट में आ गया था। रोजाना हत्याएं हो रही थीं। दंगे की रिपोर्टिंग कर रहे एक tv पत्रकार की भी हत्या दंगाइयों ने मुजफ्फरनगर शहर के अंदर कर दी। पत्रकार की हत्या से दूसरे समुदाय के पत्रकारों में डर समा गया कि बदले की भावना से कहीं उन पर भी प्रहार न हो जाय, लिहाजा वे अंडरग्राउंड हो गए।
उस वक्त मेरी पोस्टिंग राष्ट्रीय सहारा के दिल्ली स्थित नेशनल ब्यूरो में विशेष संवाददाता के पद पर थी। मुज़फ्फरनगर में राष्ट्रीय सहारा का संवाददाता भी अंडरग्राउंड हो गया था, क्यों कि वह भी एक विशेष समुदाय से था। हमारे अखबार को वहाँ से रिपोर्ट करने वाला कोई नहीं था, और विशेष खबरों का अकाल पड़ गया था। जाहिर है अखबार सिर्फ एजेंसी के भरोसे रह गया था।
ऐसे में राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संपादक राजीव सक्सेना ने कनॉट प्लेस स्थित नेशनल ब्यूरो की मीटिंग की। उन्होंने ब्यूरो के कुछ वरिष्ठ और उनके खास माने जाने वाले 1-2 संवाददाताओं की तरफ मुखातिब होकर कुछ दिन के लिए मुजफ्फरनगर कैम्प कर रिपोर्टिंग करने के लिए कहा (इस तरह की घटनाओं की रिपोर्टिंग करने से रिपोर्टर को एक्सपोजर मिलता है। इसलिए वो चाहते थे कि उनका कोई चेला ही जाए)।
हालाँकि उनके इतना कहते ही ब्यूरो की मीटिंग में सन्नाटा छा गया, गोया सबको फाँसी की सजा सुना दी गई हो। सब एक-दूसरे की ओर देखने लगे। ... बहरहाल सन्नाटा टूटा और जिसकी तरफ देखकर संपादक ने मुजफ्फरनगर जाने की बात कही थी उसने बहुत ही मरियल आवाज में कहा कि उसके बेटे की तबियत खराब है। दूसरे ने तो खुद लूज मोशन होने की बात बताई। और वैसी ही मुद्रा भी बनाई। जैसे फारिग होने की नौबत फिर से आ गयी हो !
फिर संपादक ने मेरी तरफ उड़ती नज़र डाली और पूछा 'तुम जाओगे ?'मैं पहले से ही बेचैन था कि वह मुझे जाने के लिए कहें। मैंने तुरंत हामी भरी और अगले दिन सुबह अखबार के काबिल कैमरामैन मुकेश के साथ मैं मुज़फ्फरनगर में था। मैं गोरखपुर में अपनी पत्रकारिता के दौरान पहले भी दंगों की रिपोर्टिंग कर चुका था। मुज़फ्फरनगर में हमने चार दिन रहकर जमकर रिपोर्टिंग की। खूब विशेष खबरें लिखीं। अखबार का एक पूरा पेज दंगे को समर्पित था, जिसका 70 फीसद हिस्सा मेरी खबरों का होता था। रोजाना कम से कम मेरी 4 बाईलाइन खबर तो होती ही थी। और हाँ, इधर मेरे ब्यूरो दफ्तर में मेरी बाईलाइन खबरों का अंबार देखकर बहुतों का पेट दर्द होने लगा था। उनमें वे भी थे जिन्हें मुज़फ्फरनगर जाने के नाम पर पोट्टी लग गयी थी।
मुजफ्फरनगर शहर ही नहीं बल्कि पूरे जिले में कर्फ्यू लगा था। कुछ दिनों के बाद थोड़ा हालात संभलने की स्थिति में बीच-बीच में 1-2 घंटे के लिए कर्फ्यू में ढील दी जाने लगी थी। हमनें कर्फ्यू में ही पूरे जिले का दौरा किया। कवाल गाँव भी गया। पूरा गाँव छावनी में तब्दील था। कर्फ़्यू और दंगे की रिपोर्टिंग के लिए सहारा के सर्विस डिवीजन ने हमें जो कार (मारुति स्टीम) दी थी, वह पूरी तरह कबाड़ थी, और उबड़ खाबड़ रास्तों पर तो बंद हो जाती थी। उसे बार बार स्टार्ट करना पड़ता था। पूरा एक्सीलेटर चांपने के बाद भी उसने 50 के ऊपर न भागने की कसम खा रखी थी। मतलब साफ है अगर हम दंगे में फंस जाते या कोई पीछा करता तो भागने की स्थिति में भी नहीं थे। ऐसा नहीं है कि जब कबाड़ गाड़ी मिली जाने के लिए तो मैंने आपत्ति नहीं की थी। मेरी आपत्ति पर सर्विस डिवीजन के तत्कालीन अधिकारी ने कहा कि आप जिस कैडर (विभागीय पद) में आते हैं, उस कैडर के व्यक्ति को यही गाड़ी उपलब्ध कराने का नियम है। यानी दंगे की रिपोर्टिंग में भेजे जाने के लिए भी गाड़ी कैडर के हिसाब से। कहना न होगा कि ऐसे ही बदमिजाज लोगों ने इस बड़े मीडिया संस्थान की लुटिया डुबोने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
और यह भी कि.....मेरे साथ कोई और कैमरामैन भेजा जा रहा था, लेकिन मैंने मुकेश का चयन इसलिए किया कि वह जाट था और उसका ननिहाल वहाँ था। मुजफ्फरनगर जाट बहुल इलाका है। उससे स्थानीय लोगों की भाषा में उनसे बात करना और मुश्किल वक्त में उसकी रिश्तेदारी में मदद मिल सकती थी। मुकेश के साथ मैं उसके ननिहाल के गांव भी गया (नीचे तस्वीर में उसके ननिहाल की भी तस्वीर है, जिसमें लोग खाट पर बैठे हैं)। वहाँ लोगों से बातचीत में मुझे खबर लिखने में मदद मिली। लोगों के मिज़ाज का पता चला।
बहुत दुःखद है कि मुकेश अब हमारे बीच नहीं है। कोविड ने उसे हमसे असमय छीन लिया। जब भी उस दंगे की रिपोर्टिंग की याद आती है, मुकेश बरबस याद आता है। उसे सादर नमन।
संजय सिंह
(सभी फोटो - मुकेश द्वारा)
( शीघ्र प्रकाश्य मेरी पुस्तक 'दिल्ली में मेरे पत्रकारिता के दिन'का एक बहुत छोटा हिस्सा)
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