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आलोक तोमर को जितना जाना / नवीन कुमार

 एक पत्रकार को सिर्फ़ उसकी कही हुई कहानियों के लहजे, उसकी पहुँच और उसके असर की वजह से जाना जाना चाहिए। उसके लिखने की शैली, उसके विषय, उसकी आवाज़, उसकी व्यापकता। कुछ अपवादों को छोड़कर पत्रकार अपने आप में कोई ख़बर नहीं हो सकता। और अपवादों में भी निरंतर तो हरगिज़ नहीं। अगर कोई पत्रकार कहानियाँ नहीं कह रहा है, प्रभावी तरीक़े से लिख, पढ़, बोल नहीं रहा है और उसे चर्चा में बने रहने का चस्का लग चुका है तो उसमें और जॉनी वाकर में कोई फ़र्क़ नहीं। 


कई बार आपको पता नहीं चलता लेकिन आप दरअसल एक विदूषक के तौर पर दर्ज होने लगते हैं। लिखना-पढ़ना सोचना-बोलना कोई एक दिन की बात नहीं है। इसे रोज़ बरतना पड़ता है। रोज़ साधना पड़ता है। रोज़ सुधार करना पड़ता है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि आप अपने काम की इज़्ज़त करें और उसी में पहचान ढूँढे। आप दो हज़ार चार हज़ार शब्द तरतीब से एक सिटिंग में लिख सकते हैं या नहीं?


पत्रकारिता में मेरे शिक्षक दिवंगत Alok Tomar रोज कहते थे कि तुम्हारी कहानी ही तुम हो। इसी पर बात होगी। अगर इसके अलावा किसी और वजह से तुमपर बात होने लगे तो इतराने की बजाय संभल जाना। यहीं से एक पत्रकार फिसलना शुरु होता है। एक दफा उन्होंने मुझे एक कहानी लिखने के लिए दी। मैंने लिखकर दी तो कहा एक और कॉपी लिखो। कुल पांच दफा लिखवाया। लेकिन जब छठी बार उन्होंने लिखने के लिए कहा तो मैं बिफर गया। मैंने कहा आप मेरी बेइज्जती कर रहे हैं। आपको इसका हक नहीं। मेरी नाराजगी पर वो सिर्फ हंसते रहे कि अभी आप वहां नहीं पहुंचे हैं जहां से इज्जत और बेइज्जती की सोचें भी। हैरानी तब हुई जब उन्होंने अगले दिन उन्होंने नई दुनिया में छपी मेरी कॉपी दिखाई। वो पहली कॉपी थी जो उन्होने लिखवाई थी। मैंने कहा जब आप इसको भेज चुके थे तो पांच बार क्यों लिखवाया। उनका जवाब था अब सारी कॉपी पढ़ो। मैंने कहा सब एकदम अलग-अलग हैं। उन्होंने कहा यही देखना था। एक ही कहानी को अलग-अलग तरह से विस्तार देने का हुनर और धैर्य तुम्हारे भीतर है या नहीं। इंट्रो लिखने में कितनी मेहनत करते हो। मैं शर्मिंदा था। उस रोज उन्होंने इनाम के तौर पर पहली बार मार्लबोरो सिगरेट पीने के लिए दी थी। ये कहते हुए कि पढ़े-लिखे लोग थोड़े बिगड़े हुए अच्छे लगते हैं। 


आलोक जी बार-बार एक चेतावनी देते थे। जिस दिन स्टार की तरह महसूस करने लगोगे तुम्हारे भीतर का पत्रकार, लेखक, कवि, चिंतक, अध्यापक मरने लगेगा। तुम सड़ने लगोगे। और सबसे ख़तरनाक ये है कि तुम्हें अपने सड़ने की बू महसूस तक नहीं होगी। जबकि वो ख़ुद पत्रकारिता के जगमगाते हुए सितारे थे। 1984 के सिख नरसंहार पर उनकी लिखी रिपोर्टों पर कई पीएचडी हो चुकी। उनका जब एक्सीडेंट हुआ तो प्रधानमंत्री तक ने उनका हाल-चाल लिया था। फिर भी बंगाली मार्केट के फुटपाथ पर बैठकर गप करते हुए कभी एक लकीर तक नहीं आने दी कि उनका काम और नाम कितना बड़ा है। 


12 साल पहले लोधी रोड के मशान में आलोक तोमर को फूंककर वापस लौटते हुए उनके सबक़ याद आते रहे थे। वो  ऐसे विराट शख़्स थे जो बच्चों की तरह झगड़ा करके इंतज़ार करता था कि पहले सॉरी कौन बोलेगा। Supriya जी ऐसी कई लड़ाइयों की मध्यस्थ और निर्णायक रही हैं। पिछले कुछ दिनों से आलोक जी बार-बार जहन में आ रहे थे। मालूम नहीं क्यों।



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